Sunday 24 February 2019

छत्तीसगढ़ी लोकगीत एवं सुआ नृत्य

यूँ तो सभी चेतन जगत की अपनी-अपनी भाषा होती है। परन्तु भोगे गये अनुभव अपनी संतति को हस्तांरित कर सके ऐसी समृद्ध भाषा का वरदान विधाता ने मनुष्यों को ही दिया है। आज तक विकसित सभ्यता, संस्कृति के मूल में यही अमोध वर है। लिपि के विकास के पहले भी वाचिक रुप से परंपराएं प्रथाएँ रुढिय़ां मनुष्य को उसके पूर्वजों के अर्जित ज्ञान से परिचित कराती थीं। उसे प्रारंभ से प्रयत्न की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी। बस पूर्व ज्ञान में अगली कडिय़ाँ जुड़ती गई।
एक लंबे समय तक शिष्ट साहित्य के प्रमुख अंग वेद शास्त्र, उपनिषद भी वाचिक रुप में ही अस्तित्व में थे। ये शास्त्र गुरुकुलों में गुरु के द्वारा शिष्यों को कंठस्थ कराये जाते थे। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए 5 वर्ष की आयु से ही बालक को गुरु गृह में रहना पड़ता था। चूंकि मशीनों के आविष्कार प्रारंभिक अवस्था में थे, अत: जीवनोपयोगी सारे कार्य मानव श्रम एवं समय पर आधारित थे। बचपन से ही जीवनोपार्जन में लग जाना आवश्यक था। कृषि कार्य या फिर कृषि में उपयोगी वस्तुओं के निर्माण के कार्य प्रमुख थे। जो लोग अपने बालक से काम न लेकर उसे गुरुकुल भेजने का त्यागपूर्ण निर्णय लेते थे, आमजन में उनका आदर अपने आप बढ़ जाता था। गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त नागरिक अपने आप में ज्ञान का आगार होता था और उसके वाक्य स्वत: प्रमाणिक मानकर जनता उनको अपने आचरण का अंग बनाती थी। प्रति उपकार के रुप में अपने श्रम से अर्जित, अन्न धन में से कुछ दान करती थीं, जिससे पंडित का जीवन आसानी से चल जाता था। समय के साथ-साथ इनमें नई बातें जुड़ती गईं, और उनका आकार क्रमश: समृद्ध होता गया, उनके द्वारा रचित साहित्य कुछ नियमों से आबद्ध हुआ। जिसे शिष्ट साहित्य कहा गया। लिपि के विकास के साथ ये लिखित रुप में आये। टंकनकला के विकास के बाद तो ये सर्वसुलभ होने की स्थिति में आ गये हैं। आधा विश्व कही जानी वाली महिलाएं विभिन्न पारिवारिक, सामाजिक सुरक्षात्मक, कारणों से शिक्षा से दूर रहीं। परन्तु  भावनाएँ तो उनके भी हृदय में थीं। भाषा की शक्ति के साथ संस्कृति के विविध रंग उनके चहुँ ओर बिखेर हुए थे,  उन्होंने अपनी भावनाओं को लोककथाओं, लोकगीतों के रुप में प्रकट किया। निर्बन्ध, स्वतंत्र और कार्य के अनुरुप ये गीत अपने क्षेत्र के सम्पूर्ण संस्कार, संस्कृति, स्थानीय रीति रिवाज के साथ ही व्यक्तिगत सुख-दुख, राग-विराग, वात्सल्य, मिलन, विरह दुख दर्द आदि-आदि स्वयं में समाहित किये समय की अजस्रधारा में बहे जाते हैं।
भारत का हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक जनजाति गोड़ स्त्रियों द्वारा गीत के साथ नाचे जाने वाले सुआ नृत्य एवं गीत का अपना विशिष्ट महत्व है। इसमें इस क्षेत्र की सम्पूर्ण स्त्री समुदाय का भावपक्ष समेकित है। गाया-नाचा भले ही गोड़ स्त्रियों के द्वारा जाता है परन्तु स्वर सम्पूर्ण नारी जाति का होता है।
वर्षा के बाद शुभ शरद ऋतु का आगमन होता है। पंथ पंकविहिन, रातें, चाँद-सितारों से सुसज्जित $िफजा में भीनी-भीनी सी शीतलता, चहुँ ओर धान की खरही, खलिहानों में रौनक, कहीं ट्रेक्टर से मिसाइ हो रही, तो कहीं बैल या भैंसों से। दिन भर खेत खलिहानों में काम करने वाले लोग शाम को जब घर आते हैं तो थकान से अधिक धान घर लाने की प्रसन्नता से भरे होते हैं। शक्ति की पूजा के बाद आता है दीपावली का पर्व, इस दिन अयोध्या के राम तो घर आये ही थे, साथ ही अन्न परमेश्वरी ने भी तो कृषकों के भंडार भर दिये थे।
