Sunday 24 February 2019

छत्तीसगढ़ी संस्कार गीत

संस्कार हमारे जीवन को सुसंस्कृत बनाते हैं। सुसंस्कारों के अभाव में मनुष्य जीवन पशुतुल्य हो जाता है। मनुष्य मात्र के आचारों, व्यवहारों व क्रियाओं से उसके संस्कारों का सहज ज्ञान, उसकी श्रेष्ठता या निकृष्टता का अनुमान लगाया जा सकता है। संस्कार, संस्कृति का द्योतक है। संस्कार मनुष्य की पहचान है, जो जीवन की मूल संक्रियाओं से उत्पन्न होते हैं और जीवन को संस्कारित करते हैं। संस्कार जीवन परिष्कार के आधार हैं। सौजन्य, सौहाद्र्र और समन्वय के स्त्रोत  भी।
विश्व में भारतीय संस्कृति का बड़ा सम्मान है। भारतीय जीवन संस्कारों से सराबोर है। भारतीय जीवन का शिष्ट पक्ष हो या लोक पक्ष, इनमें संस्कारों की संप्रभुता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक भारतीय जन जीवन में संस्कारों का विशेष महत्व है। प्रत्येक कार्य में संस्कारों का विधान है। ये विधान हमें परम्परा से प्राप्त हुए हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में सोलह संस्कारों का विधान है। इनमें गर्भाधान, सधौरी (पुंसवन) जन्म, मुण्डन, कर्ण छेदन, यज्ञोपवित, विवाह, मृत्यु संस्कार आदि प्रमुख हैं। ये संस्कार हमारे जीवन को आत्मोन्नमुखी और समाजोन्मुखी बनाते हैं और जीवन में नए अध्याय की शुरुआत करते हैं। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में जन्म संस्कार, विवाह संस्कार और मृत्यु संस्कार ही प्रमुख है।
जन्म संस्कार :
लौकिक व परलौकि दोनों ही दृष्टि से संतान प्राप्ति महान व पुण्य कार्य है। मनुष्य के पास कितनी ही अकूत चल-अचल संपत्ति क्यों न हो?  मान-सम्मान क्यों न हो? अगर वह संतानहीन है, तो सारी संपत्ति सारा मान-सम्मान वृथा है। संतान प्राप्ति मनुष्यमात्र की सबसे बड़ी इच्छा होती है। ऐसी मान्यता है कि संतानहीन व्यक्ति अपने पितृ ऋण से उऋण नहीं होता। उसका उद्धार नहीं होता। समाज में नि:संतान स्त्री हो या पुरुष  उसकी उपेक्षा और अवहेलना की जाती है। ऐसे लोग संतानहीनता के कारण दु:खी रहते हैं। संतान-सुख के सामने संसार के अन्य सारे सुख और आनंद निरर्थक लगते हैं। संतान प्राप्ति सौभाग्य का सूचक, आनंद और हर्ष का विषय है। संतान प्राप्ति के अवसर पर मनाया जाने वाला उत्सव इस बात का साक्ष्य है।
छत्तीसगढ़ में जन्म संस्कार की अपनी लोकव्यापी परम्परा है। यहां गर्भाधान से लेकर संतानोत्पत्ति तक आनंद और मंगल की बेला होती है।
सधौरी :
सधौरी संस्कार प्रथम गर्भाधान के सातवें माह में सम्पन्न होता है। इस समय मायके वालों को आमंत्रित किया जाता है। मायके  पक्ष के लोक सधौरी लेकर आते हैं। जिसमें वस्त्राभूषण व सात प्रकार के व्यंजन होते हैं। इन व्यंजनों में ठेठरी, खुरमी, पपची, लाडू, कुसली, सोहारी, करी होते हैं। गर्भवती स्त्री की ओली भरी जाती है और सात प्रकार के पकवान खिलाकर अन्य स्त्रियाँ भी पकवान खाकर साध पूर्ण करने की कामना करती हैं। स्त्रियाँ आनंद के इस क्षण में सधौरीगीत गाकर अपनी खुशियों का इजहार करती हैं-
