Thursday 30 October 2014

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों मे इन्द्रधनुषी रंग

छत्तीसगढ़ का लोकजीवन प्रकृति के नजदीक और अपने मानस परम्पराओं से जुड़ा हुआ है, यहाँ पर जीवन को सहज और सरल ढंग से जीने के तौर-तरीके कायम है। यहाँ पर जीवन में लोग कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने को सहज और सरल बनाये रखते है। संघर्ष ही यहाँ का जीवन है। सदैव ही सादगीपूर्ण रहना और अनेक अवसरों पर अपने को खुश रखना यहाँ का एक तरह से रिवाज है और शायद इसी संघर्षपूर्ण जीवन में भी सहजता और सादगी के लिए यहाँ के लोगो को ''छत्तीसगढ़ीया सबसे बढिय़ाÓÓ का खिताबी तमगा सम्मान में दिया गया है।
यहाँ का लोकजीवन प्रेम के रस माधुर्य एंव संगीत के रिदम से अनुगुंजित होता है। यहाँ पर जीवन का नाम ही अनुराम है, इसीलिए जब भी अवसर मिलता है लोकजन के ढंठों से स्वर लहरियाँ फूट पड़ती है और वादियों को झकंृत कर देती है। सुदुर वंनाचलों के अंदर रहने वाले लोग हों या फिर नगर-ग्राम में जीवन बसर कर रहे लोग, सभी के जीवन में प्रेम-रस की माधुर्यता ओत-प्रोत होकर गीत-संगीत की स्वर लहरियों में त्यौहार, उत्सवों आदि पर्वों पर नजर आती है, वह चाहे करमा हो या ददरिया, लेंझाहो या सुवा सभी में एक अजीब सी कशिश, एक अजब सा सुकुन मिलता है। यहाँ का जीवन दर्शन यहाँ के लोकगीतों में हमें स्पष्ट रूपों में प्राप्त होते है। यहाँ के लोकगीतों में जीवन के उन सच्चाईयों को स्वर लहरियों में पिरोकर गाया जाता है, जो यथार्थ - जीवन में लोगों को भोगना पड़ता है, जिसका सामना करना पड़ता है।
यहाँ का प्रत्येक लोकगीत अपने भावों की अभिव्यक्ति को स्वंय स्पष्ट करते हुए नजर आते है। जैसे:-
एक नवब्याही युवती अपनी दादी से कहती है ,कि इस वर्ष मुझे ससुराल मत भेजना दादी, मैं अभी ससुराल जान की मन: स्थिति में नहीं हॅंू अर्थात् मेरा तन,मन, सब कुछ  इसके लिए अभी मुझे साथ नहीं दे रहा है अत: अभी मेरा गौना रोक दो। यहाँ पर बाल विवाह की एक पुरानी परंपरा रही है जिसमें कम उम्र में ही बच्चों की शादी कर दी जाती है। एेसे ही एक युवती की अपनी पीड़ा इस लोकगीत में है, जिसे ससुराल का डर खाए जा रहा है:-''आसो गवन  झन देबे ओ बुढ़ी दाई, मैं बासं बिरवा कस डोलत हंव ओ.......'' पुरातन परम्परा यहाँ पर आज भी विद्यमान है। यहाँ आज भी ग्रामों में लोग संयुक्त परिवार में रहते है, यहाँ पर मां, बाप, भाई,बहू,भतीजा, सास, ससुर, देवर, जेठ, जेठानी आदि सभी होते है। ये सभी रिश्ते यहाँ पर बड़े अदब के साथ अह्म रूपों में माने जाते है। सभी की अपनी-अपनी गरिमा होती है। छोटे-बड़ों का स्थान एंव व्यवहार तय होता है। बोलचाल में भी सभी के प्रति अपने अलग अंदाज और अदब शामिल होते है। इसीलिए यहां पर संयुक्त परिवार की अपनी महत्ता है।
यहाँ परिवार में महिलाआें में बड़ी, सास होती है वहीं परिवार की एक तरह से साम्राज्ञी होती है, वह जो कहती है सभी महिलाओं को करना होता है अत: बहू का स्थान द्वितीयक होता है इसीजिए वह नव ब्याही बहू को डांटती-डपटती रहती है और अन्य सदस्य भी उस नवेली बहू को अनुभव हीनता के लिए डांटते है कुछ यही भाव इस
