Thursday 21 February 2019

ओडिय़ा लोकगीतों में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना

'लोक शब्द का अर्थ विश्व ब्रह्माण्ड की तरह व्यापक है। सामान्यत: लोक का अर्थ आम जनता या जन सामान्य के रुप में ग्रहणीय है। कन्ध, गण्ड, परजा, गदबा, कोल्ह, भूइयां सरीखे आदिवासी गिरिजनों से लेकर ग्राम शहर के अशिक्षित अर्धशिक्षित जन सामान्य इस लोक के परिसर में आते हैं। इस जन समुदाय की संस्कृति ही लोक संस्कृति है। लोक साहित्य, लोक कला, लोक संगीत, लोकाचार आदि लोक संस्कृति के अंग है। मूलत: लोक जीवन में प्रचलित साहित्य ही लोक साहित्य है। 'लोकÓ शब्द को परिभाषित करती हुई श्रीमती प्रमोदा पण्डा लिखती हैं- 'लोकÓ एक लाक्षणिक शब्द है। व्यक्ति, जन समुदाय, भूमण्डल आदि इसके शाब्दिक अर्थ है, पर पारिभाषिक अर्थ में इसकी संज्ञा स्वतंत्र है। इस लोक का तात्पर्य केवल जन समुदाय नहीं है। यह एक प्राचीन पारंपरिक, विश्वास निष्ठ, अन्त:सम्बन्ध संपन्न जन समुदाय को ही इंगित करता है। आधुनिक प्रगतिशील तथा व्यक्ति स्वातंत्रयवादी जन समुदाय के संदर्भ में यह प्रायोगिक नहीं है।
अंग्रेजी में 'लोकÓ शब्द के पारिभाषिक अर्थ के रुप में  स्नशद्यद्म शब्द व्यवहृत है। प्रारंभिक दौर में समाज के नीचे तबके के लोगों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होता था। पश्चिमी विद्वान हॉर्डर (॥द्गह्म्स्रद्गह्म्) ने पहली बार व्यापक अर्थ में इस  स्नशद्यद्म शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द को जर्मन विद्वान थॉमस  (ञ्जद्धशद्वड्डह्य) ने एक नई रुप रेखा दी और उन्होंने  स्नशद्यद्म रुशह्म्द्ग शब्द को लोक साहित्य के लिए इस्तेमाल किया। पाश्चात्य समाजशास्त्री बर्ने (क्चह्वह्म्ठ्ठद्ग) की नवीन आलोचना दृष्टि ने इस फोकलोर शब्द को मौखिक रुप से लोक साहित्य या लोककला के रुप में ग्रहण किया और फिर लोक साहित्य शास्त्री मर्यादा हासिल करने में कामयाब हुआ। इसके बाद फोण्र्टर, रथबेनिडिकेड, रेडफील्ड, पोटर, सरीखे पश्चिमी आलोचकों ने इसे व्यापक रुप दिया और साहित्य को लोक साहित्य एवं शिष्ट साहित्य के रुप में स्वतंत्र भागों में बांटते हुए इसे साहित्यिक प्रतिष्ठा दी।
ओडि़शा की लोक संस्कृति का तात्पर्य यहां के मूल निवासियों, अधिवासियों की कला, साहित्य, संगीत, परंपरा, आचार-विचार, रहन-सहन, तीज-त्यौहार, पर्वोन्सव आदि का समाहार है। ओडि़शा के सर्वप्राचीन मूल निवासी के रुप में शबर समुदाय कोमाना जाता है। शबर यहां के मूल निवासी है। इन शबरों द्वारा ओडि़शा वासियों के आराध्यदेव भगवान जगन्नाथ की प्रतिष्ठा व पूजा अर्चना शुरु हुई थी। उसके बाद यहां द्रविड़ आए और फिर आर्य आए, जिन समुदायों ने आर्यों की अधीनता स्वीकार कर ली, वे समाज के निम्न जाति के रुप में पहचाने जाने लगे। जिन लोगों ने उनके अधीन रहना पसंद नहीं किया और उनसे परास्त होकर वन जंगलों में जाकर रहने लगे वे गिरिजन या आदिवासी के रुप में परिचित हुए। इन जन समुदायों की सामूहिक जीवन जिज्ञासा ही ओडि़शा की लोक संस्कृति है।
