Sunday 24 February 2019

कुमाउनी लोकगीत उत्तराखण्ड की शान

लोकगीतों को परिभाषित करना उतना ही कठिन कार्य है जितना सूर्य को दीपक दिखाना। लोकगीत जीवन की स्थूल सूक्ष्म और सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। लोक संस्कृति मानव धर्म है और लोक गीत धरती के गीत हैं। मानव अपनी खुशी, हर्ष, उत्साह या दु:ख दर्द को गीतों के माध्यम से प्रकट करता है और जब यह भाव उसके मन से प्रस्फुटित होते हैं तो उसकी अपनी का ही चोला पहनते हैं और इसी से लोकगीतों का जन्म होता है।
लोकगीत वह है जो लोक का रंजन करे। कुमाउनी लोकगीत यहाँ की लोकसंस्कृति की अलग पहचान है। उत्तराखण्ड अपने विशिष्ट लोकगीतों, लोकनृत्यों और लोक वाद्ययंत्रों की धुन से परिपूर्ण और गुंजायमान है। जटिल भौगोलिक स्थिति में कठोर परिश्रम कर जीवन यापन करने वाले लोग, विभिन्न प्रकार के लोकगीतों के माध्यम से अपनी थकान को विस्मरित करते हैं। धर्म, संस्कार, प्रकृति, देवी देवता और पर्व लोकगीतों की रीढ़ बनते हैं।
गीत, वाद्य और नृत्य के समन्वय को संगीत कहा जाता है। लोकगीतों की सृष्टि गेयता के आधार पर होती है। गायन का वाद्य तथा नृत्य से अभिन्न संबंध होता है। कुमाऊ  के सभी लोकगीत गेय हैं और उनके साथ प्राय किसी न किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग भी अवश्य होता है। अधिकांश लोकगीत नृत्य के साथ प्रचलित हैं। इसमें वाद्य यंत्रों की ताल इतनी ओजपूर्ण होती है कि पैर खुद ही थिरकने लगते हैं। अत: इस प्रकार के नृत्य से संबंधित लोकगीतों को नृत्य गीत कहना अधिक समीचीन रहेगा लोकगीतों के भावों के अनुरुप ही इसमें नृत्य का विधान रहता है।
प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परंपरा है, अपने त्यौहार उत्सवों को मनाने का अपना तरीका है। भिन्न-भिन्न त्यौहारों उत्सवों पर आनन्द की प्राप्ति के लिए अपनी रचनाएं गीत आदि लोगों के द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं। इन्हें विभिन्न वर्ग समूहों में बांटा गया है जैसे धार्मिक गीत, ऋतु गीत, संस्कार गीत आदि।
धार्मिक गीत- जैसे आन्ठू या अष्टमी में कुमाऊ में प्रचलित पर्व में गाये जाने वाले गमरा मैंसर (गौरा-ममेश्वर) के गीत।
संस्कार गीत- शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत, नामकरण आदि में गाये जाने वाले गीत।
ऋतु गीत- जैसे होली, शरदोत्सव आदि में गाये जाने वाले गीत। कुमाउनी होली का लोक संगीत में अपना महत्व है। जिस प्रकार का वर्णन इन होलियों में है, वैसी होली सम्भवत ही भारत में कहीं गाई जाती है। कुमाउनी होली में अपने इष्ट से लेकर सभी देवी देवताओं का पूजन किया जाता है और उन्हें याद किया जाता है।
कृषि गीत-जैसे हुड़का बुल। खेतों की जुताई करते समय, कटाई करते समय कृषक का उत्साह ठण्डा न पड़े, या उसे अपने काम में थकान ना महसूस हो, इसलिए कृषि गीत गाये जाते हैं। जैसे हिटो दीदी हिटो भोला, हिट वे बैना घास कटैना, पार डाना....।
इसी प्रकार से कितने और न जाने लोकगीतों की रचना कुमाऊ की धरती की देन है। जिसे देखकर यही प्रतीत होता है कि जितना रंगीला कुआऊ है, उतने ही रंगीले यहां के लोग। कोई भी उत्सव गीत संगीत के बिना अधूरा सा लगता है। कठोर पर्वतों पर भी निवास करते हुए यहां के लोग अपने हृदय में एक कोमलता लिए हुए हैं। जिसकी देन है यहां का लोक संगीत, मन को लुभाता और एक जोश और उत्साह भरता लोक संगीत।
