Thursday 30 October 2014

पुरूष प्रधान छत्तीसगढ़ लोकगीत : एक परिचय

लोकसाहित्य  में 'लोक का विशिष्ट स्थान है। लोक का स्वरूप व्यापक है, यह विभिन्न धार्मिक ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों वेदों की ऋचाओं, ब्राह्मण ग्रंथों में समाहित है। विभिन्न मतमतान्तरों के पश्चात् यह स्वीकार किया गया है, कि इसका उपयोग 'साधारण अथवा जनसाधारण के लिए ही किया जाता है। विभिन्न विद्वानों ने लोक की विभिन्न परिभाषाएं दी है। डॉ. सत्येन्द्र के मतानुसार-' लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अंहकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है। 1 यह स्पष्ट है कि लोक शब्द का अर्थ अत्यंत व्यापक है। यह शब्द जन और ग्राम दोनों शब्दों की अपेक्षा अधिक सारगर्भित और सार्थक है। इसमें वह सब समाहित है जिसमें लोक व्याप्त है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार- लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं बल्कि नगरों व ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिनकी व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है।' 2 सम्पन्न साहित्य का मूल भी तो लोक साहित्य होता है। इसीलिए विद्वानों ने साहित्य और लोक साहित्य में पर्याप्त अंतर स्वीकार किया है।
संस्कृत में साहित्य का अर्थ जहाँ काव्यशास्त्र मान लिया गया है वहीं कल्याण की अर्थ भावना के रूप में भी समाहित किया गया है। हितेन सह सहितम् तस्य भाव: इति साहित्य अर्थात् जिसमें कल्याण की भावना निहित हों उसे साहित्य कहते है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की सम्पूर्ण सार्थक अभिव्यक्ति चाहे वह लिखित हो या मौखिक, साहित्य के अंतर्गत परिगणित है। इसके दो भेद क्रमश: शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य है। शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य में पर्याप्त अंतर है। लोक साहित्य पंरपरित रूप में अक्षुण्ण एंव गतिमान है तथा यह लिपिबद्ध नहीं होता। यह मौखिक पंरपरा पर आधारित होता है। इसका कवि एवं लेखक अनाम होता है। इसीलिए विद्वानों ने इसे साहित्य की संज्ञा न देकर वाङमय कहा है।
यही स्थिति छत्तीसगढ़ लोक साहित्य की है। छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की पांच विधाएँ क्रमश:- लोकगीत,लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य और लोक सुभाषित है। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर विशेष चर्चा अधोभांति है-
