Sunday 24 February 2019

लोकगीतों में रस-व्यंजना

लोकगीतों में रस-परिपाक की दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें रस का अद्वितीय सागर हिलोंरे लेता हुआ परिलक्षित होता है। जन समुदाय के ये गीत रस से सने हुए हैं। इन गीतों की रसात्मकता के समक्ष बड़े-बड़े कवियों की सूक्तियां नीरस जान पड़ती हैं। ये लोकगीत रस से लबालब भरे हुए प्याले की भाँति होते हैं जिनके पीने से प्यास बूझने के बजाय और अधिक बढ़ती जाती है। रस की यह प्रक्रिया हिन्दी के लोकगीतों तक ही सीमित नहीं  है, अपितु बंगला एवं सभी प्रदेशों के लोकगीतों में यही रस का प्रवाह परिलक्षित होता है। लोकगीतों की अजस्र पयस्वनी जिस देश में प्रवाहित होती है, वह अपने तट पर स्थित वृक्षों को ही जीवन प्रदान नहीं करती, अपितु उसका शीतल प्रवाह सभी जनों को समान रुप से आनंद प्रदान करता है। अपनी इसी रसात्मकता के कारण ही लोक जीवन से संबंधित ये गीत मानव हृदय को इतना उत्प्रेरित करते हैं कि शुष्क हृदय भी इनको एक बार सुनकर द्रवित हुए बिना नहीं रहता है।
लोकगीतों में नारी जीवन का चित्र विशेष रुप से देखने को मिलता है। एक अबला जीवन की करुण कहानी सोहर, बारहमासा, कजली, झूमर में परिलक्षित होती है। इसी संदर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां हमारे मानस-सागर में हिलोरें लेने लगती है।
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आँखों में पानी।।
पुत्र या पुत्री के जन्मोत्सव से लेकर गौना के गीतों तक स्त्री जीवन की किसी न किसी दशा का वर्णन इनमें उपलब्ध होता ही है, यों तो लोकगीतों में समस्त रसों का परिपाक दृष्टिगत होता है। वैवाहिक प्रसंगों के अंतर्गत हास्यरस का भी सम्मिश्रण रहता है। आल्हा-उदल से संबंधित लोकगीतों में वीर रस की प्रचुरता विद्यमान रहती है। सोरठी की कथा में अद्भुत रस निहित रहता है।
इस परिपाक की दृष्टि से लोकगीतों में सर्वाधिक श्रृंगार रस से संबंधित इतिवृत्त वर्णित किये जाते हैं। पे्रमी-प्रेमिका के मिलन एवं विछोह दोनों ही स्थितियों का चित्रण श्रृंगार का वण्र्य-विषय होता है। रसिक समाज  को यह भलीभाँति ज्ञात है कि श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं। प्रथम संयोग श्रृंगार है तो दूसरा वियोग श्रृंगार। फलत: इसी के अनुरुप लोकगीतों में भी हमें श्रृंगार के दोनों पक्ष देखने को मिलते हैं। रीतिकालीन कवियों और लोकगीतकारों के गीतों में प्रयुक्त श्रृंगार रस में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। लोकगीतों में जो श्रृंगार रस पाया जाता है, वह नितांत पवित्र संयमित शुद्ध एवं दिव्यता की पराकाष्ठा है, जबकि रीतिकालीन कवियों के काव्य में श्रृंगार रस को भद्दा, अश्लील एवं कुरुचिपूर्ण प्रदर्शन किया गया है। इसका मुख्यत: कारण यही है कि रीतिकाल के कवि लोग राज्याश्रित कवि होते थे। अत: उन्हें अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगारिक कविताओं की रचना करनी पड़ती थी। इसलिए उनमें श्रृंगारिकता का होना आवश्यक था जबकि लोकगीत स्वान्त: सुखाय ही लिखे जाते हैं।
