Tuesday 21 October 2014

निमाड़ी लोकगीतों में रामकथा

निमाड़ मध्यप्रदेश के दक्षिण-पश्चिम में बसा संस्कृति क्षेत्र है। इसका पुराना नाम अनूप देश था। पूर्व में गंजाल नदी से लेकर पश्चिम में हिरनफाल और उत्तर में विन्ध्यांचल से लेकर दक्षिण में सतपुड़ा तक इसका विस्तार है। इसी निमाड़ अंचल में खण्डवा है,खरगोन है और माहिष्मती (महेश्वर) है। खण्डवा का संबंध खाण्डव से, खरगोन का संबध खर-दूषण से और महेश्वर का संबंध सहस्रबाहु अर्जुन तथा रावण से माना जाता है। यह इतिहास ही नहीं लोक की मान्य धारणा है। इसी लोक की धारणाओं की शिला-संधियों से रामकथा की नर्मदा बहती है। निमाड़ में खण्डवा का रामेश्वर कुञ्ज और नर्मदा के धारा क्षेत्र के पास उत्तर में सीतामढ़ी राम वनगमन के प्रमाणों को अपने में सहेजे समेटे हुए हैं।
निमाड़ी वर्तमान मध्यप्रदेश की प्रमुख चार बोलियों में से एक है। यह पश्चिमी हिन्दी की बोली है इसका अपना एक लोक-संसार है। यह मालवी और बुन्देली बोलियों एवं मराठी तथा गुजराती भाषाओं की गोद में हँसती-खेलती है। इसके शब्द अर्थों में भारतीय सनातन मानस के संस्कार समाहित हैं। ये संस्कार निमाड़ी भाषा साहित्य में पूर्णत: उच्छलित हुए हैं। निमाड़ का लोक मानस भी शेष भारतीय लोक मानस जैसा ही भाव-पूरित और अपनी मिट्टी की बनक लिए विशिष्ट है। निमाड़ी भाषा साहित्य में राम उसी तरह उपस्थित हैं जैसे एक माँ की स्मृति में अपना बेटा उपस्थित रहता है। निमाड़ी लोक के जीवन मूल्यों के रक्षण और निखार से लेकर उसके आचरण-भूतल तक राम सम्पूर्ण आत्मीय भाव से साँस-साँस में मुखरित और अभिव्यक्त होते हैं। अभिवादन में राम-राम, विषाद में हे राम, आश्चर्य में हाय राम, घृणा में राम-राम-राम और अंतिम समय में राम ही अभिव्यक्ति की भंगिमा में बैठकर अर्थ बोलते हैं और भी अनेक सन्दर्भ हैं।
निमाड़ी लोकगीतों में यही राम अपनी कथा के साथ लोकजीवन के संस्कारों में संवाद करते हैं। रामकथा को तुलसीदास ने 'मन्दाकिनीÓ  भी कहा और 'सकल जनरंजनीÓ  भी कहा। निमाड़ी लोकगीतों में रामकथा 'मन्दाकिनीÓ  की तरह सहज प्रवाह प्रसूता है और यह लोक के विषाद का हरण करने वाली उत्फुल्ला भी है। निमाड़ी लोकगीतों में जीवन के सोलह संस्कार वर्णित हैं। इन संस्कारों में प्रमुखत: दो संस्कार रामकथा में विशेष रुप से आये हैं एक राम जन्म-उत्सव और दूसरा राम-विवाह उत्सव। रामकथा के शेष प्रसंग वैसे ही निमाड़ी लोकगीतों में आये हैं, जो रामकथा में परम्परित रुप से मौजूद हैं। निमाड़ी लोक राम को राजकुमार अधिक, भगवान कम मानता है। राम जन्म के समय राजा दशरथ द्वारा दान में वस्तुओं को लुटाया गया। एक विशेष गीत में यह प्रसंग आता है कि जो-जो वस्तुएँ राजा दशरथ ने दान में दी वे सारी की सारी दे दी गयी, उनमें से विशेष रूप से एक-एक वस्तु ही विशेष कारण से बच पायी। राजा दशरथ ने हाथी लुटाये, सारे हाथी दान में दे दिये, एक मात्र हाथी बचा वह भी कदली वन में। इसी तरह एक मात्र घोड़ा सूरज के रथ का बचा रहा। कौशल्या की नथ का मोती बचा रह गया।
राजा दशरथ नऽ हाथी लुटाया,
बच्यों रे हाथी एक वो कदली वन म ऽ।।
राजा दशरथ नऽ घोड़ा लुटाया,
बच्यों रे घोड़ों एक सूरज का रथ मऽ।।
राजा दशरथ नऽ मोती लुटाया,
बच्यों ने मोती एक कौसल्या की नथ मऽ।।