लोकगीत : लोकगीत मौखिक परंपरा पर आधारित होता है। यह जनमानस को विरासत में मिला है। ये पीढ़ी दर पीढ़ी, एक कण्ठ से दूसरे कण्ठ में विराजमान होते हुए प्रवाहित होते है। डॉ श्यामपरमार के मतानुसार -''गीतों की यह परंपरा तब तक जीवित है जब तक मानव का अस्तित्व विद्यमान है। आदिमानव के कण्ठ से जो विगत भाव निकले थे कालांतर में वे ही गीत बन गये। श्री शंकर दयाल शुक्ल का मत है कि ''लोकगीत श्रम परिहार से उपजते और मौखिक परपंरा में बढ़ते-पलते है। छत्तीसगढ़ में भी लोकगीतों की समृद्ध परंपरा मिलती है। छत्तीसगढ़ी लोकगीत सामाजिक व्यवस्था की उपज है। घर और बाहर सर्वत्र स्त्री-पुरूष मिलकर जीवन-यापन करते है। परिश्रम के क्षण हो चाहे नृत्य या सामूहिक मनोरंजन के क्षण,स्त्री की आवाज पुरूष की आवाज को छूकर चलती है वन उपवन की शीतलता और खेतों की हरियाली तथा महक इन लोकगीतों से अठखेलियाँ करती है। लोकगीत मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह उसके जीवन के उतार -चढ़ाव तथा दुख-सुख का साथी है। जब मानव अपने को जीवन से उदास और समाज से अकेला महसूस करता है, उस समय ये गीत उसे सान्त्वना प्रदान करते है। वह दुख के समय गुनगुनाकर कुछ क्षण दुख को भूलने का प्रयत्न करता है, तथा आत्म शांति एंव सुख का अनुभव करता है। ये लोकगीत दुख को भूला देने के लिए सम्बल का कार्य करते है।
डॉ विनय कुमार पाठक का मत है कि ''मानव-जीवन के विविध पथों पर निर्मित ये लोकगीत जटिल जीवन को सरल एंव सुलभ बनाते है। रस, छंद, अलंकार से सर्वथा असंयुक्त इन लोकगीतों में ,इन सभी का समायोजन अनायास ही हो जाता है। स्टैण्डर्ड डिक्सनरी के अनुसार -''लोकगीत वे गीत है जो लोक समूह में प्रचलित है। लोकगीत न केवल गीत ही होते है वरन् ये संगीत के साथ संश्रिलिष्ट भी होते है। डॉ चिंतामणि उपाध्याय के शब्दों में -''सामान्य लोक जीवन की पाश्र्वभूमि में अचिन्त्य रूप से अनायास ही फू ट पडऩे वाली मनोभावों की लयात्मक अभिव्यक्ति लोकगीत कहलाती है। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में संस्कृ ति और इतिहास संरक्षित है। लोकगीत स्वतंत्र, निश्छल तथा स्वमेय सुदंर एंव मधुर भाव संयुक्त होते है। लोकगीतों में आत्मा से निकली विशुद्ध स्वर लहरी होती है जो नैसर्गिक गुणों को संजोये रखती है। डॉ श्यामपरमार के अनुसार-''एक लोकगीत न तो पुराना होता न नया। वह एक जंगली वृक्ष की भाँति है जिसकी जड़ें सुुदुर अतीत की गहराई में दृढ़ है किन्तु जिससे निंरतर नई शाखायें,प्रशाखायें पत्तियाँ और नये फल विकसित होते रहते है।ÓÓ 4 अध्ययन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को पुरूष व स्त्री के महत्व व विषय क्रम में अधोलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(2) पुरुष गीत - पुरुष प्रधान लोकगीत: जीवन रूपी रणक्षेत्र में नारियाँ हमेशा से ही पुरूषों केा प्रोत्साहित करती रही है तथा जीवन के पहलू में हाथ से हाथ मिलाकर साथ निर्माण रही है। एक दूसरे के बिना जीवन अधूरा है। पुरूष प्रधान लोकगीतों में नृत्यगीत ही प्रमुख है - जैसे डंडा, करमा, मड़ ई, फड़ी और पंथी आदि प्रमुख है।
