Sunday 24 February 2019

हिन्दी लोकगीतों के अनुषंग

लोकगीत मानव मन की अनुभूतियों की सरस रागात्मक अभिव्यंजना का लयात्मक उपहार है। लोक संस्कृति की सच्ची, मधुर, मनमोहक तथा स्वरमूला अभिव्यक्ति को 'लोकगीतÓ की संज्ञा से अलंकृत किया जा सकता है। यह लोक आस्था तथा लोकानुभूत सत्य का अकृत्रिम, सहज तथा नैसर्गिकी गीतात्मक उद्गार है। मनुष्य के सुखदुखात्मक, हर्ष-विषाद मूलक नोवेगों के आरोह-अवरोह की रसात्मक अभिव्यंजना है। लोकगीत लोकवाड्.मय की अनमोल धरोहर है। लोकगीत अपने विषय-वैविध्य के अलंकरण से अभिमंडित है। इसलिए यहाँ लोरियाँ में झूलता तथा सोचता बचपन, प्रेम के संयोग रंग में आकंठ निमज्जित यौवन, विरह से उद्दीप्त अनुराग, वैराग्य बोध से उद्बोधित वार्धक्य-सभी कुछ तो लोकगीतों के भाव-जगत में समाया हुआ है। सामाजिक मान्यताओं तथा वर्जनाओं का वृहद कोष लोकगीतों की विशाल सृष्टि में पग-पग पर सृजित होता हुआ दिखाई पड़ता है। प्रौढ़ावस्था तक आते-आते मनुष्य संसार के यथार्थ अनुभावों का खजाना बन जाता है और इन्हीं खजानों में से लोकगीत रत्नों की भाँति चमकते हुए हमें मिलते हैं। सभ्यता के आदिमकाल से ही इन लोकगीतों ने मानव चेतना तथा आस्था के तारों को अलंकृत किया है। लोकगीत प्राचीन होते हुए भी अर्वाचित है। चिर नवीन और चिर यौवन सौन्दर्य ही लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। लोकगीतों में शास्त्रीय नियमों के बन्धनों की सीमा नहीं होती। आकाश की उन्मुक्तता, पवन की स्वच्छन्दता, सागर की गम्भीरता, सरिताओं की कल-कल नाद भरी सुंदरता, झरनों की चंचलता लिए हुए लोकगीत, मनोरंजक, मनोमाहक तथा मनोआहृलादकारी होते हैं। लोकगीतों में वर्ग या वर्ण का वैषम्य, अमीरी-गरीब का भेद या सम्पन्न विपन्न का अंतर नहीं होता है। लोकगीत सार्वजनिक सार्वदेशिक, सार्वलौकिक तथा सार्वजनीन हैं। देश-काल और परिस्थितियों की विभेदक लक्ष्मण रेखा लोकगीतों के लिए नहीं बनी है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति को प्रदीप्त करने वाली सुरीली बानगी ही लोकगीत है। लोकगीत बौद्धिकला के शुष्क तथा बेजान कटीले झाड़-झंखाड़ नहीं है। यह हृदय-महासागर में अनंत भावनाओं के मंथन के उपरान्त रसमय नवगीत है। लोकगीत सामान्य लोकजीवन की पाश्र्वभूमि में अचिन्त्य रूप से अनायास की फूट पडऩे वाली लयात्मक अभिव्यक्ति है। लोकगीतों में संगीत और काव्य का समन्वय होता है। लोकगीत हमारे जीवन-विकास का इतिहास है। लोकजन द्वारा विशेष परिस्थिति , स्थल, कर्म, तथा संस्कार के समय हुई अनुभूतियों की लयपूर्ण सामूहिक अभिव्यक्ति है। लय और ताल इसके अनुचर  तथा नृत्य इसका सहचर है। लोकगीत मसिकागढ़ जीवी नहीं कण्ठजीवी है। इसमें अलंकारों का घटाटोप एवं छंदों की बाधाएं नहीं होती। ये सर की अनुपम सरिताएँ हैं जहाँ भाव-माधुर्य के विविध कमल खिलते हैं। ये मनोरंजन के साथ ही साथ मनोबोधन के साधन भी होते हैं।
लोकगीत श्रुतिपरम्परा की देन है। लोकसंगीत वह विशाल वटवृक्ष है जिसकी जड़े धरती में कितनी गहराई तक धँसी है, कहानहीं जा सकता है। लोकगीत आज भी ग्रामीण कंठो ें अपने मौलिक रूप से सुरक्षित हैं। आज इनका विस्तार गाँवों से बढ़कर नगर और महानगर तक हो गया है। लोकगीतों की सीढ़ी चढ़कर बड़े-बड़े संगीत प्रख्यात हुए हैं। यद्यपि ये ग्राम्यगीत हैं तथापि इनमें शास्त्रीयता का पुट भी विद्यमान रहता है। यह और बात है कि लोकसंगीत गायक एक लम्बे समय तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहे हैं। बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीत गायकों ने लोकधुनों की मौलिकता को संरक्षित रखते हुए उसमें यत्किंचित् परिष्कार कर दुनिया के सामने रखा। बड़े गुलाम अली खॉं, पं. रामप्रसाद मिश्र, उर्फ रामूजी(गया वाले), बेगम अख्तर, शोभा गुर्ट गिरिजा देवी, आश्रया पाण्डेय, उर्मिला श्रीवास्तव आदि के स्वरों में कजरी, चैता, होली आदि सुनकर लोकगीतों की मौलिक बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। किन्तु ये प्राय: अशास्त्रीय ही होते हैं। वास्तव में शास्त्रीय नियमों की परवाह न करके सामान्य लोक-व्यवहार के उपयोग में लाने के लिए मानव अपने आनंद की तरंग में जो छन्दोबद्ध वाणी सहज उद्भूत करता है, वही लोकगीत है। ये गीत लोक में प्रचलित, लोक-सर्जित तथा लोक विषयक होते हैं। इसका तात्पर्य यह है लोक में प्रचलित जनगीत ही वस्तुत: लोकगीत होते हैं। लोक-मानस से तादात्म्य स्थापित करके एक व्यक्तित्वविहीन कवितर की सृष्टि करना यह सिद्ध करता है कि उसमें एक व्यक्तित्व के स्थान पर लोक-व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया होती है। इसीलिए समस्त जनसमूह(लोक) उसे अपनी रचना मानने लगता है और वही गति लोक का गीत हो जाता है और परम्परा के प्रवाह से होकर घिस-पिट कर जिस रूप में हमें प्राप्त होता है, उसे लोक की सृष्टि कहा जा सकता है। इसीलिए लोकगीत लोक मानस की लयात्मक अभिव्यक्ति होते हैं। इसमें लोक की स्वेच्छा की स्वत: स्फूर्तिजन्य अभिव्यक्ति होती है इसमें लोक प्रतिबिम्बित होता है। अत: लोकगीत लोक के लिए एक स्वराकार की स्वराधृत अभिव्यक्ति है।
