Tuesday 21 October 2014

सम्बलपुरी लोकगीतों में सांस्कृतिक भाव स्पन्दन

लोकजीवन में लोकगीत, लोक कथा, लोक नृत्य, लोक संगीत, लोक नाट्य आदि लोक कलाओं का विशिष्ट महत्व है। इन्हीं लोक कलाओं को लेकर लोक जीवन सुशोभित हैं, लोक गीत लोक जीवन का कंठहार। प्रकृति की गोद में निरानन्द जीवन जीने वाले ग्रामीण-आदिवासी लोक मानस अनेक पर्वों, तीज त्यौहारों, मांगलिक उतसवों, जन्मोत्सव, संस्कारों, पूजा पाठ सरीखे सांस्कृतिक सरोकारो में संगीत गान करते हुए, नृत्य करते हुए ढोल-नगाड़े के ताल पर ताल मिलाकर झूमने लगते हैं, गीत संगीत के माध्यम से अपने देवी-देवताओं को संतुष्ट करके अपने कष्ट निवारण का उपाय भी करते हैं।
लोकगीत को परिभाषित करते हुए नरसिंह प्रसाद गुरू लिखते हैं: लोकगीत का तात्पर्य लोक मुख में प्रचलित गीत से है, शरीर के पौष्टिक खुराक के लिए भोजन जिस तरह आवश्यक है उसी तरह मन की स्फूर्ति के लिए संगीत अपरिहार्य है। मानसिक शान्ति तथा वेदना विलष्ट हृदय में उल्लास के संचार के लिए संगीत एक रामबाण है।0़़1
भारत वर्ष के पूर्वीतट पर बसा हुआ ओडि़शा प्रदेश अपनी संस्कृति और परंपरा के लिए विश्वविख्यात है। ओडिशा की संस्कृति जगन्नाथ संस्कृति है। वहाँ के जनमानस में महाप्रभु जगन्नाथ जी के प्रति अटूट आस्था परिपूरित है। जगन्नाथ जी की रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है। बारह महीने में तेरह पर्व मनाने की सुन्दर परंपरा यहाँ प्रचलित है। उत्कलीय संस्कृति की महानता जाहिर करते हुए डॉ. मन्मथ कुमार प्रधान लिखते हैं:- ओडि़शा की संस्कृति जगन्नाथ संस्कृति हैं। प्रभु जगन्नाथ ओडि़शा जाति के राष्ट्रीय देवता है। जगन्नाथ जी के पास सभी धर्मों का समन्वय हैं, जगन्नाथ प्रभु की बारह महीने में तेरह यात्राओं के आधार ओडि़शा के तीज-त्यौहार मनाए जाते हैं। यहाँ की संस्कृति लोक संस्कृति पर पर्यवसित है, जिसके अन्तराल में लोक साहित्य लोक कला, लोक धर्म, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक तन्त्र, लोकाचार सरीखे समाहित हैं।02
लोक गीतों में ग्रामीण जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद, आशा-निराशा तथा जीवन दर्शन की स्वच्छ छवि प्रतिबिम्बित होती है, लोक गीतों में ग्रामीणों के सांस्कृतिक जीवन स्पन्दन मुखरित होते हैं, इसमें संगीत के नियम, अर्थ गाम्भीर्य का प्राधान्य भले ही न स्वाभाविक आत्मप्रकाश व सौन्दर्यबोध का सुन्दर रूपायन होता है, वह अति सहजता से मनुष्य हृदय को स्पर्श करता है, गाँव-परिवेश के सादगीमय जीवन जीनेवाले लोकमानस के हृदयोदगार करते लोक गीत व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को झंकृत करके रख देते हैं।
परिवेशगत भिन्नता तथा सामाजिक कार्यकलापों के आधार पर सम्बलपुरी लोक गीतों का अनेक रूपों में देखा जा सकता है। लोक गीत सामान्यत: लोकमुख से लोक मुख तक प्रसारित होता है। लोकगीत की प्राचीन परंपरा श्रबद्ध है। अशिक्षित अनपढ़ लोगों के जीवन स्पन्दन से जुड़े हुए ये गीत मौखिक रूप से एक-दूसरे से पासरित होकर उज्जीवित है। इसकी वाचिक मौखिक परंपरा इसे अभिनवत्व देती है।(वंश परंपरानुसार)लोक जीवन में पीढ़ी पर पीढ़ी महोत्सव तीज-त्यौहार, सामाजिक सांस्कृतिक अनुष्ठान आदि में प्रचलित यह लोक गीत एक गांव से दूसरे गांव तथा एक अंचल से दूसरे अंचल में संप्रसारित होती हैं।