राम जन्मोत्सव के समय राजा दशरथ एक ओर तो द्रव्य लुटा रहे हैं, लेकिन लोक जिन प्रकृति प्रसूत वस्तुओं से अपने जीवन व्यवहार को सम्पन्न करता है, वही सब वस्तुएँ राम जन्म एवं राम जानकी विवाह में प्रयुक्त हो रही हैं। गोबर से आँगन लीपा है। हरे बाँस का मण्डप बनाया है, लेकिन चौक मोती से पूरा और उस पर सोने का कलश भरकर रखा है। यहाँ लोक की सम्पत्ति-सम्पन्न होने की कामना तो झांक रही है, साथ ही उसकी निर्धनता में से भाव-उदात्तता भी फूटती है। एक विशेष बात यह है कि लोक व्यवहार और लोक संस्कार की सम्पन्नता और पूर्णता प्रकृति के सान्निध्य और मानव (लोक) तथा प्रकृति की पारस्परिकता में ही फलित होती है। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के जन्म से माता कौशल्या, कैकई और सुमित्रा की प्रसन्नता को अभिव्यक्ति देते हुए निमाड़ी लोकगीतों में प्रकृति का बिम्बानुबिम्ब रुप द्रष्टव्य है। चारों भाइयों के जन्म की खुशियों में प्रकृति स्वयं सम्मिलित है-
केवड़ों फूल्यों, मोगरो फूल्यो, अति सुख पाई नऽ।
माता कौसल्या असी फूली, रामचन्द्र जाई नऽ।।
चम्पो फूल्यो, चमेली फूली, अति सुख पाई नऽ।
माता सुमित्रा असी फूली, लखनलाल जाई नऽ।।
मालती फूली, जूही फूली, अति सुखपाई नऽ।
माता कैकेई असी फूली, भरतलाल जाई नऽ।।
गंगा फूली, जमुना फूली, अति सुख पाई नऽ।
सरजू भैया असी फूली, रामचन्द्र न्हवाड़ी नऽ।।
सरयू नदी के जल से राम को स्नान कराया, जिससे सरयू प्रसन्न हो गयी। लोकाभिव्यक्ति यह संकेत करती है कि सत्पुरुष के जन्म से और उसके सान्निध्य से प्रकृति तक में सद्भाव से प्रसन्नता व्याप जाती है।
निमाड़ी लोकगीतों में समाहित रामकथा में पारम्परिक रामकथा से छिटककर एक प्रसंग आता है वह प्रसंग है रामजन्म के समय दाई के मचलने का। दाई तीनों रानियों का प्रसूति संस्कार सम्पन्न करा देती है। उसे नेग में कुछ देना होता है। रानी कौशल्या दाई को देने के लिए हीरों से थाल भरकर लाती है, वह उनके तरफ देखती भी नहीं। रानी सुमित्रा मोतियों से थाल भरकर लाती है, वह (पाई) थाल की तरफ से अपना मुँह मोड़ लेती है। रानी कैकेई रुपयों से थाल भरकर लाती है, दाई अपनी नजरें फेर लेती है। तब तीनों रानियाँ उससे नेग न लेने का कारण पूछती है, तब वह कहती है मैं नेग तभी लूँगी जब राम के मुझे दर्शन करने दोगी। शिशु-जन्म के समय दायी की महत्ता और जीवन-व्यवस्था में समाज के सभी वर्णों की सहभागिता यहाँ रेखांकित हुई है-
कसी मचलई रे दाई,
अवध मऽकसी मचलई रे दाई।
नेग तुम्हारो तवंज हम लेवा,
दरसन दे रघुराई हो दे रघुराई।।
निमाड़ी लोकगीतों में सम्बन्धों को सम्बोधन और सम्मान उसी तरह से मिला है, जिस तरह 'रामचरित मानसÓ में मिला है। सास-ससुर, जेठ-देवर, देवरानी-जेठानी, बेटे-बहू, ननंद-भौजाई आदि शब्द-बन्ध लोक रिश्तों की रामकथा के सान्निध्य में अपनी सामाजिक महत्ता प्राप्त करते हैं। एक बात और प्रकट होती है कि लोकगीत की रामजन्म से संबंधित एक पंक्ति में 'रामÓ आता है, दूसरी में 'नन्दलालÓ आता है। जन्मोत्सव और विवाह दोनों ही प्रसंगों में बहन 'सुभद्राÓ के आरती सजाने का संदर्भ आता है। लोक रामकथा और कृष्णकथा के स्थूल प्रसंगों को छोड़कर नामों के पीछे न भागता हुआ संबंधों की महीनता और महत्ता को प्रतिपादित लोकव्यवहार और लोक संस्कार की --- में करता है-
आज सखी श्यामसुन्दर ब्याही, आज सियाराम की बधाई।
बईण सुभद्रा न आरती सँजोई, रत्नारो दीपक लगाई।
बईण सुभद्रा न आरती उतारी, चारई वीर मण्डप बधाई।।