लोक संस्कृति को अज्जीवित करने वाला साहित्य ही लोक साहित्य है। जो साहित्य लोकग्राह्य है, वही लोक साहित्य है। खुले आसमान में उड़ते पक्षी की तरह यह स्वतंत्र है, इसमें न तो कोई बंधन है और न ही कोई नीति नियम। यह प्रचारधर्मी नहीं है। लोक साहित्य के सर्जक गुमनाम रहते हैं। वे प्रतिष्ठा, ख्याति, यश के लोभी नहीं होते। परिपूरित मन के उन्मुक्त भाव इसके मूल सम्बल है। नित-नवीन रुप परिवर्तन इसका प्राणधर्म है। विशिष्ट ओडिय़ा समालोचक डॉ. गौरांग चरण दाश इसकी व्यापकता सिद्ध करते हुए कहते हैं- 'समाज  के प्रत्येक वर्ग की जीवन जिज्ञासा, जीवन आदर्श, जो मनुष्य के लिए ग्राह्य है जो अन्तरचेतना को अभिभूत कर सके। जिसके अंदर वे अपनापन तलाश सकें, वही उस जनसामान्य का साहित्य, कला संगीत तथा व्यापक पैमाने पर लोक हृदय का उद्गार ही लोक साहित्य है, वही लोकवेद है।
लोक साहित्य मनुष्य की बात करता है। मनुष्य की नित दिनचर्या के जीवन प्रसंग, सुख-दुख आंसू मुस्कान से यह साहित्य अतिरंजित है। प्रताप सहगल की इन स्पेष्टोक्तियों से इसे और बारीकी से समझा जा सकता है- लोक साहित्य में जितनी अनगढ़ता है, कच्चापन है, उतनी ही उसमें मिट्टी की खुशबू भी है। उसमें एक सम्मोहन है। मानवीय संवेदनाओं का वाहक है लोक साहित्य, वह कभी हिंसक नहीं होता, सांप्रदायिक भी नहीं, संकुचित भी नहीं। वह तो समूह धर्मी है, सामाजिक प्रतिबद्धता है उसमें। लोक साहित्य मौखिक वाचिक परंपरा में उज्जीवित है। इसमें लोक जीवन की सच्चाई प्राकृतिक रुप से रुपांकित होती है, अत: नैसर्गिकता इसका प्राण तत्व है।Ó
लोक साहित्य मनुष्य के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का परिप्रकाश है। वसन्त के मलयानिल की तरह हमारे मन को आनन्दित, पुलकित करने वाला साहित्य है। यह हमेशा हमें अपने परिवेश से, अपनी परिस्थिति से तथा पूरी प्रकृति से रागात्मक संबंध कायम करता है। यह मनुष्य के बीच मुखा-मुख, कानों-कान वाचिक, मौखिक रुप से प्राणवन्त है। स्वच्छ, सरल, पवित्र, मन्थर गति से गतिशील निर्झर झरने की तरह हमारे तन मन को रसाप्लुत करते हुए युगों-युगों तक पाठक समाज को मोहाविष्ट करता यह लोक साहित्य चिर-प्राकृतिक है, शाश्वत है। इसमें ग्राम जीवन की आशा-आकांक्षाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, अपेक्षित है, अत: यह हृदयग्राही है। लोक साहित्य के तीन प्रमुख अंगों में लोकगीत, लोककथा  एवं लोक नाट्य में से लोकगीत का महत्व सर्वोपरि है।
लोकगीत मानव हृदय का प्रथम स्फुरण है। सबसे पहले मनुष्य के अन्तर्मन से गीतों के रुप में उसकी भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। आदिम युगीन मनुष्य जब घने जंगल में जीवन जी रहा था, फल-फूल उसका आहार था, पेड़-पौधों का वल्कल उसका परिधान था। उस समय वह अपनी सभ्यता, संस्कृति से अनजान था। उस समय उसकी ज्ञान परिसीमा सीमित  थी। उस समय प्राकृतिक आरण्यक परिवेश, प्राकृतिक सुषमा, आकाश की नीलिमा, फूलों का सौरभ झरने की कल-कल नाद, पक्षियों का कूजन, बारिश की रिमझिम ध्वनि, विस्तृत हरीतिमा आदि मनुष्य के मन को न सिर्फ रम्य रंजित करते थे, वरन उसके अन्त:करण को उद्वेलित करते थे। उसी समय उसके कण्ठ से हृदय का उच्छवास उसके कण्ठ से गीतों के रुप में प्रस्फुटित होता था, यही प्रारंभिक गीत लोकगीत है। लोकगीतकार, प्रकृति के प्रागंण में बैठकर प्राकृतिक विषयों को लेकर गीत गाता चला गया है, अत: लोकगीत कृत्रिम न होकर प्राकृतिक है।