लोकगीतों में श्रृंगार रस का स्वरुप हमें  ''सोहरÓÓ अथवा विवाह के गीतों में देखने को मिलता है। जिस प्रकार से महाकवि कालिदास ने रघुवंशम में गर्भवती सुदक्षिणा का वर्णन किया है, ठीक उसी प्रकार का वर्णन हमें लोकगीतों में भी देखने को मिलता है। गर्भवती स्त्री की देहयष्टि, दोहद तथा प्रसव के कष्टों का उल्लेख स्थान स्थान पर देखने को मिलता है। अधोलिखित गीत में एक गर्भवती स्त्री का सजीव चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया गया है-
सुपली खेलत तुहु ननदी, मोर पियारी ननदी रे।
ए ननदी आयन भइया देई बोलाई,
हम दरद बेआकुल रे
जुववा खेलत तुहु, भइया, अबस वीरन भइया हो
ए भइया प्रानप्यारी भउजी हमार
दरद से व्याकुल हो।
डांड मोर नथेला गाहा गहि, कहार मोर टनकेला हो।
ए प्रभु पिरिथवी मोरे सुझेली अलोपित
अंगुरी में दम बसे हो।
पुत्रोत्पत्ति के अवसर पर आनन्द और उत्साह का उल्लेख प्राय: सभी गीतों में परिलक्षित होता है। इसी अवसर पर सास रुपया लुटाती है ननद ब्राह्मणों को मुहर दान में देती है। अन्य स्त्रियाँ बन्धु-बान्धवों को अन्य वस्तुएं लुटा देती हैं। इन सभी स्वरुपों से युक्त गीत की पंक्तियाँ दर्शनीय है-
सासु जे आवेली गवइत, ननदी बजवइत रे
ललना गोतिनि आवेली विसाधल
गोतिन के घर सोहर रे
सासु लुटावेलि रुपैया
त ननदी मोहरवा रे
ललना गोतिनि लुटावे ली बनउरवा
गोतिनियां फेरिहे पाँइच रे
वैवाहिक गीतों में श्रृंगार रस का आनन्द अत्यधिक मात्रा में मिलता है। विवाह के बाद जब वर को ''कोहबरÓÓ में ले जाते हैं तब उस समय के गीत अधिक श्रृंगारिक हो जाते हैं। लेकिन श्रृंगारिक होने के बावजूद भी उनमें अश्लीलता एवं भद्दापन रंचमात्र भी नहीं झलकने पाता है-
झोप झोपरी रे फरेला सोपारी,
तर नरियरवा के बारी
कंचन सेज डसावेली कवन देई
केहूँ न आवेला केहू जाई।
धावत धूपत अइले कबन राम
मोहर दे गइले साई
आधी राति जानि अहइ मोरे राजा हो,
हम रउरा करब लेटाई।
निचवा रजाई रे उपरा बोलाई
ताहि बीचे हो खेला लटाई
अहो लाल ताहि बीचे खेला हो लटाई।
यद्यपि यह वर्णन संयोग श्रृंगार से संबंधित है, तथापि इसमें अश्लीलता कहीं नहीं है। यह अत्यंत शिष्ट और संयमित है।
करुणरस की अभिव्यक्ति परिस्थितिजन्य होती है। यह रस विशेष परिस्थिति में निष्पन्न होता है। जब कोई व्यक्ति भावावेश से पूर्ण होता है तो वही किसी व्यक्ति के पूछने पर फफक कर रोने लगता है। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ''साकेतÓÓ के नवम सर्ग में कहा है कि
करुणे क्यों रोती है तू
उत्तर में तू और अधिक है रोई।
जब कभी किसी प्रिय जन का अभाव किसी को अखरने लगता है तब उसकी भावनाओं में कारुण्य परिलक्षित होने लगता है। लोकगीतों में भी करुणरस का उदे्रक सघन मात्रा में उपलब्ध होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों  होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों पर विशेष रुप से देखने को मिलती है-