डंडा : छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में डंडा उल्लेखनीय है। डंडा छत्तीसगढ़ का रास है। गांव के नवयुवक विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित होकर हाथ में डंडा लेकर एक साथ गाते एंव नाचते है। इसके मादर, मंजीरा, झांझ प्रमुख वाद्य यंत्र है। एक गाने वाला और बाकी दोहराने वाले दो चार लोग रहते है। मादर के ताल के साथ नवयुवक घूम-घूम कर डंडे को मार कर नाचते है। नवयुवक सिर में कलगी तथा पैर में घुघंरू पहनते है। एक व्यक्ति गाता है और नाचने वाले बीच-बीच में टेही लगाते है। डंडा गीत में रामायण,महाभारत तथा विभिन्न देवी देवताओं से संबंधित गीत गाते है। प्रस्तुत गीत में सीता हरण का सुदंर  चित्रण है
विप्र रूप धरे निशाचर भिच्छा मांगन को आये हो लाल।
भिच्छा ल धरके निकले जानकी रथ म लेगे बिठाय हो लाल।
रथ पर बइठे माता जानकी सरन-सरन गोहराय हो लाल।
कोने होइ हें मोर राम के पियारा रथ राखो बिलमाय हो लाल।
ओतका बसुने मोर पंक्षी जटाई आधा सरग म मंडराय हो लाल।
काकर हो तुम धिया पतोहू काकर हो भौजाई हो लाल।
राजा दशरथ के धिया पतोहू लक्षिमन के भौजाई हो लाल।
मोर नाम हे सीता जानकी रावण हर ले जाई हो लाल। आदि। गुजरात की गरबा नृत्य से इसकी तुलना की जा सकती है।
करमा : पुरूष नृत्य गीतों में करमा भी बहुत महत्वपूर्ण है। डंडा और करमा एक दूसरे के सन्निकट है। करमा की उत्पत्ति के संबंध में किवदंती है कि -''कर्म नाम का कोई राजा था। उस पर विपत्ति पड़ी । उसने मानता मानी और नृत्य गान प्रांरभ किया जिससे उसकी विपत्ति टल गई । उसी समय से करमा नृत्य प्रारंभ हुआ।ÓÓ  एक करमा गीत प्रस्तुत है-
चोला रोवथे नाम बिन देखे परान, चोला रोवथे।
दादंर झांवर झाड़ी डोंगर बीच मंझाय,
सबे पतेरन तोला ढूढों कहां लुके हस जाय। चोला रोवथे...
माया ला तो कस जोरे सुरता मोर भुलाई,
मोर मड़इया सून्ना करके कहां करे पहुनाई चोला रोवथे...
एक आंखी म नींद नई आवय हिरदे भइगे सुन्ना,
डोंगरी डहरी तोला ढूढ़ों  विपदा पर के दूना चोला रोवथे...
डॉ. विमलकुमार पाठक लिखते है ''इस लोक गीत में नवयुवक एंव युवतियाँ एक दूसरे के साथ नाचते है। उनका कहना है कि करमा में नर-नारी परस्पर एक दूसरे के हस्त या कटि पकड़कर अतीत के सुखद क्षणों के साथ भावी जीवन की सुमधुर कल्पित स्वप्लिन भावनाओं में गेयता का स्वरूप देकर सहजाभिव्यक्ति करते है। युवक युवतियों की वेशभूषा विशिष्ट होती है। सिर में कलगी, बाजू एंव शरीर में कौड़ी का बंहकर एंव बाजू बंद पहनते है। गले में रूपिया तथा आभूषण पहनते है। एक स्वर एंव ताल में नाचते है। उनका नृत्य बहुत ही सुंदर एंव आकर्षक होती है।
मड़ई : पुरू ष के नृत्य गीतों में मड़ ई का विशिष्ट स्थान है। यह यदुवंंशियों के धरोहर है। मड़ई पूजन का त्यौहार । यह वैदिक कालीन गोवर्धन पूजा का ही रूप प्रतीत होता है जिसे द्वापर में श्री कृष्ण भगवान एंव ग्वाल बाल उत्सव के रूप में मनाते थे। इस उत्सव में 'इन्द्रध्वज ध्वजोत्तोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। मड़ई वैदिक कालीन इन्द्रध्वज ही है। इस ध्वज को कार्तिक शुक्ल एकादशी को डोरियों के सहारे खड़ा किया जाता है। ध्वज की सजावट बहुत ही सुंदर और आकर्षक होती है। यह उत्सव कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। रावत लोग रात-रात भर नाच कर इसे अपवित्र होने से बचाते है। ये लोग इसे लेकर अपने हितैषी एंव प्रेमीजनों के घर ले जाते हैं। कभी-कभी रावत बाजार में भी ले जाते है। इसे पकड़कर रखने वाला इसे मनौती के रूप में उठाकर चलता है। इसमें लाल एंव सफेद कपड़ा लिपटा रहता है, तथा ऊपर में मुर्गा बंधा रहता है। यादव भाई नाचते-नाचते, धार्मिक, सामाजिक एंव प्रकृति संबंधी दोहा कहते जाते है- यथा-
धार्मिक  :  धरके मंदोदरी थारी म कलेवना, चला सिया के पास।
उठि-उठि सिया भोजन क रि ले, करिहौ लंका के राज।।
प्राकृतिक :  चंदा के बैरी बादली भइया के बैरी तलवार।
मछरी के बैरी केंवटा मारे जाल भवायं।।
सूरज दियना मोर दिन के जलथे चंदा दिया आधी रात।
रानी दिया ह घर म बरथे, बेटा दिया दरबार।।
यादव भाई नाचने के पश्वात् आशीर्वाद के रूप में जन-धन एंव पशुधन की समृद्धि की कामना करते है- दोहा कहते हैं जो इस प्रकार है-
चार महिना चरायेंव चारा, खायेंव दही के बोरा।
आगे मोर दिन देवारी छोड़ेंव तोर निहोरा।।
ठाकुर जोहारे आयेंव पान सुपारी कोरा।
रंग महल में बइठव ठाकुर राम-राम लेव मोरा।।
मंगल कामना : अगम धरे चक चंदन हरियर गोबर भिना।
गाय-गाय तोर कोठा भरय, बरदा होय सौ तीना।।
स्वामी के आशीर्वाद: जइसे ठाकुर लिए दिए तइसे दियो अशीस।
अन्न धन तोर घर भरे जुग जिओ लाल बरिस।।
इस प्रकार मड़ई उत्सव एक मनौती तथा मंगल कामना और आशीर्वादों से भरा रहता है।
बाँसगीत : बांस रावतों का गीत है। इस गीत को दो व्यक्ति मिलकर गाते है। इसमें एक बांस (बांसुरी से बड़ा बांस का वाद्य यंत्र) बजाने वाला है। बांस की लंबाई करीब दो हाथ्ज्ञ की होती है तथा इसमें स्वर निर्माण हेतु छेद बने रहते है। बांस गीत गाने वाला बांस गीत गाता है तथा इसे बांस बजाने वाला बांस में दुहराता है। एक हुकारू भरने वाला होता है, टेही भरतेहुए रामजी, रामजी का उच्चारण करते हुए अगली पंक्ति में गायक क्या गायेगा का संकेत देता है। इसे रागी कहते है। बांस गीत में राजनैतिक, धार्मिक,एतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक भावनाओं की प्रधानता होती है। प्राय: बांस गीतों का आरंभ देवी -देवताओं की स्तुति से होता है। इस गीत के विविध रंग है। माँ भवानी की आराधना एंव स्तुति इस प्रकार है-
सदा भवानी मोर दुर्गा दहिंगला, काला सोहय सिर सिंदुर।
काला काजर के रेख हो ...
बांस बजइया के गला पिरागे सुनवइया के दूनों कान।
भरे सभा मंय कोन गीत छोड़व, कोन वैरी कोन मीत हो...
पहिली सुमिरौ मंय धरती अउ पिरथी ल
दूसर म सुमिरौं खरिखा  साले हो ...
तीसर सुमिरौं मयं गौ के गोरइया ल
चौथे म दूधाधारी के हनुमान हो...
अधोलिखित बांस गीत में नीतिपरक पुट द्रष्टव्य है-
माता-पिता के मयं तो सेवा बजावंव तर बैकुण्ठे जांव।
माता-पिता के निंदा करहौं मरि काया ढरि जाय।
जीयत आमा ल कोन काटय मउरत कोन काटे चार।
सारस जोड़ी ल कोन मारय आेला परे नवकपिला के पाप हो...