जनजातियों में अधिकांश त्यौहार व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होते हैं। दीपावली के एक दिन पहले गोड़ लोग बाजा-गाजे के साथ कुम्हार के घर जाते हैं। स्त्रियाँ वहाँ से मिट्टी लाकर गौरी-गौरा का मृतिका विग्रह निर्मित करती हैं। इसके कई दिन पहले से सुआ गीत के साथ सुआ नृत्य प्रारंभ हो चुका होता है। इसमें टोले मोहल्ले की स्त्रियाँ उपलब्ध सामग्री से स्वयं को सजाये, दो पंक्तियों से खड़ी होती हैं। बीच में एक स्त्री एक टुकनी में मिट्टी का तोता, लाल कपड़े से ढांके खड़ी रहती है। वह बीच में बैठकर टुकनी पर से कपड़ा हटा देती है। सुआ के पास ही मिट्टी की दीया जला दिया जाता है। सभी सखियाँ ताली की ताल पर कमर से  झुकती हुई, एक विशेष लय में ताली बजातीं, गोल बना लेतीं हैं। यह गीत तीव्र वेग से गाया जाता है, जैसे दूर ऊंचे पर्वत से गिरता झरना। इन गीतों में स्त्रियों की समग्र भावनाओं का गुंफन होता है। ये जान पहचान, गणमान्य, लोगों के यहाँ नृत्य करती हैं। भेंट में कुछ द्रव्य या अन्न मिलता है, जिन्हें एकत्र कर गउरी-गउरा पूजन में खर्च किया जाता है।
गऊरी, गऊरा पूजन गोड़ों की उत्पत्ति की दंत कथा से संंबंधित है। एक समय शिव-गौरा प्रात: भ्रमण पर निकले, हरित वर्णी कानन विभिन्न वर्णी कंचन कुसुम, निर्मल बहती सरिता देख गउरा का मन स्नान हेतु मचल उठा। स्नानरत गउरा का शरीर सौष्ठव निरख शिवजी पर काम ने अपने बाण चलाये, प्रतिकूल स्थान, समय आदि का विचार करने पर भी वे अपना वीर्य स्खलन रोक न सके।
पार्वती से शिव की शक्ति का व्यर्थ जाना सहन न हुआ, जो कार्य वे देवी (मानवी) बनकर नहीं रह सकती थीं, वह पक्षी बनकर किया। तोते का रुप लेकर उन्होंने अपनी चोंच से भूमि पर गिरे वीर्य का पान कर लिया। फलस्वरुप उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए। बड़े होने पर उन्होंने माता से अपने पिता का नाम पूछा तब उन्होंने कहा- कल प्रात: तुम्हें जिस पुरुष के सर्वप्रथम दर्शन हों, उसे ही अपना पिता समझ लेना। जब वे दूसरे दिन निकले तो सबसे पहले शंकर भगवान के दर्शन हुए। यही गोड़ों के आदि पुरुष थे, दोनों भाइयों से गोड़ों की दो शाखाओं का विकास हुआ। गउरी-गउरा पूजन एवं उनका विवाह दोनों में प्रचलित है। गोडिऩे सुआ को पार्वती का रूप मानकर आदि शक्ति को अपने सारे सुख-दुख बताती हैं। मध्यकाल में स्त्री जीवन अनेक बंधनों में जकड़ा हुआ था, उसे सहज अभिव्यक्ति  की आजादी भी नहीं थी। चुप रहकर सारे दु:ख दर्द, अत्याचार, शोषण सह लेने वाली स्त्री ही आदर्श मानी जाती रही है। अपनी बात कहने वाली को वाचाल, लपरही आदि कहकर निन्दित किया जाता रहा है। संभवत: खेतों में श्रम करते, उनकी भेंट इस सुन्दर पक्षी से होती होगी, इसे सुरक्षित माध्यम मानकर सारी बातें उसके माध्यम से ही व्यक्त करना उचित लगा होगा।
सुआ गीत-
साथ-साथ तरी हरी नाना मोरे सुअना, तरी हरी नाना के सम्पुट से गाया जाता है।
दिन भर बारी में मेहनत करने के बाद भी मद्यपान के कारण पति को माता के क्रोध का सामना करना पड़ता है। घर बाहर पति के कार्यों में कंधे से  कंधा मिलाकर श्रम करने वाली गोंड़ महिला अपने पति से बहुत प्यार करती है- वह सास से प्रार्थना करती है
मोडि़ मोडि़ के अंगठी
मैं भांटा लगायेंव, मोर सुआ
झन गारी देबे, दाई तैं मातैं जँवरिहा ला झन
गारी देबे...