महल म ठाढ़े बलम जी
अपन रनिया मनावत हो
रानी पी लो मधु पीपर
होरिल बर दूध आवे हो
कइसे के पियंव करु कासर
अउ करु कासर हो
कपूर बरन मोर दाँत
पीपर कइसे पियंव हो
मधु पीपर नई पीबे
त कर लेहूँ दूसर बिहाव
ओहिच पी ही पीपर हो
पीपर के झार पहर भर
सउत के झार जनम भर
सेजिया बंटाथे हो
कंचन कटोरा उठावव
पी लेहँ मधु पीपर हो
छट्ठी :
शिशु जन्म के पश्चात शिशु की रोदन किलकारी के साथ घरवालों के चेहरों पर हँसी-खुशी नाचने लगती हैं। नवजात शिशु के आगमन से सारा घर आलोकित हो उठता है। शिशु जन्म से लेकर कांके विसर्जन तक स्त्रियों द्वारा गीत गाए जाते हैं। इस बीच काँके पानी व छट्ठी (जन्मोत्सव) का नेंग सम्पन्न होता है। छट्ठी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। इस समय गाए जाने वाले गीत ''सोहरÓÓ  गीत कहलाते हैं। छत्तीसगढ़ी जन्म गीतों में सोहर गीत ही प्रधान हैं। इन गीतों में महिलाओं के मनोभाव, ननंद भौजी के हास-परिहास, सास-ससुर, जेठ-जेठानी का सहयोग या उपेक्षा, उनकी हंसी खुशी, नोंक-झोंक ताने आदि समाहित हैं। रामकृष्ण जन्म से संबंधित गीतों की प्रमुखता है। यह लोक की ही उदारता है कि सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले शिशु की तुलना राम और कृष्ण से की जाती है। सामान्य माता-पिता को कौशिल्या व दशरथ की संज्ञा दी जाती है। झोपड़ी या मिट्टी का घर भी महल का मान पाते हैं। यह छत्तीसगढ़ी सोहर गीतों का वैशिष्ट है-
काखर भए सिरिरामे
काखर भए लछमन हो
ललना काखर भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो।
कौसिल्या के भए सिरिरामे
सुमित्रा के लछमन हो
ललना केकई के भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो।
कोन घड़ी भए सिरिरामे
कोन घड़ी लछमन हो
ललना कोन घड़ी भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो-
सुभ घड़ी भए सिरिरामे
सुभ घड़ी लछमन हो
ललना सुभ घड़ी भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो-
छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में मुंह जुठारना (अन्न प्रासन), झालर उतारना (मुंडन संस्कार) कान छेदना (कर्ण छेदन) के भी संस्कार होते हैं।  केवल सवर्णों में ही बरुआ (यज्ञोपवीत) संस्कार संपन्न होते हैं। कुछ पिछड़ी जातियों में विवाह के समय प्रतीक रुप में बरुआ संस्कार करने की परम्परा है। ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य जाति में बरुआ उपनयन संस्कार के गीत मिलते हैं। जिसे बरुआ गीत कहा जाता है। बरुआ गीत की बानगी
हाथे म धरो छतरंगी, खखोरी चिपे पाटी हो
बरुआ के बोलम मोर बरुआ भीखम लाल
हम का ब्राह्मण बनावा हो
पंडित के बोलेव मोर पंडित महंगूराम
हमका ब्राह्मण बनावा हो।
अइसन तपसी जातितेन बाबूराय
