Sunday 24 February 2019

लोरी गीत और चंदा मामा

माँ की ममता और वत्सलता के प्रतीकार्थ प्रयुक्त ये लोकगीत शिशु के क्रमिक विकास के लिए पालन-पोषण के साथ संस्कार-संयोजन में भी सहायक सिद्ध होते हैं। सोते-जागते, घर और बाहर की दिनचर्या को निपटाते माता शिशु को एक पल के लिए भी तन और अंतर्मन से ओझल होने नहीं देती। लोरी के माध्यम से वह बच्चे की देख-रेख भी कर लेती है और गृहिणी के साथ आजीविका के निर्वाह हेतु श्रमसाध्य कर्म को भी संपादित कर लेती है। लोरी- लोकगीतों में लय का लालित्य ही महत्वपूर्ण होता है, इसलिए ध्वन्यात्मक शब्दों के समानांतर माँ की ममता से नि:सृत भावावेग से संपृक्त अटपटे-अजूबे स्फुट शब्दों की प्रचुरता होती है लेकिन जहाँ शब्द भी उल्लेखनीय हो जाते हैं, वहां वत्सलता सजीव हो उठती है। शिशुओं के व्यक्तित्व-विकास का वितान विनिर्मित करने वाले ये लोरी-लोकगीत अबूझ शब्दों को उपयुक्त लय और तुक प्रदान करके,  रोचकता के प्रवाह द्वारा कल्पना और यथार्थ का सुंदर सामंजस्य स्थापित करते हैं।
संतान सुख से संचरित संवेदना माँ की ममता का आवेग पाकर अभाव में भाव, कुंठाग्रस्त तंतुओं में पिघलाव और बेसुरे जीवन में बहलाव ढूंढ लेता है। यही कारण है कि मैली-कुचली और फटे-चिथड़ों में भी वह शिशु को पाकर छैल-छबीली यशोदा बन जाती है। इस यशोदा के पास कृष्ण को झुलाने के लिए कृत्रिम और मूल्यवान पालना न सही लेकिन पैरों के स्पंदन का प्राकृतिक पालना जरुर है। वह पैरों, घुटनों, हाथों और बाहों से झूले के विविध थाप देकर सुलाने और जनरंजन करने की युक्ति से सुपरिचित है। उसके पास श्लोक की समृद्ध परंपरा न हो लेकिन भाव-लोक की अकूत संपदा अवश्य है जिसके सहारे वह शिशु को लोरी की थपकी देती हैं।
बालक का मन मिट्टी की तरह कच्चा, लचीला, निराकार और बेडौल होता है। उसे पक्का, सख्त, साकार और सुडौल बनाने का कार्य माँ की ममता के रुप में लोरी लोकगीत पूर्ण करते हैं। यह एक साथ माँ की तरह वात्सल्यपूर्ण संस्कार, पिता की तरह उपदेशपूर्ण व्यवहार और गुरु की तरह शिक्षा-दीक्षा का आचार संजोता है। इस तरह यही लोरी लोकगीत क्रमश: विकसित होकर बाल-लोकगीत के रुप में सही-गलत के समीकरण की सीख, न्याय-अन्याय को निर्दिष्ट करने की तमीज और हृदयगत भावनाओं को बुद्धि से कसने की तासीर देता है। इस तरह समीक्षकों की दृष्टि से पाश्र्व में प्रस्थित यह लोकगीत माँ की ममतामयी छाया, अभिभावक की अभिनिर्देशित काया और ज्ञान-प्रदाता गुरु की अलौकिक माया भी प्रतीत होती है। मामा के  रुप में उपस्थित होकर इन लोरियों में जहाँ शिशु को प्रकृति से संबंध जोडऩे का संस्कार देता है, वहीं उनकी अनेकानेक समस्याओं का निदान भी सहज कर देता है। शिशु भोजन-ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है। माँ उसे मनाते-मनाते थक जाती है। उसके हाथ में भोजन की थाली है। उसे यह भय  भी सता रहा कि भूखा बच्चा सो न जाए फिर गर्म दूध भात भी क्रमश: ठंडा होने जा रहा है। वह चंदा को भाई निर्दिष्ट करके और शिशु से मामा का नाता जोड़कर के दूध-भात का एक ग्रास बनाकर चंदा की ओर बढ़ाती हुई गीतोच्चार करती है-
चंदा मामा आवनी
दूध-भात लावनी
मोर बेटा के मुँह में-गुट ले
(हे चंदा मामा! तुम सन्निकट आओ और दूध-भात को ग्रहण करो। ऐसा करते हुए वह अनुभव करती है कि बच्चे का मुँह खुल जाता है और वह ग्रास उसके मुख में डाल देती है।)