1. विदाई
2. वियोग
और 3. वैधव्य
उपर्युक्त तीनों अवसरों पर सुखमय जीवन का अवसान होने लगता है तथा दु:ख का नवीन अध्याय प्रारंभ हो जाता है। जीवन के बसन्त में अचानक पतझड़ का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। यह अवसर स्त्रियों के हृदय पर गहरी चोट करने के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार के करुण गीतों को सुनकर किसका हृदय द्रवीभूत न होगा।
पुत्री जब अपने मायके से पति के घर जाती है तो उस समय विदाई का जो कारुणिक दृश्य उपस्थित होता है, उसका वर्णन वाणी के माध्यम से करना असम्भव है। पितृगृह के लाड-प्यार की स्मृतियाँ उसके हृदय को मसोसने लगती हैं। उसका भाव विह्ल हृदय आँसुओं के माध्यम से बह निकलता है। ऐसे अवसर पर धैर्यवान व्यक्तियों की आँखें भी नम हो जाती हैं। महाकवि कालिदास ने शकुंतला की विदाई के अवसर पर महर्षि कण्व के मुख से जिस प्रकार के हृदयोद्गार को व्यक्त कराया गया है, वह काव्य की अमूल्य धरोहर है।
लोकगीतों में पुत्री की विदाई के अवसर पर माता-पिता के रोदन का पारावार उमड़ पड़ता है। उन लोगों के रोदन से गंगा में बाढ़ आ जाती है। माता के रोदन से उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। भाई के रोदन से उसकी धोती और चरण तक भींग गये हंै, परन्तु भावज की आँखें गीली भी नहीं हुई हैं। इस परिवारिक स्थिति का करुण चित्रण अवलोकनीय है-
बाबा के रोवल गंगा बढि़ अइली
 आमा के रोवले अनोर
भइया के रोवले चरण धोती भीजै
भउजी नयनवा न लोर।
लोकगीतों में करुण रस की अभिव्यक्ति प्रिय वियोग के अवसर पर अत्यधिक मार्मिक हो जाती है। निम्नलिखित भोजपुरी में प्रेषितपतिका का नायिका अपनी दयनीय दशा को दर्शाती हुई कहती है कि-
धरावा रोवे धरिनि ए लोभियी,
बाहरवा राग हरिनवा
दाहारवा रोवे चाकवा चकइया
बिछोहवा कइले निखामोहिया।
लोकगीतों में पति को भौंरे के प्रतीक के रुप में चित्रित किया गया है, जो एक पुष्प के मकरन्द का पान करने के अंतर अन्य पुष्प से संबंध स्थापित करने चला जाता है। इसी आशंका से ग्रस्त स्त्री अपने पति से कहती है कि-
आजु के गइल भँवरा, कहिया ले लवटब
कतेक दिनवाँ हम जोहिब तोरि बटिया।
एक बन गइलीं दोसर बन गइली,
तीसरे बनवाँ मिलन गोरु चरवहवा।
गोरु चरवहवा तुही मोर भइया,
कतहू देखत ना, मोर भँवरवा परदेसिया।
इस गीत में वियोगिनी की व्याकुलता देखने योग्य है। प्रियतम की खोज में विरहिणी घर की सीमा तोड़कर बाहर निकल पड़ती है। अपने प्राणप्रिय को वन-वन खोजती है लेकिन कहीं पता नहीं चलता। ऐसी वियोगिनी की पीड़ा असह्य हो जाती है जो केवल अनुभवगम्य है।
वैधव्य के गीतों में करुणरस अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। बाल-विधवाओं में कितना भोलापन भरा है जो अपने विवाह जैसी अजनबी चीज को जानती ही नहीं। उसकी दर्दभरी आहों से किसका हृदय विदीर्ण नहीं हो जाएगा। इनके गीतों में बड़ी तीव्र वेदना समाई हुई है। एक भोली-भाली बाल विधवा अपने पिता से लिपट कर रोती हुई पूछती है-