लोकगीत की उत्पत्ति के विषय में सभी विद्वान प्राय: एकमत हैं कि यह निरक्षर जनता की सम्पत्ति रही है जो श्रुति परम्परा पर आधारित है, जिसका रूप वर्णमाला के उद्भव से भी पहले का माना जाता है। इसे कलात्मक साहित्य का अंग न कहकर जनश्रुति की परम्परा ही समझना अधिक समीचीन है। इस प्रकार लोकगीत की परम्परा श्रुति परम्परा ही साथ ही साथ वैदिक युग से आज तक चली आ रही है। लोकगीत की उत्पत्ति के संबंध में संगीत और कल्पनाओं को आधार माना जाता है। सुखदु:खात्मक भावावेश की अवस्था के चित्रण का माध्यम अश्रुपात, दीर्घ नि:श्वास, फलक और मुस्कान आदि अनुभाविक आंगिक चेष्टाओं तक ही सीमित न रहकर हर्ष और वेदना का रूप धारण कर कण्ठ के द्वारा साकार हो उठती है, तभाी गीतों के स्वर फूट पड़ते हैं। ये गीत किसी कवि के नहीं, अपितु सामान्य जनमानस की अज्ञात सृष्टि है।
भारत के लोकगीत वैदिक मंत्रों के ही उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें लोकगीतों के शब्द और भाव विद्यमान हैं। प्राचीन काल में पुत्रजन्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि उत्सवों तथा विभिन्न पर्वों पर सरस तथा सुमधुर स्वर में गाये जाने वाले गीतों का निर्देश वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। लोकगीत को वेदमन्त्रों के कालक्रमों द्वारा प्रकल्पित अनुवाद के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके सन्दर्भ ऋग्वेद(९०,८५.६)मैत्रायणी संहिता (३.६.३),गृहृासूत्र (१०,७), शतपथ ब्राम्हण (१.३.५.४.१३) तथा ऐतरेय ब्राम्हण(८.४)में विद्यमान हैं।
इसके पश्चात् बाल्मिकि रामायण में रामजन्म के समय तथा श्रीमद्भागवत में कृष्ण के जन्म के अवसर पर स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से गाये जाने वाले गीतों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य के अनेक कवियों ने लोकगीत गाये जाने का वर्णन अपने काव्य में किया है। इनमें पर्व तक सीमित न रहकर मेहनत-मजदूरी, जैसे-चक्की पीसना, धान कूटना, खेत निराना, थकान दूर करने के लिए गीतों द्वारा अपने चित्त प्रसन्न करने का प्रयास दिखाया गया है। संस्कृत की सुप्रसिद्ध कवियित्री विज्जका ने धान कूटते समय गीत गाती हुई एक स्त्री का सुन्दर चित्र खींचा है जिसमें मूसल के उठाने और गिराने के कारण उसकी चूडिय़ाँ, झनझना रही हैं और उर स्थल हिल रहा है। मीठी हुंकार की ध्वनि तथा चूडिंयों की झंकार से उसका गाना एक विशिष्ट प्रकार का मनोरम आनन्द पैदा कर रहा है। जिससे उसके गीत और काम को गति मील रही है-
विलास मसृणोल्लास-मुसललोलादो:कन्दली-
परस्पर पर्रिस्खदु्रलयनि: स्वतोद्धन्धुश:।
लसन्ति कलहुंकृति सभयकम्पि तोरस्थल
त्रुटदगमकसड्कुसा कलभकण्ठनी गीतय:।।
संस्कृत के नैषधीयचरित महाकाव्य(२,८५)में भी श्री हर्ष ने स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों की प्रकृति में भी लोकगीतों की परम्परा का वर्णन किया है। राजा शालिवाहन हाल द्वारा संग्रहित गााधा सप्तशती तथा पालि के जातकों की कथा में भी लोकगीतों का प्रचलन बड़े जोर-सोर से बताया गया है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी जानकी के विवाह के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गीत गाये जाने का उल्लेख किया है-
चली संग लै सूखी सयानी।
गावहिं गीत मनोहर बानी।।