वह सुआ के माध्यम से अपनी सास से विनय करती है। माँ, दिन भर अंगुलियाँ मोड़-मोड़कर हमने बारी में भांटा, मिरचा, टमाटर आदि लगाया है। क्या हुआ यदि इसने शराब पी ली। अब तो यह नशे में है इस पर क्रोध मत करो इसे गाली मत दो।
इस गीत में स्त्री की श्रम शीलता एवं सहिष्णुता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।
छत्तीसगढ़ कृषि संस्कृति वाला प्रदेश है, जीवन कृषि के ही आस-पास घूमता है, इस गीत में देखिये-
तरी हरी नाना रे सुआ भाई तरी हरी नाना रे ना,
नावा विहाव करेंव नवा भौजी नानेव ओ नवा भौजी नाने,
मोर सुआ मुचुर-मुचुर मुस्काए नारे
तरी हरी...।
भइया धरे नाँगर भौजाई धरे बिजहा
ओरी ओरी जोनधरा बोआये ना रे सुअना
तरी हरी नाना मोर
मैंने अभी-अभी अपने भाई की शादी की है, नई भाभी घर में मुस्कराने लगी है। मेरे भइया हाथ में नाँगर (हल) रखते हैं, भाभी बीज डालती है। भइया हल जोतकर ज्वार बोते हैं भाभी उसकी रखवाली करती है, और जब ज्वार की बालियों में दाने पड़ते हैं, तब तुम उसे अपनी चोंच से ठुनक-ठुनक कर खा जाते हो। इतने परिश्रम से उपजे, ज्वार को खाने का क्या हक है तुम्हारा? सुआ गीत के  माध्यम से युवा होती किशोरी को नैतिक शिक्षा देने के उद्देश्य से रचित यह सुआ गीत भी देखिए-
तरी हरी नाना.. मोर नाना सुआ मोर, तरी हरी नाना न मोर
फूलपारा जाबैं तैं मंदिर पारा जाबे सुआ मोर...ऽऽ
सेठ पारा झंनि जाबे सुआ मोर...पेठ पारा झनि जाबे
सेठ टुरा हे बदन एक मोहनी बदन एक मोहनी रे सुआ मोर...
कपड़ा म राखे लोभाय ना रे सुआ मोर...
राऊत टुरा हे बदन एक मोहनी बदन एक मोहनी से सुआ मोर
दूध म राखे लोभाय न रे सुआ मोर
से सुआ! गाँव में फूलपारा और मंदिरा पारा घूम लेना वे सुरक्षित हैं। परन्तु सेठ पारा मत जाना क्योंकि सेठ पुत्र बड़ा ही मनमोहक युवक है, अपने कपड़े लत्ते दिखाकर तुम्हें प्रलोभन में फंसा सकता है।
राउत पारा भी मत जाना राउत पुत्र बड़ा ही रसिया है दूध दही खिलाकर तुम्हें अपने प्रेम जाल में फांस सकता है।
इस गीत में सुआ के बहाने कुमारी कन्याओं को अपनी शील रक्षा के प्रति सतर्क रहने की शिक्षा दी गई है।
एक अन्य गीत देखिये-
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ रे, तरी हरी नाना मोर ना
एड़ी बिछल गे गगरा ह गिरगे,
सासो ननद गारी देथे रे सुआ मोर सासो ननद गारी देथे,
खेलत-खेलत आवे कुंवर कन्हैया ओ कुँअर कन्हैया मोर सुआ हो
गगरा बेसाही लेई आय, मोर सुआ हो गगरा बेसही लेई आय।
ना रे सुआ मोर गगरा...