मूंगा-मोती सहेज रखितेनु हो
अइसन तपसी जातितेन भाँचा मोर
कामधेनु मंगा रखितेन हो।
विवाह संस्कार :
भारतीय संस्कृति में विवाह एक प्रमुख संस्कार है। विवाह के माध्यम से दाम्पत्य जीवन में बंधकर दो अपरिचित, दो आत्माएं एक हो जाती हैं। यह दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। जिससे दो परिवारों के साथ ही अन्य परिजन और स्वजन आत्मीय बंधन में बंध जाते हैं। छत्तीसगढ़ में विवाह संस्कार के समय गाए जाने वाले गीत ''बिहाव गीतÓÓ  कहलाते हैं। गड़वा बाजा अर्थात सींग, दफड़ा, टिमकी, मोहरी और मंजीरा के साथ ये गीत हमारी आत्मा को संतृप्त करते हैं। छत्तीसगढ़ी विवाह में अनेक नेग होते हैं। जिनमें मंगनी, चुलमाटी, मड़वा, देवतला, तेलचघ्घी, हरदाही, चिकट, मायन, मायमौरी, नहडोरी, नकटा नाच, परघौनी, लालभाजी, कुंवर कलेवा, टिकावन-भाँवर, बिदा आदि प्रमुख नेग है। प्रत्येक नेंग कें अलग-अलग गीत हैं। कुछ प्रमुख नेंगों में गाए जाने वाले गीत इस प्रकार हैं-
मंगनी :
वैवाहिक नेंग (परम्पराएं) मंगनी के साथ प्रारंभ होती है। मंगनी अर्थात सगाई- यह वर कन्या के कुल खानदान के साथ ही उनकी जन्म कुण्डली आदि का मिलान कर सम्पन्न की जाती है। तब नारी कंठों से विवाह गीतों की अविरल धारा प्रवाहित होने लगती है।
सजन जोरन बर आयेन ये समधी
सजन जोरन बर आयेन
जोरे गठुरी झन छूटे ये समधी
जोरे गठुरी झन छूटे
लुगरा मंगायेंव सुघर चुक ले ये समधी
लुगरा मंगायेंव सुघर चुक ले
ओहू लुगरा हवय हल्का
ले जा तोर नाक म अरो ले ये समधी
ले जा तोर नाक मे अरोले
लगिन:
''लगिन बारातÓÓ के दिन लग्न देखकर पंडित की उपस्थिति में विवाह की तिथि (मुहुर्त) तय की जाती है। सुविधानुसार मंगनी का लगिन साथ-साथ संपन्न होती है-
तोरे अंगना म मैं आयेंव होई रे मैं आयेंव
तोर घर के दुआरी ल नई पायेंव होई रे होई रे
साते दुवारी पूछत आयेंव रे पूछत आयेंव
तोर घर के मुहारी ल नई पायेंव होई रे होई रे
बागे बगीचा बाबू के डेरा हो बाबू के डेरा
थोरिक पानी पिया दे, धरम के बेरा, होई रे होई रे
चुलमाटी :
चुलमाटी जाने के पूर्व आँगन में सुवासा व सुवासिनों द्वारा हरे बाँस का मड़वा विधि-विधान पूर्वक गड़ाया जाता है। दो बाँसों की जोड़ी बनाकर गड्ढे में सुपाड़ी हल्दी व सिक्का डालकर यह रस्म पूरी की जाती है। तत्पश्चात सुवासिनों व महिलाएं गांव के पवित्र स्थान यथा तालाब या गौठान से मिट्टी लाती हैं। तब महिलाएं चुलमाटी गीत गाती हैं।
तोला माटी कोड़े ल तोला माटी कोड़े ल
नई आवय मीत धीरे-धीरे
धीरे-धीरे तोर बहिनी के कनिहा ढील धीरे-धीरे
जतके ल परसे ततके ल लील धीरे-धीरे
तोला साबर धरे ल, तोला साबर धरे ल नई आवय मीत धीरे धीरे
धीरे-धीरे तोर तोलगी ढील धीरे-धीरे
जतके ल परसे ततके ल लील धीरे-धीरे।
मड़वा छवई:
छत्तीसगढ़ में विवाह  तीन तेल, पांच तेल या सात तेल चढ़ाकर सम्पन्न किया जाता है। चुलमाटी के दूसरे दिन आँगन को गुलर की डालियों से छाया जाता है। मंडपाच्छादन का यह कार्य सुवासा व अन्य लोगों द्वारा किया जाता है। जीजा या फूफा द्वारा ही सुवासा का कार्य किया जाता है। मंडप के कोने में हल गाड़ा जाता है। यह छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति का द्योतक है। गुलर की डालियाँ छाने के साथ ही मंगरोहन व पिढली इसी लकड़ी से बनाई जाती है। यह लोक परंपरा गाँवों में आज भी जीवित है। मंगरोहन मंगल काष्ठ है। जो वर-वधु के मंगल का प्रतीक है। मंगरोहन गुलर की लकड़ी से ही बनाए जाने के पीछे यह किवंदती प्रचलित है कि महाभारत काल में गांधार नरेश की बेटी गांधारी जब विवाह योग्य हुई तब उसकी सगाई हुई, जिससे उसकी सगाई हुई उस वर की मृत्यु हो गई। पुन: सगाई होने पर दूसरा वर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। जिससे गांधारी की सगाई होती वह काल का ग्रास बनता। राजा ने पंडितों से इसका कारण जानना चाहा। पंडितों ने राजा को इस अपशकुन से बचने के लिए सलाह दी की पहले गांधारी का विवाह गुलर (डूमर) के पेड़ से करो। क्योंकि बचपन में गांधारी ने बात स्वभाव के अनुसार खेलते-खेलते गुलर पेड़ में बने घोंसले को तोड़कर चिडिय़ा के बच्चों को नुकसान पहुँचाया था। तब गुलर पेड़ ने उसे श्राप दिया था। यह जानकर राजा ने गांधारी का विवाह गुलर पेड़ से किया। लोक जीवन में यह परम्परा अपशकुन से बचने के लिए किया जाता है-
डूमर डारा के दाई मड़वा छवई ले
बरे बिहे के रहि जाय
के ये मोर दाई सीता ल बिहाये राजा राम
बखरी के तीर-तीर दाई पड़की परेवना
कनकी ल चुनि-चुनि खाय
के ये मोर दाई सीता ल बिहाये राजा राम।
देवतला :
लोक मानस आज भी अपने लोक देवी देवताओं को पूजा में प्राथमिकता देता है। विवाह में यह आमंत्रण देवतला कहलाता है। महिलाएं स्थानीय मंदिरों में जाकर ठाकुर देव, शीतला, साहड़ादेव, हनुमान आदि देवी-देवताओं को हल्दी व तेल का लेप चढ़ाती है। विवाह निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना कर आशीर्वाद लेती हैं तथा विवाह कार्य में शामिल होने के लिए आमंत्रित करती हैं। इस समय महिलाएं रास्ते में गीत गाकर व देवालयों में नाचकर अपनी खुशियों को व्यक्त करती हैं-
तोर घर आयेन बइठ नई केहे
का गुन का गोठियाबो रे भाई
आमा ल मारे झेंझरिया-झेंझरिया
अमली ल मारे तुसार रे भाई
बैगिन ल मारे बोली बचन में
के खड़े-खड़े पछताय रे भाई
खड़े-खड़े पछताये
तेल चघ्घी- मंडप को गोबर से लीपकर चौक पूरा जाता है। मंगल कलश जलाए जाते हैं। वर-कन्या को अलग-अलग उनके घरों में सुवासिनें हाथ में हल्दी लेकर अधोअंग से उपांग की ओर पांच या सात बार चढ़ाती हैं। इसे तेल चढ़ाना कहा जाता है-
एक तेल चढिग़े, एक तेल चढिग़े ओ हरियर हरियर
मड़वा म दुलरु तोर बदन कुम्हलाय।
रामे ओ लखन के दाई रामे आ लखन तेल चढ़त हे
जहवाँ के दियना मोर करय ओ अंजोर
कोन तोर लाने मोर हरदी-सुपारी
कोन तोर लाने काँचा तिलि के तेल