यहां के गीतों में जो रिदम होती है तथा वाद्य यंत्रों के साथ जो तारतम्य होता है उसको सुनकर पैर नृत्य के लिए खुद ही उठने लगते हैं। लोकगीत और लोकनृत्य लोक जीवन की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम है। थोड़ा सा काम से फुरसत मिली कि थकान मिटाने और उल्लास व्यक्त करने के लिए नृत्य और गीतों की महफिल प्रारंभ हो जाती है। मेले इन गीतों के रंग स्थल है। अत: प्रत्येक व्यक्ति के मन में मेलों कौतिकों में जाने की उत्कट हौस रहती है। दो-दो, तीन-तीन दिन की पैदल यात्रा करके एक दिन के नाच गान के लिए वह मेले में जा पहुंचता है। लोक कवि  दो दिन के अस्थाई जीवन में नाचने गाने को अनिवार्य मानते हैं, कहते हैं- नाचि ल्हियो खेलि ल्हियो, दवि दिन वचन।
लोक नृत्य के बिना लोक गीतों का महत्व कम हो जाता है इसलिए कुछ लोक नृत्यों को नामांकित कर रही हूं।
1. छोलिया नृत्य - यह कुमाऊ का परंपरागत नृत्य है। हर पर्व उत्सव में प्राय: किया जाता है।
2. हिल जात्रा - हिल जात्रा पिथारोगढ़ जनपद के सौर क्षेत्र में मनाये जाने वाले उत्सव विशेष हैं। इसमें समूह में नृत्य किया जाता है।
3. हिरन चिन्तन- आन्ठू के अवसर पर अस्कोट पट्टी में हिरन चिन्तल नामक लोक नृत्य का आयोजन होता है। इसमें नगाड़े और दमाने एक  ही स्वर क्रम में बजते हैं और नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करने तथा पदक्रम संचालन में सहयोग देते हैं।
4. छपेली चन्चल गति एवं क्षिप्रता से युक्त नृत्य गीत छपेली है। छपेली का आयोजन प्राय: मेलों एवं खेल कौतिकों में होता है। विषय की दृष्टि से छपेली प्रेम एवं श्रृंगार प्रधान नृत्य गीत है। इसका मुख्य वाद्य यंत्र हुड़का है। ''हाय तेरी रुमाल गुलाबी मुखडी...।ÓÓ
5. चीन्चरी - चीन्चरी कुमाऊ की प्रसिद्ध सामूहिक नृत्य गीत शैली है। चीचरी का आयोजन मुख्यत: मेलों, उत्सवों, पर्वों एवं मांगलिक कार्यों के अवसर पर होता है।
6. झोड़ा- गायन हेतु परस्पर हाथ जोड़कर दो दलों द्वारा गाये जाने के कारण ये गीत झोड़ा कहलाये जाते हैं।
7. भ्वीन- भ्वीन में पौराणिक एवं स्थानीय देवी देवताओं, राजाओं और ऐतिहासिक पुरुषों की गाथाएँ गाई जाती हैं।
8. उजागर नृत्य- इस नृत्य के मूल में लोक मानस का आदिम धार्मिक विश्वास निहित रहता है।
9. गमरा नृत्य - गमरा नृत्य का अर्थ है अष्टमी के दिन गौरा को लेकर किया जाने वाला नृत्य।
10. ठुलखेल- पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट क्षेत्र में इस नृत्य का विशेष प्रचलन है। ठुलखेल में रामकथा के विविध प्रसंगों को प्रबन्धात्मक रुप में गाया जाता है।
11. चैती-बसन्त आगमन पर ऋतु गीतों और रितुरेन गायन के साथ यह नृत्य चलता है।
12. भडा- भाट अथवा चारणों द्वारा गाई जाने वाली भटों की गाथा क को भडा कहा जाता है।