ओडिय़ा लोक साहित्य के अन्वेषक लोकरत्न डॉ. कुंजबिहारी दाश के शब्दों में, ''लोक गीत प्राचीन है, फिर चरि नवीन है। युगान्तर में बाह्य परिवेश होने पर भी प्राचीनधारा निरंतर प्रवाहित होती है। पुराने युगों का संदेश लोक गीतों के जरिए हमारे पास पहुंच सका है। इस दृष्टि से लोक साहित्य शिष्ट साहित्य का जनक है, नियामक है। लिपि उद्भावन से पहले यह मौखिक रुप से प्रचलित था, बाद में लिपिबद्ध हुआ। नए-नए रुप रंगों के साथ लोकगीत अतीत से वर्तमान, वर्तमान से भविष्य की ओर गतिशील होने लगा।ÓÓ अर्थात लोकगीत अतीत का साक्षी, वर्तमान का वाहक और भविष्य का रक्षक है। यह निराश मन में नई आशा-संचार करता है, जीवन जीने की कला सिखाता है। समाज को स्वस्थ, सुंदर बनाने के साथ-साथ यह हमारे अंदर प्रेम, सद्भाव, शांति, मैत्री की भावना भर देता है।
ओडिय़ा लोकगीत ओडि़शा के लोकजीवन का मौखिक इतिहास है। ओडिय़ा लोकगीतों में गिरि-कन्दराओं में, घने जंगलों में, गांव-देहातों में निवास कर रहे जन समूहों का सामाजिक जीवन मुखर है। ओडिय़ा लोकगीत लोकजीवन का पुष्कल परिप्रकाश है। यहां के लोकगीतों में केवल मनुष्य के लिए संवेदना व्यक्त नहीं हुई है, बल्कि समाज को कलुषित करने वाले असामाजिक तत्वों के प्रति कटुक्ति या व्यंग्योक्ति भी व्यक्त हुई है। लोक कवि उन्मुक्त भाव से गीत गाता चला गया है। गीत गाने की प्रक्रिया असीम है। अपने समाज, प्रकृति तथा मानव जीवन के सुख-दुख, हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा आदि को लेकर मुक्त कण्ठ से वह गाता चला गया है। इसकी भाषा अत्यंत सरल पर भाव अत्यंत गंभीर है। ओडिय़ा के लोक जीवन में हलवाला गीत गाड़ीवान गीत चरवाहा गीत, मल्लाह गीत, विवाह गीत, लोरी गीत, झूला गीत आदि लोकगीतों का विशिष्ट महत्व है-
1. हलवाहा गीत- ओडि़शा एक कृषि प्रधान ग्राम बहुल राज्य है। यहां के लोगों की मुख्य जीविका कृषि है। कृषि कार्य करते हुए किसान अपने खेत में गीतों का अम्बार लगा देता है। यहां का किसान-मजदूर दिन रात अपने खेत में जुटा रहता है चाहे जेठ की कड़ी दोपहरी हो या पूष की कंपकंपाती ठण्डी रात, वह कृषि कार्य में जुटा रहता है।  वह खून-पसीना बहाकर खेत में सोने की फसल उगाता है। सावन की झड़ी बरसात हो या जेठ की कड़ी धूप हो, हल चलाता हुआ हलवाहा गीतों की झड़ी लगा देता है, जिससे पूरा परिवेश झंकृत हो उठता है। वह पौराणिक कथा प्रसंगों को लेकर गीत संयोजन करता है, बशर्ते उन गीतों के शाब्दिक अर्थों से उसका कोई सरोकार नहीं होता। हल चलाता हुआ हलवाहा गा उठता है-
राम लक्ष्मण दुई गोटी भाई
के फान्दे लंगल, के फान्दे आड़ मई
पल्हा परशिबे राम जे लक्ष्मण
 सीतया जिबे रोई हो....