पश्चिम ओडि़शा के सम्बलपुर, बरगढ़, झारससुगुड़ा, नलांगीर, रेढ़ाखोल, सुन्दरगढ़ तथा कलाहाण्डी जिलों में सम्बलपुरी लोकगीत प्रचलित  हैं। इन अंचलों के लोक जीवन में सम्बलपुरी भाषा में यह गीत गाया जाता हैं। ओडिय़ा भाषा की प्रमुख शाखा इस सम्बलपुरी भाषा में हिन्दी, छत्तीसगढ़ी, लरिया तथा यहाँ की आदिवासी भाषाओं का प्रभाव पड़ा है। सम्बलपुरी संस्कृति छत्तीसगढ़ी, लरिया तथा आदिवासी संस्कृति का समाहार है। यह लोक गीत लोगों के हृदय का स्फुरण है। प्रकृति की गोद में निरानन्द जीवन-यापन करनेवाले प्रकृति की सन्तानों में अपनी लोक संस्कृति के प्रति अपार सम्मोहन है, जिसे लोग गीतों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है सम्बलपुरी लोक गीतों में हलिया गीत, कुमारी गीत, विदाई गीत, विवाह गीत, नचनिया गीत, करमा गीत, डालखाई, रसरकेली, माइलाजढ़, झुमकुझुमा, धुमुरा, जाईफूल, ढाप गीत इत्यादि गीत प्रमुख हैं।
1. हलिया गीत (हलवाहा गीत):
गाँव देहात में लोक कृषिकार्य में खुद को नियोजित करते हैं। सालभर वहाँ खेतिहार-मजदूर खेतों में काम करते हुए दिखाई पड़ते हैं। चाहे पूस की रात की कपकंपाती ठंड हो या जेठ की दोपहरी की झुलसा देनेवाली धूप है किसान मजदूर खेत में डटे रहते हैं खेत में हल चलाते हुए हलवाहे या बैलगाड़ी हाँकते हुए गाड़ीवान हलिया गीत से वातावरण को मन्त्रमुगध कर देते हैं। पावस ऋतु की पहली बारिश जब धरती की व्यास बुझाने को तत्पर रहती है और मुसलाधार वर्षा से धरा-प्लावित होने लगती है, किसान खेत में बड़ी उमंग के साथ हल चलाते हुए यह गीत गाता है:- 
बएलारे........
ज्येष्ठ मासे हुए हो देव जे स्राहान
स्राहान सारिण शिरी भगवान...
आगे बलभद्र पद्येता भवानी
बिजे करिछन्ती जे तिनि भाईभउणी
हो.......तत तत तत तत् रे तत्।03
हलवाह भगवान जगन्नाथ की स्तुतिगान करता हुआ कहता है जेष्ठ महीने में भगवान देव स्नान करते हैं और अपना ब्रम्ह वेश धारण करते हैं। बलभद्र, जगन्नाथ और देवी सुभद्रा तीनों भाई-बहन मन्दिर(बड़ देऊल)में विराजमान हो रही हैं।
कुमारी गीत (कुँआरी गीत)
पश्चिम ओडि़शा के आदिवासी बहुल अंचलों में गाँव में कँवारी किशोरियाँ शाम को दलबद्ध होकर कुमारी गीत गाती हुई दिखाई पड़ती है। उनके समूह सुमधुर स्वर से ग्राम परिवेश छलकने लगता है। विशेषत: वसन्त और शरद ऋतु की चाँदनी रात में किशोरियों द्वारा यह गीत गान होता है और गाँव के सभी लोग इस नृत्य गीत का आनन्द लेते हैं। कुमारी गीत हुमो, बांगरी, कोकिल, छिलोलाई, सिपाईफूल के नाम से भी जाने जाते हैं, कुमारियों दो दल बन कर एक दूसरे की कमर पकड़ कर एक दूसरे के प्रति प्रश्नोत्तर करते हुए इस तरह गीत गाती है-
तुमर देश कि कि करमु
तुच्छाए गंजर गंजा
गंजार गंजाकु फूलबिछवा
नाक तले दण्डी गुणा
केते हलाऊछू नाकर गुणा