कलऊ समागे अब पुहिनी म ग नाई, सास टेके बहु के पांव
माता-पिता के सेवा ले बैकुण्ठ मिलय निंदा करना पाप हो
वैसे तो बांसगीत में विभिन्न शूरवीर यादव एंव यादव बीरांगनाओं की लोक गाथा है जिसे प्रस्तुत करने मे एक सप्ताह से एक माह तक लग सकते हैं परंतु यहाँ पर केवल सुमरणी एंव नीति परक कुछ गीत के अंश ही प्रस्तुत किया गया है।
देवार गीत : ''कुछ गीत एेसे हैं जिसे कुछ विशेष जाति के लोग ही गाते है। जिस प्रकार बांस गीत रावत लोग ही गाते है, उसी प्राकर देवार जातियों का भी अलग गीत है। देवार घुमक्कड़ जाति है। ये लोग सुअर पालते है। इसके गीतों में छत्तीसगढ़ का इतिहास वैभव एंव संस्कृ ति संरक्षित है। इनकी गीतों में संगत की संसृष्टि एंव नृत्य की मस्ती है। प्राय: देवार लोग मादर बजाकर देवारिन को नचाते हैं तथा भिक्षा मांगते है। कभी -कभी वह रूंझू या सारंगी भी बजाता है। देवारिन सिर में टुकना, हाथ में कटोरा लेकर वासी मांगती है। देवारिन गली-गली घूमकर गोदना गोदती हैं तथा रीठा बेचती है। ''एक देवार गीत प्रस्तुत है-
रूम, झूम घुघंरू बाजे बाजे सांरगी देवार के
गोड़ म घुघंरू खांध म दुधरू परे ओ देवार के
रूम-झूम घुघंरू बाजय,बाजय सारंगी देवार के
आंखी में काजर मुह म पाउडर लगे हे देवारिन के 
मुड़ म टुकना हाथ कटोरा घरवासी मांग के
रूम-झूम घुघंरू बाजय बाजे सारंगी देवार के ...
दूसरी गीत-
झूमर जा रे पड़की  झूमर जा,
धमधा के राजा बाई तोर कइसन लागय रे
लहर लोर लोर तितुर म झोर-झोर,
रांय झूम-झूम बांसपान हंसा करेला पान झूमर जा
धमधा के राजा भाई मोर ससुर लागय रे
लहर लोर लोर तितुर म झोर-झोर
राय झूम-झूम बांसपान हंसा करेला पान
झूमर जा रे पड़की झूमर जा
देवारों का अभिमत है कि-
मछरी म सुघ्घर चिंगरी मछरी सांप सुघ्घर मनिहार,
राजा म सुघ्घर गोड़ राजा जात म सुघ्घर देवार।
रामे रामे रामे मोर रामे रामे भाई,
रामे रामे रामे मोर रामे रामे भइया
धार्मिक गीत-जंवारा-कुंवार तथा चैत्र के नवरात्रि पर्व में जंवारा बोया जाता है। यह मूलत: धार्मिक पर्व है। इसमें विधि-विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है। इसमें नव दिन तक दीप जलाकर ज्योति कलश स्थापित किया जाता है तथा कलश के चारों ओर गेहूं दाने को भिंगोंकर खाद्य से भरे क्यारी में बो दिया जाता है। यही गेहूं के दाने कुछ दिन बाद उग आते है तथा पीले रंग में लहलहाने लगते है। इसे ही 'जंवाराÓ या माता की बगिया कहा जाता है। एक बैगा रात-दिन इसकी सेवा में लगा रहता है ताकि ज्योति बूझे मत तथा बगिया मुरझाये मत। जंवारा गीत गाने वाले