लोकगीत में है:-
''सास गारी देवे, ननद मुंह लेवे देवर बाबूमोर, संईया गारी देवे, परोसी गम लेवे-करार गोंदाफूल। केराबारी मा डेरा देबो चले के बेरा हो ..... ''आभूषण प्रेम नारी की प्रथम और उदात्त मनोवृत्ति है। नारी में आभूषण के प्रति आकंठ आकर्षण और अनुराग पाया जाता है। वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार होती है और वह अपना यह आभूषण प्रेम नहीं छोड़ पाती है। यही बात यहां का लोकगीतकार भी अपने लोकगीत में कहता है। एक पत्नी अपने पति से नौलखाहार की मांग कर रही है और उसका पति अपनी आर्थिक स्थिति को जानते हुए केवल उसे ढांढस बंधाते हुए सब्जबाग दिखा रहा है:-''लेदे -लेदे मोर बर नौलखिया हार हो बाबू के ददा.... लेहूं-लेहंू तोर बर नौलखिया हार हो नोनी के दाई .......''एक दूसरे दृश्य में जिसमें एक युवती तालाब नहाने गई है और वहाँ उसके पैर की बिछिया गुम हो जाती है, वह परेशान हो जाती है और अपनी सखियों तथा अन्य को बताती फिरती है:-''गोड़ के गंवागे बिछिया, गंगाजल, गोड़ के गंवागे बिछिया, असनांदे गएंव मैं तरीया, गंगाजल गोड़ के गंवा के बिछिया .....''प्रेम जीवन का अनुपम उपहार है। इस उपहार के  बदौलत ही मानव जाति में सर्वत्र हर्ष और स्नेह देखने को मिलता है। इसी प्रेम के वशीभूत हो युवावस्था में युवामन बहकने लगता है और अपने मनपंसद साथी का चुनाव भी करता है। लोकगीतकार के गीत में इसी भावभूमि पर अभिव्यक्ति मिलती है: एक नवयुवती सफर में अपने हमसफर से प्रेम कर बैठती है और उससे जब बिछुडऩे लगती है तब उसका अंतरमन साथी से कह उठता है कि तुम अपना नाम, पता, ठिकाना तो बता दो, जिससे फिर कभी दुबारा मिलने की गुंजाईश हो सके:-''पता दे जा रे पता ले जा रे गाड़ी वाला, पता दे  जा, ले जा गाड़ी वाला रे ,तोर नाम के ,तोर गांव के पता दे जा ....ÓÓ
यहाँ पर जीवनदर्शन आध्यात्म को अंगीकार करते हुए जीवन के कर्म -निर्धारण को मानते हैं और इसीलिए धर्म, कर्म पाप, पुण्य,हानि, लाभ, जन्म , मरण आदि पर विशेष विचार किया जाता है। यहाँ कर्म का निर्धारण जन्म का प्रतिफल के रूपों मे लिया जाता है। अच्छे कर्म से आने वाला जन्म अच्छा होगा और बुरे कर्म का फल बुरा होगा। इस तरह धर्म पर आस्था को विशेष महत्व देते हुए अच्छे कर्म करने को मानव जीवन का मुख्य आधार माना गया है। लोकगीत में गीत के भाव कुछ इसी तरह से निर्दिष्ट है:-
''दया धरम के कर ले कमाई, गढ्ढे़ हे विधाता तोला रे भाई, मानुस तन चोला, बार-बार नहीं आई......''देश, माटी और आजादी के लिए भी यहाँ पर लोक कवि के हृदय में उथल-पुथल मचा रहा और वह अपने इस देश की मिट्टी का गुणगान करने के लिए अपने उन्मुक्त कंठ से स्वर लहरी बिखेरा जिसे वह शुरू (तोता) को संबोधित करते हुए गाया:-''भारत भुंईया ला बंदब, पदुम पंईया लागौं ना रे सुवा न , न आजादी के बंदव बलिदान, ना रे सुना न के आजादी के बंदव बलिदान.....''भारत की यह पुण्यधरा जहाँ पर सदा से देवात्माओं का आविर्भाव होता रहा है। जहाँ पर आज भी यहाँ के कण-कण में ईश्वर का वास माना जाता है, एेसी भूमि पर जहाँ सूर्य, चांद और सितारे भी पूज्य हैं, जहाँ रात और दिन की भी पूजा होती है एेसे में जब यहाँ पर रात्रि के बाद सुबह सूर्य का स्वर्णिम किरण इस धरा पर बिखरता है तब यहाँ का लोकगीत गा उठता है:-