इस प्रकार लोकगीतों का सृजन तो प्राय: कुछ ही व्यक्तियों के द्वारा होता है किन्तु उसकी अनुभूति ही व्यापकता जन-सामान्य के हृदय से मेल खाती है। प्रणय-सम्बन्धी सहज वृत्ति की तरह लोकगीत-सृजन की सहज-वृत्ति भी जनमानस में समान रूप स्पन्दित होती है। सुख और दु:ख में आशा-निराशा में, आसक्ति-विरक्ति में, उत्साह और भय में जब कभी मनुष्य भावातिरेक से तन्मय और विहृल सा हो जाता है तभी मानस से वेगवती स्रोतधारा फूट निकलती है। बस उसी क्षण लोकगीत की उत्पत्ति होती है। शब्द-विन्यास की सादगी, मर्मस्पर्शी , प्राकृतिक और आदि मनोराग, सूक्ष्म किन्तु, प्रभावोत्पादक, चरित्र-चित्रण, देशकाल का स्थूल अंकन, साहित्यिक कृत्रिमताओं का न्यूनातिन्यून प्रयोग या सर्वथा बहिष्कार सच्चे लोकगीतों की नितान्त आवश्यक विशेषताएँ हैं। लोक-गीतों में अभिव्यक्ति की भंगिमाओं, भावों और विचारों की विलक्षणता मिलती है। इसमें क्षेत्र विशेष की सभ्यता, संस्कृति और परम्परा की सच्ची झाँकी प्राप्त होती है। इसमें भारतीय जीवन की अन्तरंग आत्मा प्रवाहित होती है। विभिन्न संस्कारों, ऋतुओं और त्यौहारों से सम्बन्धित गीत लोकानुरंजन करने में सफल होते हैं। लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है। गा्रमगीत प्रकृति गीत हैं। इनमें अलंकार नहीं केवल रस है, छन्द नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मानव के स्त्री. पुरूषो ं के मध्य हृदय नाम आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के ये ही गान ग्राम गीत है।
लोकगीतों का वर्गीकरण करना एक कठिन कार्य है। वास्तव में लोकगीतों में रूपात्मक वैविध्य एवं विषय-वस्तुगत व्यापकता इतनी अधिक है कि इसका सर्वमान्य वर्गीकरण असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। विद्वानों ने इसका वर्गीकरण करते हुए संस्कार सम्बन्धी गीतों को प्रधानता ही है। इसके अतिरिक्त ऋतु, उत्सव, जाति, वीरगाथा तथा खेती सम्बन्धी गीतों का विभाजन मिलता है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोकगीतों को सात प्रकारों में विभाजित किया है जो 1. संस्कार सम्बन्धी गीत 2. ऋतु सम्बन्धी गीत 3. व्रत सम्बन्धी गीत 4. जाति सम्बन्धी गीत, 5. श्रम गीत 6. देवी-देवताअेों के गीत तथा विविध गीत है। यद्यपि व्रत सम्बन्धी गीत एवं देवी-देवताओं से सम्बन्धित गीतों को एक ही श्रेणी में रखा जा सकता है।
संस्कार सम्बन्धी गीत:- भारतीय समाज धर्म से ओतप्रोत है। इसीलिए भारतीय(हिन्दु)को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त नाना प्रकार के संस्कार करने पड़ते हैं। धर्मशास्त्रों में सोलह संस्कारों का विधान है किन्तु वर्तमान समाज में पुत्रजन्म संस्कार, मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, तथा विवाह संस्कार का विशेष प्रचलन है। इन संस्कारों के अवसर पर स्त्रियाँ मधुर स्वरों में संस्कार सम्बन्धी गीत गाती हैं। सामान्य रूप से हमारे समाज में पुत्रजन्म के समय प्रसन्नता व्यक्त की जाती है मिठाई बाँटी जाती है। इस अवसर पर गाँव की स्त्रियाँ एकत्र होकर सोहर गीत गाती हैं। सोहर गाने वाली स्त्रियों को सामथ्र्य के अनुसार मिठाई पान आदि खिलाने की प्रथा है। कहीं-कहीं सोहर को मंगल भी कहा जाता हैं-
गावहु ए सखि! गावहु गाइ के सुनावहु हो।
सब सखि मिलि जुलि गावहु आजु मंगल गीत हो
आधि राति गइले महरराति होरिला जनम ले ले हो।
बाजे लागत अनंद बधावा, महल उठे सोहर हो।
सोहर लगातार बारह दिन तक गाने की परम्परा है। पुत्र-जन्म के गीतों में आनन्द और उल्लास का विशद वर्णन होता है। सोहर में नव प्रसूता स्त्री के हृदय में गुदगुदी पैदा करने वाले गीतों की झाँकी मिलती है। सोहर का प्रमुख वण्र्य संभोग श्रृंगार का वर्णन है। इसमें स्त्री-पुरूष की कामक्रीड़ा, गर्भाधान गर्भिणी की देह-यीष्ट, प्रसव-पीड़ा, दोहद, धाय का बुलाना और पुत्रजन्म का वर्णन होता है।
जन्म के पश्चात पहली बार जब बच्चे का मुण्डन कराया जाता है तो उसे मुण्डन संस्कार कहते हैं। इसे संस्कृत में चूड़ाकर्म हैं। कुछ लोग देव-स्थान में जाकर इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं। यदि गाँव पर ही यह संस्कार सम्पन्न कराना होता है तो किसी नदि या सरोवर के किनारे बच्चे के जन्म के बाद पहले तीसरे पाँचवे या साँतवें वर्ष में यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियाँ जो गीत गाती है, उसे मुण्डन संस्कार गीत कहते हैं-
समवा बइठल राजा दसरथ, कोसिला अरज करे हो।
राजा राम के कर जग मूडऩ एहो सुख देखबि हो।
अरहिलबन केरे खरहिल कठइबो वृन्दावन केरो बाँस हो।
से दो पहिले माड़व छवइयो गजमोती चऊक पुरइबो हो।
हिन्दु समाज में यज्ञोपवीत(जनेऊ)संस्कार बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य में यह संस्कार प्रचलित है, परन्तु ब्राम्हण और क्षत्रियों में यह संस्कार विशेष रूप से सम्पन्न किया जाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात बालक गुरू के पास विद्याध्ययन के लिए जाता है। अब यह परम्परा केवल नाटकीय ढंग से सम्पन्न की जाती है। यज्ञोपवीत संस्कार के जो गीत गाये जाते हैं उसमें विविध विधानों का वर्णन मिलता है। कहीं पर ब्रम्हचारी किसी स्त्री को माता कहकर भिक्षा माँगता है तो कहीं वह विद्याध्ययन हेतु काशी या कश्मीर जाने के लिए उद्यत होता है। यज्ञोपवीत सम्बन्धी लोकसाहित्य लोकगीतों से आपूरित है। यज्ञोपवीत के सभी गीतों में एक प्रकार की ही भावधारा सारे देश में प्रचलित है।