माता सेवा मण्डलों के द्वारा माता की सेवा में नौ दिन-रात तक जो सेवा गीत गाये जाते हैं वही 'जंवारा गीत है। इसे नेवरात भी कहा जाता है जिसमें माता के विभिन्न रूपों की स्तुति की जाती है। डॉ. विनयकुमार पाठक के मतानुसार ''जंवारा को यहाँ नेवरात से भी अभिहित किया जाता है जो नवरात्र्रि काही रूपान्तरण है। क्वार शुक्ल एकम से नवमी तिथि तक अर्थात् नौ दिन नवरात्रि पर्यन्त अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित करने के फलत: यह नवरात्रि या नेवरात से उद्मुत होता है। ''(1)अधोलिखित पंक्तियों में देवी के सोलहों श्रृगांर का वर्णन प्रस्तुत है-
मइया पंच रंग पंच रंग सजे हे सिंगार हो माय,
सेत-सेत तोर ककनी बनबरिया, सेते घटा तुम्हारी हो माय।
सेते तोरे गर के सुतवा, गज मुंगन के हारे हो माय।
लाली लाल लहर हे लंहगा, एड़ी महावर लाले हो माय।
खात पान मुंह लाल भवानी, मुड़ के सिन्दुर लाले हो माय।
कारी कोर लगे चोलियन, कारी काजर रेखे हो माय।
कारी हे तोर भंवर पालकी, कारी मुड़ के केस हो माय।
पियर पिताम्बर पहिरे बुढ़ी माय, पियर कान के ढारे हो मया।
पियरे हे तोर नाके के नथनी, पियर-पियर कान के ढारे हो माय।
पियरे हे तोर हाथ के चुरी, हरे गले के पोते।
हरे हावय तोर माथे के टिकली, बरत सूरज के जोते।
रहय ओट के छांय हो माय,
सोलह सिंगार सजे जग तारन, देखब म जग मोहे हो माय।
बालक बरूआ कछु नही जानत, केवल सरन तोरे हो माय।
आज छत्तीसगढ़ में जंवारा गीत का धूम मजा हुआ है चारों तरफ माता की सेवा करने वालों मंडलियों के द्वारा माता सेवा गीत गाकर जगराता किया जाता है। क्वार और चैत्र नवरात्रि पर्व में माता सेवागीत जंवारा से सारा लोक आलोकित रहता है।
भजन : छत्तीसगढ़ी भजनों में विभिन्न धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव पड़ा है। इस पर विभिन्न धार्मिक मतमतान्तरों एंव उससे उत्पन्न पंथों की छाप है। इसमें सगुण एंव निर्गुण दोनों धाराओं का समन्वय है निर्गुण संतों में कबीरदास, जगजीवन दास और धरमदास प्रमुख रहे है। इनका प्रभाव भजनों में पड़ा है-निर्गुण भजन द्रष्टव्य -
का करबो रे हंसा, जीव तो वीराने बस मां गये हे
माटिन के बरतन बने हे पानी ल लेके साने
छिन भर चोला मिले हे कछु काम नइ आवे
नित अंधयरिन है कोठिन दियना नइ हे बाती ,
एक दिन पकड़ के जम ले जाही नइते संगी साथी
सगुणी भजनों में सरस्वती, गणेश आदि की वंदना समाहित है-
अंगना म सरसती बिराजे, परछी म पारवती,
परथम सुमिरंव माता सरसती तोला,
कंठे मणिराज के मुख म बोला,
गणपति के चरन मनावंव गनपति के रे...