मो भाई कमानी सिना बइली रे
मो भाई कमानी सिनारे। 04
(तुम्हारे देश में जाकर क्या करेंगे, तुम सिर्फ बड़ी-बड़ी डिंगे हाँकती हो। तुम फूलों को सेज क्या बनाओगी। तुम्हारी नाक की बाली (नथनी) को कितना हिला रही हो, मेरे भाई की कमाई से यह बाली आई है।
(3) बिहा गीत, नाचुणियाँ गीत (विवाह गीत,
    नचनियाँ गीत)
ग्राम जीवन में मांगलिक उत्सव अति पवित्रता से मनाया जाता है। उनमें विवाह सम्बन्ध को लेकर धार्मिक विश्वास होता है कि यह भगवान द्वारा निर्धारित होता है। विवाह के अवसर पर पश्चिम ओडि़शा के गाँव में घरों में विवाह गीत सुनने को मिलता है। शादी के इस खुशी के अवसर पर घर के सभी युवक-युवती लड़की-लड़कियाँ यहाँ तक कि बूढ़े बुजुर्ग भी शामिल होकर विवाहोत्सव को आनन्द मुखर बना देते है। ढोल, शहनाई, तासा, निसान, टिमकिड़ी आदि देशी बाजे-गाजे के साथ यह गीत बहुत ही आकर्षक बन पड़ता है। इस अवसर पर बाहर से नचनियाँ भी बुलाए जाते हैं और उनके नृत्य गान का आनन्द पूरे गाँव के लोग लेते हैं-
साहाज पतर बेनी रसबती
साहाज पतर बेनी
काहीं गले तुमर दुई बहनी
सते बऊलेर खुसा थी रख महनी
तमर खुसा तले भमर बुले
भमर बुले त, खजा अछी बली नुरे ।  05
(युवक युवती के बीच गीत के माध्यम से खींचा-तानी हो रही है, युवक कह रहा है कि तुम्हारी चोटी साहाजा पत्तों से बनी है।  तुम्हारी दोनों बहनें कहां है। सचमुच तुम्हारे जुड़े में मोहनी लगी है। तुम्हारे जुड़े के नीचे भंवरा मँडरा रहा है। वह मोहनी रस का खजाना ढूंढ रहा है।)
4. रसरकेली, डालखाई माइलाजड़- ग्रामीण जीवन में आदिवासी समुदाय तथा सामान्य लोगों में वैवाहिक उत्सव या दशहरा पर्व के अवसर पर ये गीत गाये जाते हैं। ये गीत गाँव की युवतियों द्वारा परिवेषण होता है। युवतियाँ दल बद्ध होकर कमर लचकाते हुए नृत्य करते हुए ये गीत गाती हैं। नृत्य-गीत के साथ ढोल, निशान, शहनाई, टिमकिड़ी, नगाड़ा आदि अनेक बाजे-गाजे बजते हैं। रसकेली गीत दर्शकों-स्रोताओं के मन को रसासिक्त करता तो, माइलाजड़, उनके मन को भाव विहल कर देता है। डालखाई तथा झुमकझुमा गीत सुनते-सुनते दर्शकों-श्रोताओं की आँखों की नींद उड़ जाती है। गाँव की युवतियाँ सुमधुर स्वर में गाने लगती हैं- डाल खाई रे
बाटर खजुर बुट लम लम कँटा
शाशा घर में जिमि बोली साजिथिलि अँटा
माँ घर के जिमि बोली साजिथिलि केरी
पेररी ऊपरे नागर
सुना केरो केरी कि... डालखाई रे...06
5. सजनी गीत: सजनी गीत, दुला गीत, दुली गीत, जाई फुल आदि श्रृंगार धर्मी गीत हैं। इन गीतों में ग्राम जीवन के सुख-दुख, हँसी, रुलाई, आशा-आकांक्षा, अभाव- अनाटन आदि की हकीकत प्रतिबिम्बित होती है। गाँव की नारियाँ तेन्दूपत्ता तोड़ते-बांधते समय खेत में काम करते समय तथा बालू पत्थर, इंट का काम करते समय श्रम-समय की थकान मिटाने के लिए ये गीत गाया करती है। जिसमें श्रम-समय का बोझा उन्हें कमजोर नहीं कर पाता। इन गीतों में श्रृंगारिकता के साथ परिवेशजन्य दृश्य चित्रित होता है-
पतर बँधा-बाँधी जाएगी
पतर बन्धा ठाने भेटी पाएतीरे
धन, सुता, उलाउली देतीं सजनी रे...07