इसी तरह जितनी बार वह इस क्रिया को लोकगीत के माध्यम से दोहराती है, शिशु आश्चर्य से उसे सुनता-गुनता और उस धुन में विधुन होकर ग्रास को क्रमश: गुटकता है। गीत- समाप्त होते ही शिशु तृप्त होकर सो जाता है। माँ का यह मनोपचार सफल सिद्ध होता है। सूरदास ने शिशु कृष्ण द्वारा चंद खिलौना लेने की जिद का निराकरण निर्दिष्ट कराया है जो माँ के द्वारा ही संभव है। यह भी प्रकारांतर में लोरी लोकगीत का ही प्रभाव कहा जा सकता है। माँ शिशु बनकर उसकी समस्याओं का निदान उसकी मानसिकता, परिवेश, भाषा और प्रकृति को ध्यान में रखकर खोजती है इसीलिए वह सफल होती है। इसमें जो व्यापक लोकानुभव है और अनेक युगों से ज्ञापित सत्य के अन्वेषण का प्रशस्त पथ है, वह इसे कालजयी और शाश्वत बनाए हुए है।
चंदा प्रकृति के रहस्यों से अनजान होने से अद्य पर्यंत बच्चों से मामा का रिश्ता निभाता आ रहा है तथा काले निशान से निर्दिष्ट चरखे से सूत कातती हुई बुढिय़ा भी दादी-नानी के रुप में वात्सल्य का वितान विनिर्मित करती हुई लोककथाओं में प्रचलित रही है। यह अनुभवी दादी-नानी की संकल्पना की उर्वर उपज की उपस्थिति और बाल मन की रुचि-प्रवृत्ति की जीवंत परिस्थिति के रुप में अद्यावधि अधिष्ठित है। यह दूर के ढोल सुहावने होते हैं लोकोक्ति को तो सार्थक सिद्ध करता ही है, कल्पनशीलता को प्रकृति के मानवीकरण के रुप में एक सुदृढ़ संबंध को भी चरितार्थ करता है। विज्ञान के सच के सामने आने के बाद क्या चंद्रमा बच्चों का मामा नहीं रहा या चरखे से सूत कातती हुई दादी-नानी व्यर्थ हो गई? इतना ही नहीं, हजारों वर्षों से सुंदर मुखड़े का मान रखता हुआ चंद्रमा का उपमान क्या मंद हो सका है? क्या किसी उबड़-खाबड़ अर्थात् अनगढ़ मुखड़े को देखकर किसी कवि, साहित्यकार, कलाकार या बुद्धिजीवी ने चंद्रमा के यथार्थ से तुलना की है? साहित्य या कला और विज्ञान के सत्य की दृष्टि में अंतर को समझना जरुरी है। इसका यह आशय भी नहीं है कि यथार्थ से साहित्य को असंपृक्त रखा जाए लेकिन यह भी अभिप्राय कदापि नहीं है कि परंपरा से प्रचलित सौंदर्य को विलोपित कर दिया जाये। साहित्य में यथार्थ और विज्ञान का समावेश ऐसा न हो कि साहित्य की अस्मिता ही विलोपित हो जाए, यथा-
चंदा मामा कहो तुम्हारी शान पुरानी कहाँ गयी?
कात रही थी बैठी चरखा, बुढिय़ा नानी कहाँ गयी?
सूरज से रोशनी चुराकर, चाहे जितनी भी लाओ,
हमें तुम्हारी चाल पता है, अब मत हमको बहकाओ
है उधार की चमक-दमक यह, निकली शान निराली है,
समझ गये हम चंदा मामा, रुप तुम्हारा जाली है।
चंदा से मामा का रिश्ता और चरखे से सूत कातती बुढिय़ा शिशु की लोरी और लोककथा की विषय वस्तु है जबकि उपर्युक्त काव्य-दृष्टि विकसित बालक की है जो द्वितीय या तृतीय चरण में ही संभव है। यह प्रथम चरण का विकास है जो हजारों वर्षों से ज्ञान-अनुभव के निष्कर्ष का उद्भास कहा जा सकता है। इस तरह शिशुओं से सपना छीनकर और सम्मोहनि शक्ति अधिग्रहित कर आखिर आधुनिक लेखक क्या संदेश देना चाहेंगे् उसे यथार्थ की मरु-भूमि में ले जाकर क्या आह और वेदना से रु-ब-रु नहीं कराएंगे? साहित्य जगत की खोज से ज्यादा अंतर्जगत का अन्वेषण है, भौतिकता से अधिक आध्यात्मिकता की गवेषणा है। शिशु-बालक और किशोर के क्रमिक विकास के समानांतर आदर्श से यथार्थ और कल्पना से वास्तविकता में पग धारण करेगा ही अत: उसे प्रारंभ से ही क्यों यथार्थ के आंगन में छोड़ दिया जावे। बाद में उसे छूट दी जावे कि वह जहाँ चाहे, आ- जा सके। यही उसके सहज विकास का उपक्रम प्रमाणित होगा।
रऊताही 2015

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