इस गीत में दाम्पत्य प्रेम के साथ ही पत्नी की सुरक्षा का दायित्व निर्वहन करते पति की छवि उभर कर आती है। युवती सुआ  से कहती है- हे सुआ मेरी एड़ी फिसल गई, जिसके कारण गगरा गिर कर टूट गया, अब तो सास नंनद का क्रोध फूट पड़ा, इतने में कुंअर कन्हाई (पति) बाहर से खेलकर आये, उन्होंने नया गगरा खरीद कर ला दिया। जिससे सास नंनद की नाराजगी दूर हो गई। इसमें इस जनजाति की जीवन शैली की हल्की सी झलक मिलती है- स्त्रियाँ, पानी, लकड़ी, अनाज, साग-सब्जी खेत खार में काम करती हैं और पुरुष मनो विनोद में समय व्यतीत करती हैं।
एक अन्य बिंब देखिए-
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ मोरो समुन्दर के लहरा हे, चन्दन काठ के चउकी हे
जेमा उगरी नहाय, लहरा हे मोर... समुन्दर के
ईंटा कटइले मोर चउरा बेनइले मोरे समुन्दर के लहरा हे...
अर्थात- समुद्र की लहर में गउरी चंदन की चौकी पर बैठकर नहाती है। सुआ! ईंटा कटाकर चबूतरा बना दो ताकि गउरी आराम से समुद्र स्नान कर सकें। यूँ तो छत्तीसगढ़ में समुद्र नहीं है। परन्तु लगे हुए राज्य उडि़सा में समुद्र है। अवश्य गीत बनाने वाले ने या तो लहरों को देखा होगा या किसी से सुना होगा।
सुआ को संबोधित करता गीत....
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ मोर तरी हरी हरी नाना मोर ना
जादू कइसे मारे रे मोर सुआ जादू कइसे मारे?
बर तरी बरस पीपर तरी देवता
वाह रे सुआ जादू कइसे मारे रे मोर सुआ जादू
ग्रामीण परिवेश का जीवन्त चित्रण बड़ के नीचे बरम बाबा का स्थान है पीपल के नीचे देवता का। ये सब हमारी रक्षा करते हैं, फिर भी हे सुआ तुम्हारे सुन्दर रुप ने मुझ पर कैसे जादू चला दिया। यौवन की दहलीज पर पाँव रखती युवती के मन की मुग्धावस्था का सरल सरल वर्णन है।
एक अन्य गीत-
तरी हरी नाना मोरे सुआ तरी हरी नाना मोर ना...
डोला रे डोला चाँदी के डोला
महानदी  म उतर गे दानी के डोला- तरी हरी नाना...
इस गीत में सुआ के बहाने दान की महिमा का वर्णन किया गया है।
चाँदी की डोली में यात्रा करने वाले दानी का डोला महानदी में उतर जाता है। अर्थात् दान से असंभव कार्य भी संभव होते हैं। दानी को मोक्ष की प्राप्ति होती है। हास परिहास के भाव से भी सुआ गीत अछूता नहीं है-
छ: सात भइसा बंधे रस्सी डोर म
ऐ बढ़े भइया अकल नईं ये तोर म..
बड़े प्यार से शक्तिशाली नासमझ पर निशाना साधा जाता है, सुआ के माध्यम से।
सुआ नाचने का मौसम आया नई किशोरियों के मन में भाव का समुद्र हिलोरें लेने लगता है, वे अपने अंगों को सजाने के लिए अपनी माँ से उसके वस्त्राभूषण माँगती है-
दे तो दाई झाँपी के लुगरा ला...
कहाँ जाबे...
सुआ नाचे... सुआ नाचे...
नारी हृदय की विरह वेदना का निदर्शन कराता यह सुआ गीत-
तरी हरी नाना ना मोर ना
चोंच तोर दिखत हावे लाली-लाली कुंदुर ने सुअना
आंखी दिखै मसुरी के दार नारे सुअना
जोन्हरी के पान साहि देना सम्हारे रे सुअना ले ई
जाबे तिरिया संदेश
सासु मोरी मारे ननद गारी देथे रे सुअना
जिंउरा म लागत हावै बान
लहुरा देवर मोरे जनम के बैरी रे सुअना
सइयां  मोरे गइन्हें विदेश न रे सुअना...