(राम लक्ष्मण दोनों भाई खेत में हल चला रहे हैं। फिर दोनों भाई धान पौधों को देवी सीता के पास पहुंचा रहे हैं। सीताजी धान रोपाई में लगी हुई हैं।)
2. चरवाहा गीत- गाँव के खेतों में, परती जमीन पर चरवाहा गाय-भैंस चराता हुआ गाता फिरता है- 'प्यारे मन की गठरी खोल, उसमें भरे लाल अनमोल।Ó गाय भैंसों का चरवाहा बारिश, गर्मी, सर्दी के दिनों में घर से दूर अपने साथियों के साथ समय बीताता है। बारिश के दिनों की मूसलाधार बारिश में, सर्दी के दिनों की कंपकंपाती ठण्ड में तथा गर्मी के दिनों की कड़ाके की धूप में अपने प्रवासी जीवन में थोड़ा सा आनंद संचार के लिए वह गीत गाने लगता है। गीतों के माध्यम से वह अपनी वियोग-व्यथा व्यक्त करके मन को थोड़ा  हल्का करता है। उसकी नजर के सामने अपनी प्रेयसी पत्नी का खूबसूरत मुखड़ा खिल उठता है। कई दिनों बाद जब वह अपने मवेशियों के साथ घर लौटता है, तो उसकी पत्नी मुंह लटकाई हुई बैठी रहती है। मुस्कुराती हुई एक शब्द भी नहीं बोल रही है, क्योंकि उसके पति की गैर मौजूदगी में सास-ससुर ने बहुत कुछ खरी-खोटी सुनाई है, इसीलिए वह अपने मायके चले जाने की जिद लिए बैठी है। चरवाहा अपनी हृदय साम्राज्ञी को मनाता हुआ गाता है- 'मईषि खाइले बिरि उठिआ लो
खरि पडिय़ा रे गोठ
दूहां बरडिय़ा अलगा कर लो
बोहू मड़ाइबे भार
माआ माइला कि बाआ माइला
काहा बोले गल रुषि
आणे पनिआ मा रे उकुणि
खंजा महुड़ा रे बीस।Ó
3. गाड़ीवान गीत- आज इक्कीसवीं सदी के प्रथम चरण में हमारी सभ्यता इतनी विकसित हो गई है कि गांव-देहात में बैलगाड़ी, घोड़ा-गाड़ी नोहर हो गई है। आज के मशीनी युग में अत्याधुनिक मनुष्य इतना मशीनी दास हो चुका है कि एक मील दूरी पैदल चलना भी उसके लिए दूभर हो गया है। धीरे-धीरे सायकिल  भी सड़कों पर कम चलती हुई दिखाई दे रही है। कहीं ऐसा न ही कि कुछ वर्षों बाद गांव-देहात की सड़कों पर सायकिल चलना बंद हो जाये, जिस खतरे के बारे में गांधी जी ने 'हिन्द स्वराजÓ में बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही आगाह कर दिया था। पहले जमाने में बैलगाड़ी सवारी और सामान दोनों ढोने के लिए इस्तेमाल होती थी। दूर दराज में व्यापार करने तथा रिश्तेदार के घर जाने के लिए गाड़ीवान को दिन रात गाड़ी चलानी पड़ती है। रातभर की थकान से जब उसकी आंखें मूंदने को बेताब होती हैं, तब गाड़ीवान अपनी नींद भगाने के लिए गीत गाने लगता है। उसके गीतों की लय में अपनी थकान भूल कर बैल भी दौडऩे चलने लगते हैं। गाड़ीवान ऊंचे स्वर में गाने लगता है-
'दूर कु सुन्दर त परबत माल
गाँ कु सुन्दर त नडिय़ा गुआ ताल
बन्धु कु सुन्दर त दिशई दूर बाट
सिन्धु कु सुन्दर त लहड़ा भंगा घाट
सभा कु सुन्दर त पधान सान भाई
गोठ कु सुन्दर त दुहांलिआ गाई
घर कु सुन्दर जेबे लो धरणी
न जिबु बाप घर लो।Ó