''अंगना म भारत माता के, सोन के बिहिनिया ले। चिरईया बोले.....''जीवन में सुख और दुख दोनों का समन्वय जरूरी है। दोनों का घनिष्ठ संबंध है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू है और इन दोनों का जीवन में अनुपम योगदान होता है। दोनों एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकते , दोनों अधूरे है। इसीलिए एक के बाद दूसरे का आना ही जीवन को परिपूर्ण बनाता है और अपनी कसौटी पर कसता हैै। यहीं जीवन का यथार्थ है अन्यथा जीवन नीरस हो जाता है, बेरंग हो जाता है। सुख के बगैर या दुख के बगैर जीवन में सरस भाव नहीं आ पाता,अत: दोनों का होना ही जीवन को रसमय बनाता है और इसी सुख-दुख के भाव को जीवन की संगी मानते हुए लोकगीतकार कहता हैकि यही विधि का विधान है:-''विधि के इही विधान रे संगी, सुख-दुख तोर मितान रे संगी। विधि के इही विधान .......''यह धरा आध्यात्म का केन्द्र बिंदु रही है। यहाँ पर जीवन के प्रत्येक कार्य में धर्म और आध्यात्म को जोड़कर देखा जाता है। इसीलिए जीवन के समस्त क्रिया-कलापों में धरम-करम, पाप-पूण्य, जुड़ा दिखाई देता है। यहाँ पर जीवन के समस्तरूपोंं क ो जीने के साथ ही अंतिम सच को सदैव स्वीकार किया जाता रहा है और वह है
एक दिन मौत।
इंसान सब कुछ करता है। तरह-तरह से क्रिया कलापों में घिरा होता है, परंतु यह विधि का ही विधान है कि  एक दिन यहाँ से सबको शरीर त्याग कर जाना ही होगा और इसी बात को यहाँ का लोककवि अपने लोकगीत में कहता है,जो यहाँ का जीवन दर्शन भी कहा जा सकता है कि यह शरीर तो मिट्टी का बना है, जो एक खिलौने जैसा है, जब तक चलता है खेलता-कूदता रहता है परतुं एक दिन टूट कर बिखर जाता है, मिट्टी में मिल जाता है। शरीर पंचमहाभूतों  से निर्मित है वह भी इन्हीं पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है। इसी को कवि अपने स्वर में गाता है:-''चोला माटी के हे राम , एकर का भरोसा । चोला माटी के हे रे .............'' इस तरह जीवन के सम्पूर्ण रंगों से सजा सामान्य से लेकर आध्यात्म तक इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर छत्तीसगढ़ी जनजीवन मेें उनके लोकजीवन को उनके लोकगीत तंरगीत करते रहता है। उनमें एक उत्प्रेरणा, एक नई ऊर्जा का संचार करते रहता है और जीवन को सहज-सरल ढंग से जीने के लिए और अपनी सनातनी परम्परा का निर्वाहन करने को आदेशित करता है, जो अपने आप में एक सुसमृद्ध और गौरवशाली परम्पराओं के इतिहास का धनी है।
साभार रउताही 2014
 

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