निमाड़ी लोकगीतों में रामकथा के संदर्भ अधिक आकर्षक और बाँधने वाले हैं, जहाँ राम-सीता-लक्ष्मण, कौशल्या-कैकेई-सुमित्रा साधारण जन की तरह जीते हैं और व्यवहार करते हैं। निमाड़ी लोक के राम, निमाड़ी लोक से भिन्न नहीं हैं। राम 'गेड़ीÓ का खेल खेलते हैं। सीता पानी भरने पनघट पर जाती हैं। राम-सीता होली खेलते हैं। राम-सीता का वेश भी निमाड़ी है। राम के सिर पर कुसमल पगड़ी बँधी हुई और सीता ने चुनरी ओढ़ रखी है। राम के सिर पर पगड़ी संभवत: एक मात्र निमाड़ी लोक ने ही पहनाई-
रामचन्द्र खेलऽ रे होकई
अवध मऽरामचन्द्र खेलऽ रे होकई।
कुंणकी भींजी कुसुमला पागऽ कुंणकी भींजी चुनरी।
राम की भींजी कुसुमला पागऽ सियाी की भींजी चुनरी।।
निमाड़ी लोक की यह अजब विशेषता है कि एक ओर तो वह सोने का कलश, मोती का चौक, हीरा-मोती का हार, सोने का घड़ा, रेशम की लेज, कंचन की पिचकारी की कल्पना करता है, दूसरी ओर वह जीवन के यथार्थ को इन सबके बीच लाकर रख देता है। राम-सीता होली खेल रहे हैं। कंचन की पिचकारी है। अबीर-गुलाल का थाल भरा हुआ है, लेकिन रंग पलाश के फूलों से बना हुआ है। कोई हाट-बाजार या कृत्रिमता नहीं है। राम सीता मनुष्य की तरह प्रकृति की उत्सवलीला में प्रकृति की वस्तुओं के साथ 'उत्सवीÓ हैं जैसे लोक होता है-
फूल पलाश को रंग बँणायो, तो कंचन की पिचकारी।
भरी पिचकारी मुख पर डाली, तो भींगी गई सिया प्यारी।
निमाड़ी लोकगीतों में भाव-सौन्दर्य अपने दोनों ध्रुवों पर चरम पर है। राम-जन्म, राम विवाह और अयोध्या में वनवास से पुनरागमन में हर्ष और सीता की जनक के घर से विदाई, राम-वन-गमन और लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम के विलाप में विषाद-करुणा का प्रस्फुटन, निमाड़ी लोक मानस की कल्पना शक्ति और अनुभवगम्यता दोनों को प्रकट करता है। राम-वन-गमन के समय सम्पूर्ण अयोध्या किस तरह वियोग-सिन्धु में डूबती उतराती हैं, उसका वर्णन है-
राम बिना म्हारी सूनी अजुध्या, लक्ष्मण बिन ठकुराई।
सिया बिना म्हारी सूनी रसोई, कूंण करऽ चतुराई।
वियोग में 'स्मृतिÓ सबसे अधिक सक्रिय हो जाती हैं सबको राम की सुधि आती है, लेकिन माता कौशल्या जिन 'चिन्ताओंÓ से व्याकुल है, उसमें लोक के प्रकृति और ऋतु सन्दर्भ भी उजागर होते हैं-
माता कौसल्या घर मऽ ढूंढऽ, बाहेर भरत भाई।
राजा दशरथ न प्राण तज्यो छै, कैकेई मन पछताई।।
सावन गरजऽ भाँदव बरसऽ, पवन चलऽ पुरवाई।
कूंण बिरछ तब ठाड़ा होयगा, सिय-राम-लखन भाई।।
पर्णकुटी बनाना, स्वर्ण मृग का सुन्दर रूप देखकर सीता द्वारा राम को उसकी खाल लाने का आग्रह, अवसर पाकर रावण द्वारा सीता का हरण और सीता को अशोक वाटिका में रखना आदि प्रसंग वेद ही परम्परित रुप में आये हैं। लेकिन एक दो  लोकगीतों में मंदोदरी की रावण को समझाइश बहुत ही मार्मिक बन पड़ी हैं-
छठ तजांै म्हारा नाथ, रामजी बड़ा बलवान है,
तिरिया रावण स कही रह्यी, सुणो म्हारा प्राण अधार,
परायी नार घर क्यों लाया, होयगो कुल को नाश।।
लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप करुणा के उद्रेक की उच्चतम स्थिति है। लक्ष्मण जैसे अनमोल हीरे को खोकर राम विलाप करते हैं कि अब वह कौन-सा मुँह लेकर अयोध्या जाएँगे? सब वानर-भालु अपने-अपने घर देश चले जाएंगे उन्हें सीता को छोड़कर ही जाना पड़ेगा? राम रोते-रोते कहते हैं-
दुरलभ जीणो, फाटऽ म्हारो सीनो,
वन मऽ छोड़ी खऽएकलो कीन्हो।
कोई देओ सहारो, नैया फँसी,
मझधारऽ, बेड़ो कूंठा लगावऽ पारऽ।।
ओल्यांग सीय नार हरेल छै
अल्यांग लक्ष्मण लाश पड़ेल छै
अरे विधाता, करम लिखी कसी पीड़ा,
खुवई गयो अमोलक हीरा।।
इस प्रकार निमाड़ी लोकगीतों में रामकथा एक जीवन विश्वास की तरह समाहित है।
 साभार रउताही 2014

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