कासी में ठाढ़ बरूअवा, बरूअवा पुकारेला हो।
केइ हव कासी के मालिक, जनेऊवा दियावसु हो।
कोइरिनि हरदी उपराजेली, अमुक बाबा बेसहेले हो।
अमुक बरूआ के सिखा चढ़ावल, हरदी सोहावन हो।
यज्ञोपवीत संस्कार व्यय: साध्य होता है। इस अवसर पर लोगों को भोजन कराया जाता है तथा ब्राम्हणों को दान दिया जाता है। व्यय साध्य संस्कार होने के कारण आजकल लोग प्राय: देवस्थान में इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं।
सम्पूर्ण मानव-जाति में विवाह संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस संस्कार के सम्पन्न होने पर जीवन साथी की प्राप्ति होती है। अतएव इस अवसर पर नाना प्रकार के आयोजन होते हैं। मनुष्य के जीवन में जितना विवाह संस्कार महत्वपूर्ण है उतना अन्य संस्कार नहीं। विवाह के गीत वर और कन्या दोनों के घर में गाये जाते हैं। वर के तिलकोत्सव से ही इन गीतों का गायन आरम्भ होता है। वर तथा कन्या दोनों के घरों में गाये जाने वाले इन गीतों पार्थक्य दिखाई पड़ता है। जहाँ वर पक्ष के गीतों में उल्लास और उत्साह की प्रचुर मात्रा दिखाई पड़ती है, वहीं कन्या पक्ष के गीतों में विषाट् की गहरी रेखा पायी जाती है। विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है। कन्यादान एक पुतीत कर्म माना जाता है-
अन्नदान के दान ना कहीं, सोना दान जगदीस जी।
कन्यादान उतिम बड़ बाबा जाहु मन राखहु ज्ञानजी।
हिन्दुओं में विवाह के समय गोत्र, पिंड और पूज्य का विशेष ध्यान रखा जाता है। वहाँ स्वर्ण विवाह ही मान्य है। सगोत्र और सपिण्ड विवाह नहीं होता है। विवाह के लिए कन्यापक्ष से पिता, भाई, ब्राम्हण, नाई आदि वरक्षा के लिए जाते हैं। इसके बाद तिलकोत्सव होता है। तिलकोपरान्त सगुन के गीत गाये जाते हैं। विवाह संस्कार में नेवता, माटीकोड़ा, हरदी, लावा भुजाना, भतवानि, नहकू-नहावन, ईमली घोटावन, परिछन, माड़ो गाडऩा, कोहबर, द्वारपूजा, लावा, मेलन, भाँवरि, सिन्दूरदान, हवन तथा लाजाहोम आदि कृत्य सम्पन्न होते हैं। विवोहपरान्त कन्य की विदाई होती है। विवाह के सुअवसर पर शुभगीतों(सगुन)का गायन होता है-
आरे आरे सगुनी, सगुनबा भल आइल।
तोहरे सगुनवा ए सगुनी, होरबेला बिआह।
आरे और कोइरिया हरदिया लेइरे आउ।
तोहरे हरदिया ए कोइदिनि होरबेला बिआह।
चुटुकी सेनुरवा महँग भइले बाबा, चुनरी भइल अनमोल।
चुटकी भरो सेनुरवा के कारन, बाबा छुटेला नगरिया तोहार।
भारत की प्रत्येक भाषा और बोली में इस संस्कार से संबंधित सभी रीति रिवाजों और परम्पराओं के गीत विद्यमान हैं। ये लोकगीत अवसरानुकुल कानों में रस घोलने की शक्ति रखते हैं।
ऋतु सम्बन्धी गीत:- भारत संस्कार का एक ऐसा अद्भुत भू-भाग है, जहाँ विभिन्न ऋतुएँ, अपने सम्मोहक रूप से भारतवासियों के मन को आन्दोलित करती हैं और अपने हृदय के उद्गार को वह संगीतमयवाणी देकर सहज भाव से लोकभाषा में अभिव्यक्त करता है। भारत में छह ऋतुएँ होती हैं तथा गर्मी, वर्षा, जाड़ा तीन मौसम होते हैं। प्रत्येक ऋतु और मौसम में अलग-अलग प्रकार के गीतों का प्रचलन है।
उत्तरी भारत में कजली, तीज, चैता, होली, फाग के गीत विशेष रूप से प्रचलित हैं। इन ऋतुगीतों के साथ बारह मासा के गीत गाये जाते हैं। सावन के मनभावन महीने में उत्तर प्रदेश में कजली गाने की विशेष प्रथा है। इस मास में प्रकृति सर्वत्र हरी-भरी दिखाई देती है। भक्तप्रवर सूरदास जी ने अपनी बंद  आँखों के माध्यम से प्राकृतिक छटा का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है-
जहँ देखौ तहँ स्यायममयी है।
स्याम कुंज वन यमुना स्यामा, स्याम स्याम घनछटा छाई है।
वर्षा ऋतु में जब गगन-मंडल काले-काले मेघों से आच्छादित दृष्टिगोचर होता है, तब इसी प्राकृतिक परिवेश के निर्बन्ध वातावरण में कजली का गायन होता है। तब ऐसा प्रतीत होता है कि श्यामवर्ण के इन्ही मेघों के काल में गाये-जाने के कारण इन गीतों का नाम 'कजलीÓपड़ा। सावन तथा भादों की शुक्ल पक्ष की तीज-जिस दिन कजली के गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं इनका नाम ही कजली तीज है। ये गीत श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होते हैं। यद्यपि इन गीतों में श्रृंगार के दोनो पक्षों की झाँकी देखने को मिलती है किन्तु संयोग श्रृगार की ही प्रधानता अधिक है। वर्षा की फुहार के साथ कजली की गुहार हो ही जाती है। कजली की धुन की गुनगुनाहट सब के कंठ में घूमने लगती है। डाल पर लगे झूले के बिना कजली का गायन सूना लगता है। हृदय के उठे उमंग को प्राकृतिक रूप से हम कजली के माध्यम से ही व्यक्त कर सकते हैं। हरे रामा की टेक तो मील का पत्थर बन गयी है, जिससे ध्वनि स्वयं नर्तन करने लगती है।