देश-देश के देवता सुमिरन आउ सुमिरंव जगदीश, 
गढ़ मइहर के सारह सुमिरौ-गढ़ मइहर के रे
इन भजनों के संबंध में डॉ विनयकुमार पाठक का मत है कि धमधा और कवर्धा क्रमश: धर्मधाम और कबीर धाम का अपभ्रंश है।  (1) छत्तीसगढ़ में इन भजनों को बैरागी या बावा लोग एक हाथ में तानपुरा और दूसरे हाथ में करताल लेकर, गांव-गांव में घूम-घूमकर गाते हैं तथा भिक्षा मांगते हैं। साथ में एक रागी जो टुकड़ी बजाता है रहता है। यह इस जाति के लिए जीवकोपार्जन का साधन है।
ऋतुगीत : छत्तीसगढ़ के कृषक ऋतुओं की कृपा पर अवलंबित रहते है यहाँ बारह मास का वर्णन शिष्ट काव्य के समानान्तर संचालित है। ऋतु गीतों में बारहमासी गीत प्रमुख है। इन गीतों में बारह महिनों की विशेषताओं का चित्रण है-
द्रष्टव्य : आज काला मंय कउन देव ल सुमिरौ भाई,
सबो देवता गइन लुकाय।
सुमिरंव सुमिरंव मइन्ता मानके,
सारदा देवी ल सुमिरंव रे भाई।
सावन महिना बिरहिन रोवय जे कर सैया गये परदेश।
अभी कहूं बालम घर म रहितिस तब
सावन के करतेंव सिंगार।
भादो महिना रंडिय़ा रोवय, कुकुर रोवय कुंवार।
कार्तिक महिना अहिरा रोवय, सुमर-सुमर पुरखा के नाव।
अगहन महिना कोलिहा रोवय, हुआ हुआ कहि काटय रात।
पूस महिना डोकरा रोवय , खांसत-खांसत करे बिहान।
पारा परोसी गारी देवय हत बुढ़वा तो जउहंर होय।
माघ महिना रांड़ी रोवय, होत बिहनिया नहाये जाय।
नहा खोर के घर म आवय, अऊ तुलसी म हुम जलाय।
फागुन महिना डिड़वा रोवय, गली-गली म खेले फाग।
इस प्रकार ऋतु गीत मे विभिन्न महिनों में विभिन्न लोगों एंव जीव जतुंओं की स्थिति का वर्णन है जो अपने आप में विशेष है।
छत्तीसगढ़ अंचल में विभिन्न प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इन खेलों में भी सुमधुर गीतों का समाहार है। खेल केा खेल धून का धून जिसमें एक स्वर में गीत जैसे कबड्डी में एक पक्ष वाला दूसरे पक्ष में अपने प्रतिद्वन्दी दल में जब कबड्डी करने जाता है तब वह अधोलिखित गीत के स्वर मुखरित करता है-
कबड्डी: खुमरो के आसपास, खाले बेटा वीरापान।
मयं चलावंव गोटी, तोर दाई  पोवय रोटी रोटी रोटी 
डांडी पोहा : इसी प्रकार डांडी पोहा में जमीन के बीच एक गोला खींच देते है। एक लड़का गोले के बाहर रहता है और बांकी सब भीतर। बाहर खड़ा लड़का गोत्तात्मक स्वर में कहता है-
कुकुरूस कू, काकर कुकरा, राम जी के,
कहां आये उचरे बर, काबर आये 3
खेले खातिर का खेल 3 डांडी पोहा।
कोन चोर 3 रामू रामू रामू...
भौंरा : भौरा अर्थात् लट्टू चलाते समय अमुक गीत गाते है-
लावर म लोर लोर , तिसुर म झोर-झोर ,
हंसा करेला पान, राय झूंम बांस पान,
सुपेली म बांस पान, लठर जा रे भौंरा झुमर जा
कोबी : इसमें गड़ी बदलते है।  आपस में मिलने पर जो पहले कोबी कहेगा वह दूसरे के हाथ पर ताली मारेगा और फिर बोलेगा-
चल कबड्डी आवन दे, तबला बजावन दे,
तबला में पइसा लाल बगइचा,
कतंर  दे कोबी कोबी कोबी...
