Thursday 30 October 2014

आधुनिकता की चकाचौंध में दम तोड़ते सोहर गीत

आपसीपिरीत की डोर को थामे, पारिवारिक खट्टे-मिट्ठे अनुभवों को समेटे, शिशु के जन्म का आनंद बिखेरते सोहर गीत और ढोलक के थाप की गूंजती स्वर लहरियाँ वातावरण को अपनत्व के अहसास से सराबोर कर देती थी।
आज के बच्चे तो बच्चे युवा पीढ़ी भी इस बात से अनजान है कि ये 'सोहर गीतÓ क्या है? टी.वी. सिनेमा एवं भारत उत्सव जैसे छुटमुट आयोजनों के जरिये, विवाहगीत, लोकगीत, फाग गीत आदि तीज त्यौहारों के विशेष पारंपरिक गीतों के कैसेट  कभी कभार आ जाते हैं बाजारों में उन्हीं के माध्यम से इन्हें औपचारिक जानकारी मिल जाती है।
आज की दौड़ती भागती जिंदगी में न सौरगृह की परंपरा रही न सोहर गायन का रिवाज रहा। अब तो बस संतान पैदा होने की खुशी में यथाशक्ति पार्टी एवं उटपटांग पापुलर गाने कैसेटों के जरिये कानों में मिश्री घोलना तो दूर ध्वनि प्रदूषण फलाते, तनाव बढ़ाते हैं।
शिशु का जन्म पुरुष के पौरुष और नारी के नारीत्व को सार्थकता देने के साथ पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को आनंद आप्लावित करता है। शिशु का जन्म जीवन में नया आकर्षण भर देता है और उसी आकर्षण की अनुभूतियों को समेटे ये सोहर मंगल गीत, मातृत्व का अभिनंदन एवं नवागत के स्वागत की हर्षपूर्ण गीतमयी अभिव्यक्ति हैं।
शिशु के जन्म के दूसरे तीसरे दिन से लेकर छठीं और बरही (बारहवें दिन) तक इन गीतों का सिलसिला चलता रहता था। प्रमुख वाद्य ढोलक, मंजीरा तो होता ही था आनंदातिरेक में थाली, लोटा, चम्मच भी वाद्ययंत्र बन जाते हैं। इन गीतों में गर्भावस्था के लक्षण, पुत्र प्राप्ति के लिए किये गये विविध प्रयास, व्रत, उपवास, प्रसूता की लालसा मान, प्रसन्नता, नेग, ससुराल वालों की वधू के प्रति उपेक्षा का बदला, मायके वालों के प्रति सहज लगाव आदि भावनाएं मुखरित होती हैं।
उदा. गर्भ के लक्षणों का सुखद अहसास कराती सोहर की पंक्तियाँ-
हमका आवै ओकाई हमार जिया..
हमका भावै खटाई हमार जिया हमका आवै ओकाई
हमका न भावै मिठाई हमार जिया..
पुत्र प्राप्ति के लिए किये गये व्रत उपवास मनौतियां...
रहेंव मैं कतका उपास, जोरेंव दूनो हाथ हो
ललना ला पायेंव मैं आज, मोर मन हुलास हो...
आसन्न प्रसवा की तड़प और पारिवारिकजनों का अनुमान कि पुत्र होगा कि पुत्री इसी भाव की अभिव्यक्ति है इन पंक्तियों में
(1) पीरों पे पीर ओर जच्चा बेकरार है
कोई कहे लल्ली होगी कोई कहे लाल हैं
लाख मैने चाहा कि अम्मा को बुलाऊंगी
पर मैं क्या जानू ये कि सासु दौड़ आएगी
पीरों पे पीर...
(2) दरद उठती है कमरवा में न जाने लाल कब होंगे
पुत्र जन्म की खुशी और नेग, अलग अलग क्षेत्रों में अलग नेग चलता है-जिनमें  सास, ननद, जिठानी, देवर, भाई, पिता, ननदोई के मार्फत नवागत के साथ रिश्तों की सुदृढ़ नींव तो पड़ती ही है साथ ही माता बनी वधू की पूछ परख भी बढ़ती है उसे अधिकारों की सौगात मिलती है।
भाई के द्वारा बंदूक छुटाई, देवर द्वारा बंशी बजाई नेग, जिठानी द्वारा पिपरी पिसाई, जीजी द्वारा सोहार गवाई, ननद द्वारा काजर अंजाई, सासु द्वारा दैव पूजवाई, ससुर द्वारा नाम धराई का कार्य समारोह पूर्वक सम्पन्न होता है बदले में कोई हार चाहता है तो कोई कंगन कोई झुमके तो कोई करधनी इन्हीं क्रिया कलापों को गीतों में पिरोकर सोहर रचे जाते हैं-
ननदी बुलायेंव उहू नई आईस ननदी हमार का करिलेहब
बहिनी बला के कांके बड़ाबोन,
हम छबीली सबो के काम आबोन
ननदोई बलायेन उहू नहीं आईस
भाटो बलाके नरियर फोड़ाबोन
इसी तरह जेठानी के न आने पर बड़ी दीदी ने सोहर गीत गाया, ससुर के न आने पर पिता को बुलवाकर नामकरण करवाया। ये नेग छत्तीसगढ़ क्षेत्र में होते हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार में सासु द्वारा चरुवा चढ़ाई,
जिठानी द्वारा पिपरी पिसाई, ननद द्वारा कजरा अंजाई...
उदा. सीता के वन में लाल भये कुँवर कहैया कोऊ नहीं..
वहाँ अम्मा नहीं वहाँ सासु नहीं, चरुआ के चढ़ैया कोऊ नहीं...
वहाँ भैया नहीं वहां देवरा नहीं, बंशी के बजैया कोऊ नहीं...
सोहर गीतों में पारिवारिक खट्टे मीठे अनुभूतियों के अलावा कृष्ण राम, गणेश, जन्म के गीत भी गाये जाते हैं।
 साभार रउताही 2014

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