बाबा सिर मोरा रोवेला सेनुर बिनु
नयना कजरवा बिनु ए राम।
बाबा गोद मेरा रोवेला बालक बिनु
सेजिमा कन्हइया बिनु ए राम।
इसी प्रकार वैधव्यजनित अनेक गीतों में मार्मिक वेदना भरी पड़ी है जो कि परिस्थितिवश हुआ करती है।
लोकगीतों में शांत रस का परिपाक भी अपने भव्यतम रुप में दिखाई पड़ता है। भजनों में ऐहिक जीवन की नि:सारता और पारलौकिक जीवन की महत्ता प्रतिपादित की गई है। स्त्रियों की कामना के दो ही केन्द्र बिन्दु हैं- माँग और कोख अर्थात पति और पुत्र। इन दोनों के कल्याण के लिए वह अनेक देवी-देवताओं से मंगल की कामना किया करती हैं। इन देवियों में प्रमुख देवी षष्ठी माता (छठ माई) हैं जिनकी पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भोजपुरी प्रदेश में बड़े ही उमंग और उत्साह के साथ ही जाती है। कोई वन्ध्या स्त्री छठमाता से पुत्र की कामना करती हुई कहती है-
ए आमा के कोख पइसि सुते ले अदितमल
मोरे हो गइले बिहान
आरे हाली हाली उग ए अदितमल अरघ दिआऊ
फलवा फुलवा ले मालिनी बिटि ठाढ़
गोड़वा दु:खद तेरे, डांडवा पिरइले,
कब से जे हम बानी ठाढ़।
भजनों में शांत रस की प्रबलता परिलक्षित होती है। इसमें जीवन की अनित्यता और वैभव की क्षणभंगुरता का सुंदर प्रतिपादन मिलता है। लोकगीतों में हास्यरस का भी पुट देखने को मिलता है। यह आश्चर्य की बात है कि इन गीतों में ग्रामीण हास्य होते हुए भी ग्राम्यता नहीं है। वैवाहिक अवसरों पर ससुराल में वर एवं वधू के साथ जो हास-परिहास किया जाता है वह मधुर और विशुद्ध होता है। कहीं-कहीं इन गीतों में व्यंग्य इतना चुटीला होता है कि पाठक के हृदय पर उसका अमिट प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
भगवान शिव के विवाह के अवसर पर पार्वती की माता शिव की विचित्र तथा वीभत्स आकृति को देखकर डर जाती हैं और कहती हैं
धिया ले के उड़वी धिया के बुड़वी
धिया लेके खिलबो पाताल।
अइसन तपसिया के गउरा नाही देबो
बलु गउरा रहिहैं कुँआरि।
पार्वती अपनी माता से शिवजी की हुलिया का बखान करती है, जिसे सुनकर कोई भी व्यक्ति अपनी हँसी को रोकने में असमर्थ हो जाता है-
सूप अइसन दहिया ए आमा, बरघ अस आँखी।
उहे तपेसिया ए आसा, हमे भइल माई।
भँगिया विसत  ए आमा, जिया अकुलाई
धतुरा के गोलिया ए आमा, हथवा रे खिआई।
ऐसे हास्यपूर्ण चित्रण में हमारे लोकगीतकारों ने अपनी भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत प्रदर्शन किया है।
जगनिक की अमर कृति ''परमाररासोÓÓ वीररस से संबंधित प्रसिद्ध लोककाव्य  है। आम जनमानस में यह कृति ''आल्हखंडÓÓ के नाम से प्रसिद्ध है। आल्हा का गायन करने वाले अल्हैत कहें जाते हैं। ये लोग जब आल्हा का सस्वर पाठ करते हैं, तब वृद्धों के हृदय में भी जोश हिलोरें लेने लगता है और उनके भुजदण्ड फड़कने लगते हैं तो युवा वर्ग की बात ही निराली है। जनकवि जगनिक द्वारा रचित ''आल्हखंडÓÓ आदिकालीन लोकगीत ही है। सिरसा गढ़ की लड़ाई का निम्नलिखित वर्णन दर्शनीय है जिसमें गाढ़बन्धता लाने के लिए कवि ने प्रसंगानुकूल उपयुक्त शब्दों का चयन किया है-