रासगीत : पुरूष पर्व गीतों में रास का विशेष महत्व है। डॉ. विमलकुमार पाठक का मत है-''कृष्ण राधा और ग्वाल बालाओं का रास छत्तीसगढ़ी जनजीवन में सम्यूक्त होकर रास गीत के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। कृष्ण की विविध लीलाएँ उत्तर प्रदेश की विविध मंडलियों द्वारा, यहाँ होती रही है। इसके बाद यहाँ के लोक कलाकारों ने उसका अनुसरण किया किन्तु इसके समानान्तर ही छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य 'रास Óका प्रचार इस अंचल में गतिमान रहा है। ''(1) रास लीला के नायक श्री कृष्ण हैं वे आदर्श प्रेम के स्वरूप एंव अलौकिक पुरूष है। लोकगीत कार उन्हें 'फागुन महराजÓ कहकर संबोधित करते हैँ और पूछ रहे है कि अब के गये फिर कब आयेंगे? फागुन मादक मास का नाम है। इसी मास से रास प्रारंभ हो जाता है इसलिए श्री कृष्ण को फागुन फागुन महराज के नाम से पुकारते हुए पूछ रहे है-
फागुन महाराज फागुन महराज अब के गये ले कब आबे।
अरे कउन महिना हरेली अउ कउन महिना तीजा तिहार।
अरे कउन महिना के नवमी दसहरा, अरे कउन महिना दिया जलाय।
कउन महिना रे फागुन अब के गये ले कब आबे।
सावन महिना म हरेली भादो तिजा के तिहार।
कुंवार महिना नवमी दसहरा कातिक दिया जलाय।
फागुन महिना फागुन आये महराज अब के गये ले कब आबे।
यहाँ पर रास रचाने वाले भगवान श्री कृष्ण कन्हैय्या को प्रतीकात्मक रूप में फागुन महराज के नाम से संबोधित किया गया है।
होली : फाल्गुन मास के अंत मे होली का त्यौहार मनाया जाता है। यह हिन्दुओं का महत्वपूर्ण त्यौहार है। छत्तीसगढ़ में इस दिन नया चावल या नवाखानी खाते है , तथा गृह देवता की पूजा करते है। नगाड़ा, मादर, झांभू, मंजीरा, टिमकी के साथ होली गीत गाया जाता है। इसे फाग गीत भी कहा जाता है। इसमें ब्रज की धरती में रत कृ ष्ण राधा और सखी सहेलियों की पृष्ठभूमि निहित है- एक होली गीत प्रस्तुत है-
बजे नगारा दसो जोड़ी दा राधा किशन खेलय होरी,
दूनो हाथ धरे पिचकारी धरे पिचकारी धरे पिचकारी।
रंग गुलाल सबै बोरी दाँ राधा किशन खेलय होरी।
दुधुवा दहिया बचे नइ पाइस उ दू ल रंग म दिहिन छोरी।
दा राधा किशन खेलय होरी...
सब सखियन मिल पकड़ किशन ल ओ ही रंग म दिहिन बोरी।
तब राधा मुस्काय कहिन हाँ आओ खेलिहाँ तुम होरी। दा राधा ...
पुरुष प्रधान छत्तीसगढ़ी लोकगीत वे गीत हैं जो आदिमानव के कण्ठ  से कभी निकले थे जो आज पर्यन्त अलिखित एंव मौखिक रूप में अक्षुण्ण है। ये गीत मानव को विरासत में मिला है। इन गीतों मे वे गीत हैं जिन्हें पुरूषों ने गाये है। इनमें छत्तीसगढ़ की संस्कृति समाहित है। पुरूष यदि इन गीतों को संजोकर नहीं रखे होते तो करमा, डंडा, भजन, फ ाग ,मड़ ई, बांसगीत, देवारगीत, जंवारा, कबड्डी , डांडी पोहा, भौंरा तथा रसगीत कबके विलुप्त हो गये होते परतुं नहीं पुरूषों ने इन्हें सुरक्षित रखा है। ये लोकगीत हमारे छत्तीसगढ़ की पहचान है। इनमें हमारी संस्कृति एंव सभ्यता संरक्षित है। उन्हें सुरक्षा प्रदान करना, अक्षुण्ण बनाये रखना हमारा कत्र्तव्य ही नहीं धर्म भी है।
साभार रउताही 2014



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