गड़बड़ मिरजापुर की कजरिया चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
उत्तर में गंगाजी की लहरइ ताल तरंग चहूँ दिरिश छहरइ।
चमकइ रहि रहि के बीजुरिया, चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
यों तो उत्तरप्रदेश में सर्वत्र कजली गायी जाती है किन्तु मिर्जापुर की कजली विश्वप्रसिद्ध है। कजली का प्रमुख प्रतिमाद्य प्रेम है। ये गीत श्रृंगार रस से ओतप्रोत होते हैं।
फाल्गुन मास में होली के अवसर पर गीत विशेष गाये जाते हैं जिसे होली या फगुआ कहते हैं। ये फागगीत के नाम से प्रसिद्ध हैं। होली हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे होलिका की पौराणिक कथा है। जिस आदर्श और निष्ठा को बनाये रखने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है, वह आदर्श और उद्देश्य जब इस त्यौहार में नहीं है। परन्तु इतना सत्य है कि बसन्त पंचमी के आगमन के साथ ही होली का रंग लोगों पर चढऩे लगता है। राम-कृष्ण उत्तरी भारत के अवतारी पुरूष हैं, इसलिए वे यहाँ की संस्कृति में समाये हुए हैं। इसलिए लोक कंठ झूमकर गाता है-
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में होली खेलैं रघुबीरा।
केकेर हाथ कनक पिचकारी केकरे हाथ अबीरा।
राम के हाथ कनक पिचकारी सीता के हाथ अबीरा।
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में।
ब्रजमंडल की होली विश्वप्रसिद्ध है। इस त्यौहार में आनन्द और मस्ती का सवरूप दिखाई देता है। होली गीत में कही राधा और कृष्ण होली खेलते दिखाई पड़ते हैं तो कही शिव भी होली खेलते हैं।
ब्रज में हरि होरी मचाई।
इतते आवत नवल राधिका उतते कुँवर कन्हाई।
हिल मिल फाग परस्पर खेलत शोभा बरनि न जाई।
होली गीत परम्परागत तो हैं ही, इनमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर भी मिलते हैं। १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी वीर कुँवर सिंह की वीरता का वर्णन भी होलीगीत में मिलता है।
भोजपुर अइसे होली मचाई।
गोली बारूद के रंग बनाये, तोपन के पिचकारी।
बीच भोजपुर में फाग मचल बा,
खेलैं कुँवर सिंह भाई।
होली के गीतों की गति, उनकी भाषा का बन्ध और स्वरों का संधान अत्यन्त मधुर होता है। प्रेम की रंगीन फुलझडिय़ाँ और वैभववती वन-वीथियों के नैसर्गिक चित्रण होली की संगीत महफिलों में ताने-बाने का काम करते हैं। होली के गीत चैत्र माह तक गाये जाते हैं। चैत के महीने में गाये जाने के कारण इस गीत को चैता कहा जाता है। लोकगीतों के विभिन्न प्रकारों में मधुरता, सरलता और कोमलता के कारण चैता अपनी सानी नहीं रखता। चैता भलकुटिया और साधारण दो प्रकार का होता है। दोनों हाथों में झाल नामक वाद्य के साथ समूह में गाया जाने वाला चैता झलकुटिया कहा जाता हैं। साधारण चैता वह है जिसे कोई व्यक्ति विशेष गाता हैं। जब चैता सामूहिक रूप से गाया जाता है तब गवैये दो दलों में विभक्त हो जाते हैं। पहला दल प्रथम पंक्ति कहता है तेा दूसरा दल उसके टेक पद को उच्च स्वर में गाता है। इसी प्रकार गीत का क्रम चलता रहता है। चैता प्रेम के गीत होते हैं। इसमें संयोग, श्रृंगार की कथा रागों में निबद्ध होती है। इनमें कहीं आलसी पति को सूर्याेदय के बाद तक सोने से जागने का वर्णन है, तो कहीं पति और पत्नी की प्रणय-कलह की झाँकी दृष्टिगोचर होती है। कही ननंद और भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी चरित्रहीन पुरूष द्वारा छेडख़ानी का उल्लेख है, तो कहीं सिर पर मटकी रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। मैथिली में चैता को चैतावर कहते हैं। इसमें बसन्त की मस्ती और रंगीन भावनओं का अनुपम सौन्दर्य अंकित किया गया है। प्रिय वियोगिनी नायिका अपने प्रियतम का समाचार कौए से पूछती हुई कहती है-
ननदी के अँगना चननवा के गछिया हो रामा।
ताही तर कगवा बोलेला सुवहन हो रामा।
तोके देबो कगवा  दूध भात खोरवा हो रामा।
तनि एक सँइया के कुसल बतलावा हो रामा।
आलसी पति सूर्याेदय के पश्चात भी सोया हुआ है। उसे जगाने का अथक प्रयास उसकी पत्नी करती है तथा ननद से उसे जगाने के लिए कहती है-
रामा सांझहि के सुतल फूटली किरनिआ,
तंबो नहिं जागैले हमारे बहभुआ हो रामा।