दोनों फौजन के अन्तर में, रहि गयो तीन पैग मैदान।
खट खट तेगा बाजन लागे, जूझन लगे अनेकन ज्वान।
बढ़े सिपाही दोनों दल के, सबके मारु मारु रटि लाग।
पैदल अभिर गये पैदल संग औ असवारन ते असवार।
हौदा के संग हौदा मिलि गये, हाथ्रि अड़ी दांत से दांत।
सूडि़ लपेटा हाथी होइगे और बहि चली रकत की धार।
प्रसिद्ध वीर कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह ने भोजपुरी वीरकाव्य का सृजन किया है। सन् 1857 के विद्रोही नेता वीर कुंवर सिंह का वर्णन उन्होंने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में किया है। अंग्रेजों के साथ कुंवर सिंह ने बड़े पराक्रम के साथ युद्ध किया और युद्धस्थल शत्रु के रक्त से लाल हो गया था-
छंद-छंद गोरन के काटि चलल
रनभूमि रकत से पाटि चलल।
सन् 1942 ई. में अंग्रेजों द्वारा पूर्वी उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद में जो अत्याचार किये थे उसका सजीव स्वरुप कवि के द्वारा आधोलिखित रुप में व्यंजित कराया गया है-
सड़कन डालन से पाटि पाटि,
पूलन से दिहली काटि काटि।
तहसील खजाना लूट फूँकि,
अगवढि़ दिहनी तनख्वाह बाटि।
अपना खूनन से सींच सींच,
गड़ली हम झंडा जिला बीच।
गूंजल हमार जब विजय घोष,
आइल तब नेदर सोल नीच।
इस दृष्टान्त से यह अवश्य ही ज्ञात होता है कि कवि ने ओजस्वी भाषा का सहारा लेकर वीररस से अभिमंडित एक नहीं अनेक वीरगीतों का सृजन किया है। उनके ये गीत लोकसाहित्य की अक्षय्य निधि हैं।
उपर्युक्त रसों की पूर्ण व्यंजना के साथ लोकगीतों में अन्य रसों का भी सुंदर मंजुल परिपाक मिलता है। रस व्यंजना से परिपूर्ण ये गीत हृदय तंत्री को झंकृत कर देने में पूर्ण समर्थ हैं। लोककवियों ने लोकगीतों में विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति करते हुए लोकसाहित्य को समृद्ध किया है। इन लोककवियों की रससंवेदना साहित्य की अनुपम धरोहर है। लोकगीतों में व्यंजित रसों की आस्वादकता शिष्ट साहित्य की रस व्यंजना से कथमपि न्यून नहीं है। जीवन के अनुभवों का यह रागात्मक अभिव्यंजन है। लोकगीत रस के निर्झर है। लोकगीतों स्वत: स्फूर्त भावोच्छ्वासों का सहज व सरल, अकृत्रिम एवं सगीतपूर्ण उद्गार है। यह लोक समाज का रसोद्वेग है। इन लोक गीतों की रसानुभूति में दुनिया को विश्रान्ति मिलती है। सहज रसात्मकता, स्वाभाविकता तथा स्पष्टता इन गीतों का प्राणतत्व है। यह रस-सरिता में निमज्जित करने वाली भावधारा है। गेयता तथा संगीतात्मकता इसकी रसमयी संप्रेषणीयता की मूल शक्ति है। लोकगीत अजातशत्रु हैं, अपराजेय है। कालचक्र भी इनके समक्ष नतमस्तक है।
साभार - रउताही 2015

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