उत्तराखण्ड संगीत और वाद्य यंत्रों का विस्तार - कुमाउनी गीतों और नृत्यों का परस्पर अभिन्न संबंध है। कुमाउनी गीतों और वाद्यों ने न सिर्फ उत्तराखण्ड और भारत में अपनी पहचान बनाई वरन विदेशों में भी यह अपनी जगह और पहचान बना रहे हैं। अमेरिका के सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के संगीत के प्रोफेसर स्टीफन सिओल ने उत्तराखण्ड के ढोल दमाऊ मसक जैसे वाद्य यंत्रों पर शोध करने का मन बनाया और 2010 में सोहनलाल और उनके भाई सुक्वारु दास के शिष्य बनकर अनेक वाद्य यंत्रों को सीखा। उनसे प्रभावित होकर इन्होंने अपना नाम फ्याली दास रख लिया। इन वाद्य यंत्रों को बजाते समय बोली जाने वाली वार्ताएं, जागर, चैत्वाली, ऐतिहासिक कथाएं और मांगलिक गीतों का भी प्रशिक्षण प्रापत किया। प्रश्ििाक्षत होकर अमेरिका लौटने पर इन्होंने ढोल मसक को पाठ्य क्रम में एक विषय के रुप में सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा जिसे मान लिया गया। सिनसिनाटी विश्व विद्यालय ने सोहन लाल और सुक्वारु डस को विजिटिंग प्रोफेसर के रुप में आमंत्रित किया है।
बेडू पाको बार मासा हो नाराय काफल पाकी चैता मेरी छैला (गीतकार स्व. ब्रजेन्द्र लाल शाह, संगीतकार स्व. मोहन उप्रेती) इस गीत को प्रथम बार 1952 में नैनीताल के जी.आई.सी. में गाया था। परन्तु जब तीन मूर्ति भवन दिल्ली में प्रादेशिक संस्कृतियों के समन्वय उत्सव पर गाया गया तो पंडित नेहरु ने इसे लोक संगीत तथा लोक गायन में सबसे बेहतर स्थान दिया।
चिपको आंदोलन में भी कुमाउनी लोकगीतों ने लोगों को बहुत प्रोत्साहित किया और चिपको आन्दोलन को आगे बढ़ाया। गीत की एक बानगी देखिए
जग्या हम बिज्या हम, अब नी चलली चोरों की।
घोर अपणू बीन अपणू, अब नी चलली औरों की।।
माटू विकिगी पाणी विकिगी, बिकी गया हमारा बौन भी।
हाथ खाली छन पेट खाली छ:, ठिकाणु नी रैगी रौन कू
इस तरह कुमाउनी लोक गीतों ने बहुत लोकप्रियता अर्जित की है। जहां तक लोक संस्कृति और लोकगीतों के विकास का प्रश्न है, मेरे विचार से इनके विकास के विषय में सोचना वैसे ही होगा जैसे हम किसी पूर्ण विकसित फूल को विकसित करने का विचार करें। हमें लोकगीतों को संरक्षित करने की, संजोने की आवश्यकता है। यह हमारी पहचान हैं।
वह लोकगीत जो हमारे बुजुर्गों के साथ-साथ काल कवलित होता जा रहा है, उसे नई पीढ़ी को एक नए कलेवर के साथ हस्तांतरित करें। वे लोक गीत एवं लोक वाद्य जिनकी गूँज से कभी वादियाँ झूम उठती थी, पैर थिरकने लगते थे, जन जीवन श्रम की थकान एवम् अपने कष्टों को भूलकर मदमस्त हो उठता था, शनै:शनै: उसके स्वर मंद पड़ते जा रहे हैं। वे मात्र पुस्तकों की और संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। जो कभी हमारे पूर्वजों की खोज, तपस्या एवं साधना का परिणाम था, हमारा अभिज्ञान था आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज इन धरोहरों को आवश्यकता है हमारे ध्यानाकर्षण की, हमारी श्रद्धा की, संरक्षण के साथ-साथ इन लोकगीतों को पुन: उजागर करने की। इसके लिए जरुरी है कि देश के अन्य संगीतकारों, कलाकारों की भांति इन लोक कलाकारों को भी समय-समय पर पुरस्कारों से नवाजा जाए। विवाहादि शुभ अवसरों पर अपने लोक गायकों को आमंत्रित करना चाहिए। इससे उनमें उत्साहवर्धन के साथ-साथ मनोबल की भी वृद्धि होगी और अपने पूर्वजों की धरोहर भावी पीढ़ी को सौंपने में उन्हें गौरवानुभूति होगी। साथ ही भावी पीढ़ी भी उसे सहर्ष स्वीकार करेगी। इससे हमारी लोक प्रचलित कलाएं, परम्पराएं और संस्कृति स्वत: जीवन्त रहेंगी और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहेंगी।
साभार रऊताही 2015

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