रामा गोड़ तोरा लागी लें लहुरी ननदियाँ हो रामा,
तनि एक आपन भइया के जगइबो हो रामा
पावस ऋतु में जो गीत गाये जाते हैं उन्हें 'बारहमासाÓकहते हैं। इन गीतों में विरहिणी की वेदना की अभिव्यक्ति की जाती है। जीविकोपार्जन के लिए पति परदेश गया है, बहुत दिन हो गये किन्तु लौटकर नहीं आया है। वर्षाऋतु में उसका छप्पर चू रहा है, किन्तु उसको छाने वाला कोई नहीं है। ऐसी स्थिति में विरहिणी वेदना की पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और उसकी मनोव्यथा बारहमासे के रूप में प्रकट होती है। इन गीतों में पति के वियोग के कारण बारह महीनों में जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उसका बड़ा ही माॢमकवर्णन होता है। इसीलिए इन विरह गीतों को बारहमासा कहते हैं।
हिन्दी साहित्य में बारहमासा लिखने की परम्परा प्राचीन है। सुप्रसिद्ध सूफी कवि जायसी ने पद्मावत में नागमती का वियोग वर्णन बारहमासा के अन्तर्गत किया है। अपभ्रंश कवि अब्र्दुरहमान ने संदेशरासक नायिका की विरहजन्य दशा का वर्णन इसी शैली में किया है। बारहमासा पावसऋतु का मधुर गीत है। इस लोकगीत में वियोगावस्था की करूण तथा विरहदशा की मार्मिक अभिव्यंजना मिलती है। बारहमासा आषाढ़ महीने से आरम्भ होकर ज्येष्ठाषाढ़ पर समाप्त होता है। इसमें विरहिणी की विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण होता है-
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल।
भादौं भवन सोहावन न लोगे आसिन मोहि ना सुहाई।
कातिक कंत बिदेस गइल हो, समुझि समुझि पछिताई।
अगहन आइल ना, कहि गइल उधौ, पूस बितल भरि मास।
माघ मास जोवन के मातल, कइसे धरब जिऊ आस।
फागुन फरकेला नैन हमार, चैत मास सुनि पाई।
पियना ने अइहन एहि बैसाखे, फुलवन सेजिया सजाई।
जेठ मास में आकुल जैसे राधे, नाहिं बाड़े साम हमार।
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल असाढ़।
इस प्रकार बारहमासा लोकजन की विरहजन्य मनोवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। इसमें वियोगिनी अपनी विरह व्यथा कहकर कुछ शान्ति का अनुभव करती है।
श्रमगीत:- श्रमगीत वे गाते हैं जो किसी काम को करते समय गाये जाते हैं। प्राय: देखा जाता है कि मजदूर लोग अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने के लिए काम करते समय गाना भी गाते जाते हैं। इससे काम करने में मन लगा रहता है और परिश्रम का पता नहीं चलता। इस प्रकार के गीतों में जँतसार, रोपनी, सोहनी आदि के गीत प्रमुख हैं।
चक्की पीसते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें जँतसार या जाँत के गीत कहा जाता है। धान की रोपाई का कार्य बहुधा स्त्रियाँ करती हैं। अत: बैठकर अथवा खड़े होकर यह कार्य करना कठिन है। यह कार्य झुककर किया जाता है। खेत की बोआई-रोपाई हो जाने के बाद अनावश्यक खर-पतवार खेत में उग जाते हैं। ऐसे अनावश्यक पौधों और घास को निकालने की क्रिया को सोनही या निराई कहते हैं। रोपनी करते समय जिस प्रकार स्त्रियाँ गीत गाकर अपनी थकान को दूर करती हैं, उसी प्रकार सोहनी करते समय भी गीत गाती हैं। खेतों में जब फसल पक जाती हैं तब किसान उसे काटने में जुट जाते हैं। कटाई का यह कार्य भी बहुत श्रमसाध्य होता है। दिन में भयंकर गर्मी और हवा के कारण यह कार्य भोर में ही आरम्भ कर दिया जाता है। खेत काटते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें ''कटनीÓÓ  या ''कटियाÓÓ  के गीत कहते हैं।
जाँते पर आटा पीसते समय जँतसार गीत का पहले बड़ा प्रचलन था। जाँते का प्रचलन अब धीरे-धीरे समाप्त हो चला है। पहले घर में जाँता रहता था तथा भोर में उठकर स्त्रियाँ आटा पीसतीं थीं। जँतसार गीत में बन्ध्या स्त्री की वेदना तथा विधवा का करुण क्रन्दन मिलता है। पारिवारिक जीवन की करुण कथा भी इस गीत में मिलती है-
सेर भरि गेहुआँ रे सासु जोखि दिहली हो रामा,
अरे जतवाँ गड़वली गज ओबरि हो रामा,
जतवाँ धइले साँवरि भुराते हो रामा,
बाट बटोहिया तुहू मोरे, भइया हो रामा,
पिया से कहिहि सनेस धाइ के हो रामा।
जँतसार, रोपनी, सोनी के श्रमगीतों के अतिरिक्त अन्य श्रमगीत भी मिलते हैं जिन्हें गाकर लोग अपनी थकान मिटाते हैं। कोल्हू चलाते समय, पैदल चलते समय, धोबी कपड़े धाते समय, चरवाहे गाय चराते समय विभिन्न प्रकार के गीत गाकर अपने श्रम का परिहरण करते हैं।