4. मल्लाह गीत-(मांझी गीत) ओडि़शा नदियों का राज्य है। यहां की महानदी ओडि़शावासियों की जीवन रेखा है। महानदी पर निर्मित हीराकुंड बांध विश्व प्रसिद्ध जल परियोजना है जहां का बिजली उत्पादन पूरे राज्य को प्रकाशित करता है। नदियों में, समुद्र में नाव चलाते हुए मछली पकड़ते हुए मल्लाह जाति के लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। नाव चलाते हुए मांझी सुमधुर स्वर में गीत अलापने लगता है। अपने मर्मस्पर्शी गीतों से वह सवारियों का मनोरंजन करता है। हवा अनुकूल होने पर नाव में पाल बांधकर पतवार पकड़े हुए नदी किनारे के लोगों को लक्ष्य करके गीतों की लहर छोड़ता है और जब हवा प्रतिकूल होती है तो अपने शारीरिक कष्ट से क्षणिक छुटकारा पाने के लिए गीत गाते लगता है। इसके अलावा नदी में स्नान कर रही किशोरी-युवतियों, कमर लचकाती हुई कलसी  से पानी ले जा  रही पनिहारिनों को देखकर मांझी आशु कवि बन जाता है। नदी किनारे कोई हल्दी उबटन लगाई हुई चावल धो रही युवती को देखकर मल्लाह का प्रेमी मन उद्वेलित हो उठता है और उसका प्रेम इन शब्दों में प्रकट होने लगता है-
'कि गीत गाइलु नाआ मंगे बसि
कान पारिथिब सोल बयसि
चाऊल धोई आसि हो...
कदली पतर बाआ कु फर-फर
ओदा लुगा पिन्धी गोरी बाहार
हल्दी जर-जर हो...Ó
5. डोली गीत - ओडि़शा के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में डोली गीतों की विशेष भूमिका रही है। विशेष रुप से शादी के समय और शादी के बाद कन्या इसी डोली में सवार होकर ससुराल से मायके और मायके से ससुराल आया करती है। प्राचीन युग में यह डोली ही दुल्हन के आने-जाने का माध्यम थे। इस डोली को चार लोग कन्धे पर लाद कर दूर-दराज का रास्ता तय करते थे। कहार अपनी थकान से निजात पाते के लिए  तथा यात्रा को सुगम बनाने के लिए अनेक गीत गाया करते हैं। इन गीतों को पहले तक कहार गाता है फिर बाकी तीनों उसकी आवृत्ति करते हैं। इन गीतों  में विविध सवाल जवाब, मौज-मजलिस तथा रसिकता पूर्ण वाक्यों  द्वारा कहार अपने पथ-परिश्रम व क्लान्ति भूल जाते हैं और गीतों का समां बांध देते हैं-
'पान भांगुथिबु खिलेई करि लो
चुनि चुनि गुआ खइर मिशालो
बड़ नई कूल बड़ उठाणो लो
केमिति काढि़बि खरारे पाणि लो?
गामुछा काणि रे आणिबि टाणिलो
अन्टा नक नक बाँऊश कणिलो।
6. बिदाई गीत- हमारे पारिवारिक सामाजिक जीवन में वैवाहिक-मांगलिक उत्सव विशिष्ट महत्व रखता है। विवाह के समय पूरा घर परिवेश खुशियों से भरापूरा रहता है। सभी के मन में खुशी की लहर उठ रही होती है। विवाह के दौरान बारात-आगमन कन्या पक्ष के लिए बड़ी हर्षोल्लास की घड़ी होती है। बारातियों तथा दूल्हेराजा के स्वागत में किशोरियाँ-युवतियाँ मंगलगान करती हैं और फूलों की बारिश करते हुए आनन्दातिरेक हो उठती हैं। कन्या अपनी सहेलियों के साथ छिप कर किसी भी तरह से अपने सपने के राजकुमार को देख लेती है और खुशियों से झूम उठती है। पूरे वैदिक रीति से विवाह संपन्न होता है। फिर विदाई की घड़ी आती है, जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को हिलाकर रख देती है। कन्या बाबूल का आंगन छोड़ ससुराल के लिए कदम बढ़ाती है। इस गीतों में माँ-बाप, परिवार-स्वजन, सखी सहेलियों से बिछुडऩे की पीड़ा कन्या व्यक्त कर रही है।
'आहा कषि काकुड़ी
मुं त जाउछि छाडि़
मन रे पकाऊ थिब घड़ी की घड़ी
आहा संगात सखि
दया थिबटी रखि
नयनु न रहे नीर तुमकु देखिÓ