6. करमा गीत: सम्बलपुर अंचल के गाँवों में आदिवासी समुदाय के लोग करमा पर्व बड़ा ही उमंग से मनाते हैं। भादों के महीने में एकादशी के दिन करमासानी देवी की पूजा अर्चना की जाती है। गाँव के लोगों में करमासानी माता के प्रति अटूट आस्था रहती है। गाँव में शान्ति और खुशहाली बनाए रखने के लिए लोग 'करमासानीÓ से गुहार लगाते हैं। आदिवासी अन्यज रातभर सजधज कर शराब पीकर  'मान्दरÓ के ताल में ताल मिलाकर गीत गाकर, नाच कर मगन हो जाते हैं। युवक-युवतियाँ (चाँप) पाँव में घुंघरु बांध कर, गले में फूल माला धारण करके हत्ताकार होकर नाचते हैं। बीच में मान्दर बजाता हुआ मन्दरिया उन्हें नचाता है। छत्तीसगढ़ से लगे हुए अंचलों में लरिया भाषा में लोग यह गीत गाते हैं।
'विपत्ति में कौन नया साथी रे भाई लछमन
विपत्ति में कौनो नहीं साथी
इक विपत्ति में राम और लछमन ला
लंका के रावन भाई सीताला चुराई भाई
विपत्ति कौन नया साथीÓ । (08)
रामायाण सीता हरण प्रसंग को करमासानी के सामने गाते हुए लोग भाव विभोर हो रहे हैं। विपत्ति में कौन नया साथी साथ दे रहा है। राम और लक्ष्मण जंगल में भटक रहे हैं। लंका पति रावण ने सीतामाता का हरण कर लिया है।
7. ढाप गीत : यह गीत विशेषत: कालाहण्डी, कोरापुट जिलों के आदिवासी गिरिजनों में गाये जाते हैं, चैत पर्व, फाल्गुन पर्व के विशेष मुहूर्तों में आदिवासी युवक-युवतियाँ पंक्तिबद्ध होकर ढोल-नगाड़े की ताल में ताल मिलाकर नृत्य गान करती हैं। रातभर चाँदनी रात के उजाले में जंगलों में गिरिजन इस गीत का आनंद लेते हैं। युवक-युवतियाँ, हाथ पकड़कर, कमर पकड़कर, कँधा पकड़कर, कमर झुका कर नाचती है और भाव विह्वल होकर गाने लगते हैं-
'जुहार गो माँ डुकरी बूढ़ी
वेश मुड़े तोर गुड़ी
तके अंगर रकत काढ़ी देविस
मके पद आसु जुड़ी जुड़ी
इरित सिरित केराण्ड माछर पित
गाँ गराम पति न बन्घिले किए गइबा
पालिया गीतÓ। (09)
ग्राम देवी को विनती करती हुई युवक-युवती ढाप गीत का मंगलाचरण करते हैं। ग्रामदेवी माँ  चौराहे पर तेरा मन्दिर है। आने अंगों से तुम्हें खून देंगे, हाथ जोड़कर तेरी वन्दना करेंगे। तुम हमारे गाँव की शोभा श्री हो गाँव की रक्षिका हो। पूरा गाँव तुम्हारी विनती करता है। तुम्हारी कृपा हम पर बनी रहे। ये लोक गीत अशिक्षित, अवहेलित, तिरस्कृत ग्रामीणों आदिवासियों के संगीतमुखर जीवन और सरल कलाप्रेम के जीवन्त दस्तावेज हैं। देश की उन्नत संस्कृति व कला का विकास परंपरा में ये लोक गीत पश्चिम ओडिशा के अप्रितम अवदान है। देश के संगीत कला प्रेमी व्यक्तियों की चेतनाशीलता, आन्तरिकता व शोधात्मक मनोवृत्ति के अभाव में ये लोकगीत समय अन्तराल में जंगली फूल की तरह जंगल में प्रस्फुटित होकर वहीं मुरझा जाएंगे, इसमें कोई शक नहीं। जरुरत है इन लोकगीतों को हमारे जीवन में सहेजने व गतिशील बनाने की। इन लोकगीतों में हमारी सांस्कृतिक भाव धाराएं प्रवाहित हैं। यदि हमें अपनी संस्कृति को जीवित रखना है, तो इन लोकगीतों को धरोहर के रुप में हमें सहेजना होगा।
साभार रउताही 2014 

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