कोन चढ़ावे तोर तन भर हरदी
कोन देवय तोला अँचरा के छांव
फुफु चढ़ावे तोर तनभर हरदी
दाई देवय तोला अँचरा के छाँव
नहडोरी गीत :
वर का तेल उतारने के बाद नहडोरी का नेंग सम्पन्न होता है। उसे वस्त्राभूषण से अलंकृत कर उसके हाथ में कंकन बांधा जाता है-
दे तो दे तो दाई आसी ओ रुपैया
के सुंदरी ला लातेंव ओ बिहाय
के मोर दाई सुंदरी ल लातेंव ओ बिहाय
सुंदरी-सुंदरी बेटा तुम झन रटिहौ ग
के सुंदरी के देस बड़ दूर
के मोर बेटा सुंदरी के देस बड़ दूर
तोर बर लानिहौं दाई रंधनी-परोसनी
के मोर बर घर के सिंगार
के मोर दाई मोर बर घर के सिंगार
मौरसौंपनी :
दूल्हे के माथे पर मौर (मुकुट) बंधा जाता है। कमर में कटार, मुंह में पान का बीड़ा। सूरज की तरह दमकता दूल्हा का चेहरा। महिलाएं मौर सौंप कर दूल्हा को दुल्हन लाने के लिए बिदा करती हैं-
पाँचे ओ अंगुरी म दाई पानी छिटकारे
सउँपव दाई मोर माथे के मउर
पाँचे हाथे म सउंपव चंदा ओ सूरुज ल
पांचे हाथे व सउंपव मोर माथे के मउर
काजर अंजई ले सोने कजरउटी
सउंपव दाई मोर माथे के मउर
नकटा नाच :
बारात प्रस्थान करने के बाद घर में केवल महिलाएं रह जाती हैं। घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं रह जाता। अत: महिलाएं रात्रि में नाना प्रकार का स्वांग नाच-गान करती हंै। पुरुष का वेश धारण कर हास-परिहास और मनो विनोद करती हैं। यह नकटा नाच कहलाता है। यह महिलाओं का आनंदोत्सव है-
उतरो-उतरो सुवना अरछिन-परछिन
फोलो चना कई दारे हो महारंगी सुवा
जीव नैना लड़ा के उडि़ चले
उडि़ चले नई तो भागि चले महारंगी सुवा
नई उतरन हम अरछिन-परछिन
नई फोलन चना कई दारे हो
हमतो उतरबो समधिन के अंगना
समधिन के रस लेबे हो महारंगी सुवा
भड़ौनी गीत :
बारात जब वधु के गाँव पहुँचती है, तब बारातियों का स्वागत किया जाता है। महिलाएं हास-परिहास युक्त भड़ौनी गीत गाकर प्रेम आनंद को अभिव्यक्त करती हैं-
बने-बने तोला जानेंव समधी
मड़वा म डारेंव बाँस रे
जाला-पाला लुगरा लाने
जरगे तोर नाक रे।
दार करे चाँउर करे
लगिन ल धराय रे
बेटा के बिहाव करे
बाजा ल डर्राय रे
मेछा हवय लाम-लाम
मुँह हवय करिया रे
समधी बिचारा का करे
पहिरे हवय फरिया रे।
टिकावन गीत :
मंत्रोच्चार के साथ वर-वधु का पाणिग्रहण सम्पन्न होता है। इस समय कन्या के माँ-बाप द्वारा टिकावन में पचहर (पांच बर्तन) व अन्य सामग्रियाँ दी जाती हैं। स्वजन, परिजन सभी यथाशक्ति टिकावन टिकते हैं-
हलर-हलर मड़वा डोले ओ
अवो दाई खलर-खलर दाईज परे ओ
कोन तोर टिके नोनी अचहर-पचहर
के कोन तोर टिके धेनु गाय
दाई तोर टिके नोनी अचहर-पचहर
के ददा तोर टिके धेनु गाय
कोन तोर टिके नोनी लिलि हंसा घोड़वा
 के कोन तोर टिके कनक थार
भाई तोर टिके नोनी लिलि हंसा घोड़वा
के भऊजी तोर टिके कनक थार
भाँवर गीत :
अग्नि की साक्षी में फेरे पड़ते हैं और दो आत्माएं एक हो जाती हैं। यह नेंग ''भॉवरÓÓ  कहलाता है। महिलाओं द्वारा ''भाँवरÓÓ  गीत गाए जाते हैं-