7.लोरी गीत- माँ के चरणों में जन्नत होती हैं। माँ तो धरती माता की तरह होती है, जो अपने वक्षस्थल  में सभी दुख संताप, हर्ष विषाद  को धारण करके त्याग बलिदान की प्रतिमूर्ति के रुप में चुनौतीपूर्ण जीवन जीती है। वह अपनी संतान को खून से सींचकर बड़ा करती है, अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से दबाकर रखती है। ममतामयी माँ अपने बच्चे की परिवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ती। वह अपने लाल को हल्दी-तेल मालिश करते, नहलाते, खिलाते, घुमाते, सुलाते समय अनेक गीत गाकर सुनाती है। माँ की लोरी और कोमल हाथ की थकान से बच्चे को नींद आने लगती है और माँ की गोदी में या पलंग पर वह सो जाता है। धीमी आवाज में शांत रस से सराबोर माँ इस तरह से गुनगुनाने लगती हैं-
धो रे बाया धो
जोऊ किआरि रे गहल माण्डिया
सेई किआरि रे शो...
झूला गीत- ओडि़शावासियों में बारह महीने में तेरह पर्व मनाने की सुंदर परंपरा है। यहां का लोक  जीवन तीज-त्यौहार, पर्व उत्सव मनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। होली, दिवाली, रज पर्व, चैत पर्व, फाल्गुन पर्व, नुआ खाई, प्रथमाष्टमी, जन्माष्टमी, रथयात्रा, झूलन यात्रा, धनु यात्रा, पौष पुन्नी, लक्ष्मी पूजा, मोरिया पूजा, जुड़ो पर्व इत्यादि जाने कितने पर्व उत्सव, तीज-त्यौहार यहां के ग्रामजनों, गिरिजनों में मनाए जाते हैं। यहां का ग्राम परिवेश इस अवसर पर नाच-गान, बाजे-गाजे से झंकृत हो उठता है। रजसंक्राति के अवसर पर बड़ी धूमधाम से रज पर्व मनाया जाता है। यह युवक-युवतियों का आनंद पर्व है। यह तीन दिनों तक चलता है। इस मौके पर युवतियां झूला लगाकर झूला झूलती हुई गीत गाती है। युवतियाँ-किशोरियां अपने संगी-साथी, प्रेमियों, भाभियों को इंगित करके सुमधुर स्वर में गीत गान करती हैं। किशोरी प्राण का यह सामूहिक गीत उनकी सुरीली आवाज से अत्यंत सरस-आकर्षक बन पड़ता है। किशोरियों भाव-विभोर होकर गाने लगती है-
कोइली डाकिला मो बुद्धि हजिला
धइली धसाई पशि
दोली उन्चे गला चालि
खसि आसु आसु किबा देखिलि
पराण समर्पि देलि
कटिली सुगन्धि बेणा
नास्ति करु करु धइले डेणा
करि न पारिलि मना
लोकगीत ओडिय़ा लोक जीवन में लोक वेद के रुप में परिचित है। इसकी भाषा सरल तथा भाव गंभीर है। जनमानस में प्रचलित मौखिक बोलचाल की भाषा में रचित लोकगीत सर्वग्रहणीय है। ओडिय़ा लोक गीत ग्राम जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं। इसमें लोक जीवन के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, आस्था-विश्वास, सामाजिक सरोकार तथा सांस्कृतिक जीवन स्पन्दन चिर भास्वर है। निष्कर्ष के रुप में यह स्पष्टोक्ति रखी जा सकती है। ओडिय़ा लोकगीत भाव एवं रस का समाहार है। यह कला कल्पना की गगन चुम्बी मीनार है। यह पुराण, इतिहास और विश्वास बोध का त्रिवेणी संगम है। सत्य की ज्योति शिव की मंगलमयता एवं सौन्दर्य की मनोहरता से यह विमण्डित है। यह लोक गीत रह चलते राही की थकान ही दूर नहीं करता, नैराश्य हृदय में आशा का संचार करता है।
साभार - रऊताही 2015

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