त्यौहार एवं व्रत संबंधी गीत- हमारा देश एक धर्मप्रिय देश है। यहाँ के लोग विभिन्न धर्मों के अनुयायी हैं। हिन्दू धर्म में अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ विद्यमान हैं। यहाँ के नर-नारी विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। यहाँ कोई न कोई्रवत या त्यौहार हर मास होता रहता है। इन अवसरों पर स्त्रियां विविध प्रकार के गीत गाती हैं। तीज, नागपंचमी, जन्माष्टमी, पिंडिया , गोधना, बहुरा, निउतिया, छठ आदि व्रतों के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं उन्हें व्रत तथा त्यौहार संबंधी गीत कहते हैं।
तीज विवाहित स्त्रियों का व्रत है जो भादो शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। सौभाग्यवती बनी रहने के उद्देश्य एवं सभी पापकर्मों के क्षय के लिए यह व्रत रखा जाता है। स्नानोपरांत स्त्रियाँ गौरी की उपासना करती हैं। जो स्त्रियाँ अपने मायके में रहती हैं उनके लिए ससुराल से पीली साड़ी, सिन्दूर, चूड़ी, मिठाई आदि भेजी जाती है। पति के मंगल कामना हेतु यह व्रत स्त्रियाँ रखती हैं। भोजपुरी और अवधी में समान उमंग और गौरव के साथ यह पर्व मनाया जाता है। हरितालिका तीज का व्रत विशेष रुप से शिवजी का व्रत है। इस व्रत के साथ शिव और पार्वती के विवाह संबंधित कथा प्रचलित है।
गौरी बियाहन आये भोला अब गौरी बियाहन आये।
आजन बाजन एकौ न देखौ डमरु बजाइ चले आये।
नलकी पलकी एकौ न देखौ बसहा बरद चढि़ आये।
गहना गुरिया एकौ न देखौ रुद्रमाला पहिन के आये।
मौर आ कलँगा एकौ न देखौ जटा जूट धरि आये।
''बहुराÓÓ  व्रत पुत्र की मंगल कामना के लिए किया जाता है। यह व्रत भाद्र पद कृष्ण चतुर्थी को किया जाता है। इसे ''बहुलाÓÓ  भी कहते हैं। इस व्रत की कथा की नायिका बहुला है। इसके नामकरण का यही कारण है। इस व्रत में स्त्रियाँ दिन भर व्रत करती हैं और संध्या समय स्नान करके गाय, बछड़ा और सिंह की प्रतिमा बनाकर पूजती हैं। इस अवसर पर गीत गाने का प्रचलन है। भोजपुरी क्षेत्र में बहुरा के जो गीत गाये जाते हैं वे श्रृंगार से आपूरित रहते हैं। बहुरा के गीतों में कथावस्तु के आधार पर माता का पुत्र के प्रति अकृत्रिम स्नेह तथा सत्य प्रतिज्ञा का जो स्वाभाविक उल्लेख होना चाहिए, वह उन गीतों में नहीं है। इस अवसर के गीतों में सास-बहू का विरोध, पति-पत्नी का प्रेम, किसी पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण आदि का वर्णन अधिक पाया जाता है। निम्नलिखित गीत में रेशमी नामक स्त्री को बाजार में देखकर किसी राजा के आकर्षित हो जाने का वर्णन प्रस्तुत है-
पहिर ओहिर रेसमी चलती बजरिया
परि गइले रजवा की दीठि गोरिया रेसमी
किया गोरी रेसमी रे माँचवा के ढारल
किया तोरा गहेला सुनार, गोरिया, रेसमी
नाहीं मोरा रजवारे माँचवा के ढारल,
नाहीं हमरा के गहेला सोनार गोरिया रेसमी
जनम देता राम माई रे बायवा
सुरति उरेहे भगवान गोरिया रेसमी।
रेसमी श्रंृगार करके बाजार गयी है तो राजा उसके रंग रुप पर आकर्षित हो गया है। वह जानना चाहता है कि उसके स्वरुप को क्या किसी सुनार ने ढालकर गढ़ा है? इस पर वह स्त्री बड़े ही सरल स्वभाव से कहती है कि वह किसी साँचे में ढली हुई नहीं है और न ही उसे किसी सुनार ने ही तराशा है। उसे जन्म देने वाले उसके माता-पिता ही हैं और मेरी सूरत ईश्वर द्वारा ही निर्मित है। इस गीत में स्त्री की सरलता और उसका भोपालन अत्यंत मधुर है।
गोधन का व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है। ''गोधनÓÓ  शब्द गोवर्धन का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल से ही गोवर्धन पूजा का उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजा के विरोध में गोवर्धन पूजा का महत्व प्रतिपादित किया था। गोधन पूजा उसी गोवर्धन पूजा के प्रतीक के रुप में मनाया जाता है। इस व्रत में गोबर की बनी हुई मनुष्य की प्रतिमा इन्द्र की प्रतिकृति होती है। गोधन कूटने की यह प्रथा इन्द्र के मद को चूर्ण करने का प्रतीक स्वरुप है। इस व्रत का प्रमुख उद्ेश्य भाई-बहन में प्रेम-भावना की वृद्धि है।
गोधन बाबा अइले या हुनरे का ले बइठे के देऊँ।
चनन काठ के पिढइया रे उहै बैठे के देऊँ।।
इसी प्रकार गोधन पूजा के बाद पिंडिया का व्रत किया जाता है। यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया से प्रारंभ होकर अगहन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तक एक माह तक चलता है। इसमें गाँव की लड़किया किसी एक  स्थान पर गोबर की पिंडिया लगाती है। इस उत्सव को भाई के कल्याण के लिए किया जाता है।
लडुवा चिउवा से हम पूजबि पिडिअवा हो
तोहरि बधइया भइया पिडिया बरतिया हो।
पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्र के संकट निवारण के लिए जिउतिया का व्रत करती हैं। यह व्रत आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन होता है। इस व्रत की पूर्व संध्या पर स्त्रियाँ सरपुतिया की सब्जी खाती हैं। दिन भर व्रत के बाद स्नान करके नए कपड़े पहनती हैं तथा निर्दिष्ट जलाशय के किनारे गोठ में जाती हैं। नए धागे से गुंथी हुई चाँदी-सोनी की जिउतिया, लड्डू, नया वस्त्र, फल फूल आदि थाली में सजाकर गोठ में रखा जाता है। घी का दीपक जलाया जाता है। इसके बाद सभी स्त्रियाँ गीत गाती हुई अपने घर जाती हैं। अगले दिन नवमीं को अन्न जल ग्रहण के साथ पारणा होती है।
डाला छठ व्रत का प्रचलन मगध, मिथिला और भोजपुर में सर्वाधिक है। वैसे इसे बिहार प्रदेश का राष्ट्रीय व्रत माना जाता है। धीरे-धीरे इसका प्रचलन पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी हो गया है। बिहार के जो लोग अन्य प्रांतों में रहते हंै वे लोग इस त्यौहार को वहीं मनाते हैं। यह पर्व कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस  व्रत को ''छठ पूजाÓÓ  भी कहते हैं। यह व्रत जिउतिया के समान ही अत्यंत कठिन है। इस व्रत का प्रधान उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति और उसका दीर्घायु होना है। वास्तव में छठ का व्रत भगवान सूर्य का व्रत है क्योंकि इन्हीं की पूजा के बाद स्त्रियाँ अन्न ग्रहण करती हैं। इस व्रत में सभी सामग्री एक डाला (टोकरी) में रखी जाती है, इसी से इसे ''डाला छठÓÓ  कहते हैं। इसमें दो दिन का निर्जला उपवस करना पड़ता है। पंचमी के दिन एक बार बिना नमक का भोजन कर व्रत प्रारंभ किया जाता है। षष्ठी को संध्या के समय सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। सप्तमी को उगते सूर्य को अघ्र्य देकर इसका समापन किया जाता है। सप्तमी को सूर्योदय के पूर्व अर्धरात्रि में ही स्त्रियाँ गीत गाती हुई नदी या पोखर के किनारे एकत्रित होती हैं। व्रती स्त्रियाँ एवं पुरुष कमर तक जल में खड़े होकर दो दिन के उपवास से शिथिल शरीर के साथ तीन-चार घंटे हाथ जोड़कर सूर्योदय की प्रतीक्षा करते हैं। सूर्योदय होने पर अघ्र्य के पश्चात व्रत समाप्त हो जाता है।
खोइका अछलावा गेडुववा जुड़ हो पानी,
चलली उरा देई आदित मनाव।
थोरा नाहि सेबो ए आदित, बहुतन मागि ले,
पाँच पुतवा एआपित हमरा के दीन्हि।
जाति सम्बन्धी (कौमी) गीत- लोकगीतों में कुछ ऐसे भी गीत हैं जो किसी जाति विशेष से जुड़ हुए हैं। इन्हें जातीय अथवा कौमी गीत कहा जाता है। ऐसे लोकगीतों का संबंध अधिकतर पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियों से है। एक समय था जब ये जातियाँ जातीय लोकगीतों को गा-बजाकर विवाह आदि के समय अपना काम चला लेती थीं किन्तु नगरीय प्रभाव के कारण अब इनमें परिवर्तन हो गया है। अब ये लोकगीत किसी जाति विशेष के नहीं रह गए हैं। धनोपार्जन की लोलुपता से इन गीतों ने अन्य जाति के लोगों को भी आकर्षित किया है। फलस्वरुप रेडियो एवं कलाकार के रुप में सभी लोग इस होड़ में जुट गये हैं। फिर भी ये कौमी गीत आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
''बिरहा  अहीर जाति का प्रसिद्ध गीत है। शादी-विवाह के अवसर पर, रास्ता चलते समय, गाड़ी हाँकते समय, पशुओं को चराते समय, लोगों को बिरहा गाते हुए सुना जा सकता है। बिरहा की लोकप्रियता विदेशों में भी है। जो लोग भारत से जाकर विदेशों में बस गए हैं उनके साथ यहां के लोकगीत किसी न किसी रुप में जीवित हैं।
''बिरहा  की उत्पत्ति विरह शब्द से हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में इन गीतों का वण्र्य-विषय विरह रहा होगा, किन्तु आजकल इन गीतों का प्रतिपाद्य विषय कोई भी वस्तु हो सकती है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार यद्यपि इन गीतों का कोई साहित्यिक महत्व नहीं है तथापि जनता के मनोभावों और आकांक्षाओं के प्रतीक होने के कारण इनका सामाजिक महत्व अधिक है। बिरहा एक छोटा गीत है, परन्तु अपनी सुगठित पदावली और चुभती शैली के कारण सहृदय-हृदय को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।
बिरहा के कई रुप हमें मिलते हैं। कुछ आकार में छोटै होते हैं तो कुछ बड़े होते हैं। छोटे बिरहा चार कडिय़ों के होते हैं जिन्हें ''चरकडिय़ाÓÓ कहते हैं ये बिरहा सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। लम्बे बिरहा गाथा के रुप में होते हैं, जिनमें रामायण तथा महाभारत की कथाएँ होती हैं अथवा ऐतिहासिक सामाजिक समस्याओं और घटनाओं का कोई महत्वपूर्ण विवरण रहता है। 
साभार - रउताही 2015

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