हलु-हलु पाँव धरौ ओ दुल्हिन नोनी
तुँहर रजवा के अंग झन डोलय वो
हलु-हलु पॉव धरौ हो दूल्हा बाबू
तुँहर रनिया के अंग झन डोलय हो
एक भाँवर एक जुग भइगे वो दुल्हिन नोनी
तुँहर रजवा के अंग झन डोलय ओ।
बिदाई गीत :
बेटी की विदाई का क्षण बड़ा हृदय विदारक होता है। माँ-बाप के हृदय में जहां बेटी के व्याह सम्पन्न होने की खुशी होती हैं, वहीं उसकी पराई होने, दूर जाने का गम होता है। आँखों के कोरों से आँसू छलक  पड़ते हैं। बिदा गीतों के माध्यम से करुणा की अजस्र धारा फूट पड़ती है। सभी सुबक-सुबक कर बेटी को बिदा करते हैं।
अलिन-गलिन म दाई मोर रोवय, दाई मोर रोवय
ददा रोवय मूसर धारे ओ दीदी, ददा रोवय मूसर धार
बहिनी बिचारी लुक-छिप रोवय, लुक छिप रोवय
भाई करे दण्ड पुकार, ओ दीदी भाई करे दण्ड पुकार
अंसुअन तुम झन ढारिहौ बहिनी ढारिहौ बहिनी
सबके दुख बिसराहौ दीदी, सबके दुख बिसराहौं।
मृत्यु संस्कार :
मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है। जो आया है व जाएगा ही। मृत्यु से कोई बच नहीं सकता। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में मृत्यु संस्कार के समय गीत गाए जाने की परम्परा ''कबीर पंथीÓÓ  समुदाय में है। हमारे संत-महात्माओं ने इस शरीर को नश्वर तथा आत्मा को अनश्वर बताया है। इन गीतों में शरीर की क्षणभंगुरता और आत्मा की अनश्वरता का बखान होता है-
बंगला अजब बने रे भाई, बंगला अजब बने रे भाई
ये बंगला के दस दरवाजा, पवन चलावय हंसा
आवत-जावत कोनो नई देखे, ईश्वर कर मनसा।
हाड़ चाम के ईटा बनाए, लहू रकत के लोहा
रोवा केस के छानही बन हे, हंसा रहे सुख सोवा
गजब सुघ्घर बने हे बंगला, ऊपर चाम छाया
हंसा भुलागे इही बंगला म, छोड़ नई हे काया
करे पाप हंसा इहें रहिके, होवय नहीं इही बंगला
अग्नि कुंड म बासा करिहि, होवय नास इही बंगला
रइही अमरपुर में हँसा, करय रात दिन मंगला
बंगला अजब बने रे भाई...
छत्तीसगढ़ी संस्कार गीतों में लोक जीवन की समग्रता समाहित है। लोक जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद, जय-पराजय आदि उसके कंठों से निसृत होने वाले लोकगीतों में स्पष्ट रुप से प्रतिबिम्बित होते हैं। लोकगीत लोकजीवन के लिए संजीवनी का  कार्य करते हैं। एक प्रकार से लोकगीत लोकजीवन के सहचर हैं।
जहां लोकजीवन है वहां लोकगीत है और जहां लोकगीत है वहां लोकजीवन। लोकजीवन में लोक संस्कारों की अपनी अलग ही महत्ता है। ये संस्कार लोकजीवन के आधार स्तंभ हैं। इन लोक संस्कारों में लोकगीतों की परिव्याप्ति है। जन्म संस्कार हो या विवाह संस्कार या फिर मृत्यु संस्कार सब में लोकगीतों का साम्राज्य है। लोकगीतों के बिना लोक का कोई भी कार्य संपादित नहीं होता। अत: ये लोकगीत हमारे संस्कारों के संवाहक हैं और संस्कार जीवन की
अनिवार्यता हैं।
साभार रऊताही 2015

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