रइगढ़ नहक बे सरंगढ़ नहकबे रे सुअना
नहक जाबे रइपुर रइकेस न। रे सुअना नहक
उहाँ ले जाबे तैं रइया रतनपुर रे सुअना
उन्हें हावे सइयां हमार नारे सुआना...
उपरोक्त गीत में पारिवारिक परिस्थतियों के साथ ही विरहिणी के मनोगत भावों के भी दिग्दर्शन होते हैं। पति परदेशी हैं मन वैसे भी व्याकुल है, इधर सास ननद परेशान करती हैं। वह सुआ के रुप की प्रशंसा करते हुए निवेदन करती है, हे सुआ तुम्हारी चोंच पके हुए लाल-लाल कुंदरु जैसी और आँखों मसूर की दाल जैसी हैं। ज्वार के हरे हरे पत्तों जैसे तुम्हारे पंख हैं, तुम मेरा संदेश मेरे पति तक पहुँचा देना, पहले रायगढ़ फिर सारंगढ़ जाना रायपुर होते हुए रतनपुर पहुँचना, वहीं मेरे पति रहते हैं। तुम उनसे मेरी स्थिति का वर्णन करना और शीघ्र घर वापस आने की बात भी कह देना।
कई सुआ गीत स्फुट दोहों के जैसे होते हैं, जो तरी हरी नाना के संयोजन के द्वारा जुड़ते चले जाते हैं-
जैसे- तरी हरी नाना रे नाना सुआ मोर तरी
कोलकी के लाली भाजी लाली बइला खागे
देख तो परोसिन दीदी, मारे ला कुदाथे। तरी हरी नाना रे.
नाना रे ... नाना सुआ मोर
काँसे के लोटा कुंआ म गिरगे,
रानी दुरपति जुआ म हारी गे, मोर सुआ रे तरी हरी नानारे
पहले दोहे में- बाड़ी की लाल भाजी बैल चर जाता है, उसकी लापरवाही से क्षुब्ध पति मारने दौड़ाता है तब वह पड़ोसिन को अपनी रक्षा हेतु दीदी कहकर पुकार लेती है। इस दोहे में टोले मोहल्ले में जो एक पारिवारिक वातावरण रहता है उसका स्वाभाविक दर्शन होता है। दूसरे दोहे में पुराण में वर्णित पाण्डवों के द्वारा द्रोपदी को जुएं में हार जाने का उल्लेख है। प्राकान्तर से दीपावली के समय जुआ खेलने वालों को जुएं में परिणाम का स्मरण दिलाकर सतर्क करना ही मुख्य उद्देश्य है। इस प्रकार और भी हजारों सुआ गीत है जो गागर में सागर की तरह लोक संस्कृति को समेटे हुए हैं।
दीपावली के दूसरे दिन गउरी-गउरा का विसर्जन होता है। विवाह की सारी रस्में यथा बारात का स्वागत, भोजन टीकावन, पंवपूजी, कन्यादान आदि करने के बाद बेटी के विदा का समय आता है सारा गाँव गउरी के विछोह में आँसू बहाता है। माँदर, ढोल, मंजीरे, की मादक धुन के साथ सभी लोग सिर पर गउरी गउरा लिए चलती स्त्री के पीछे पीछे किसी नदी या सरोवर तक जाते हैं। वहाँ विग्रह का विसर्जन होता है।
छेरछेरा के समय भी सुआ नाचा जाता है। अब तो लोककला के रुप में सुआगीत एवं नृत्य बड़े समारोहों में स्थान बनाता जा रहा है। आधुनिक युग में दक्ष गायिकाओं के द्वारा गाए माँदर, ढोल, झांझ, मंजीरे एवं बाँसुरी के साथ सुआ गीत के कैसेट बहुत बड़ी मात्रा में बिकते हैं। इन्हें गाकर भी वर्तमान में नचकहारिनें नृत्य करती हैं। इससे इनका आनंद बहुगुणित होकर दर्शकों को भाव विभोर कर देता है।
रऊताही 2015

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