Thursday 21 February 2019

आदिवासियों की अनोखी विवाह पद्धतियाँ

विवाह शब्द मानव जीवन में विशिष्ट महत्व रखता हैं। इसका अपना रोमांच है, अपना आकर्षण है। आदिवासी जनजाति आदिवासी संसकृति सदियों से शादी-विवाह को लेकर पुरानी विभिन्न रोचक परम्पराओं को लेकर आकर्षण का केन्द्र रही है। आदिवासी जातियां अभी भी विवाह के मामलों में लोक परम्पराओं का निर्वहन कर रही है।
प्रदेश के रायगढ़, सरगुजा, बस्तर आदि जिलों में रहने वाली आदिवासी प्रजातियां, कोईनुर, दडामी, खालीपाटी, सानभवरा या पीव भतरा आदि ने समान रुप से विवाह पद्धतियां रीतिरिवाजों के दृष्टिकोण से पहचान नहीं खोई है।
रायगढ़, सरगुजा जिलों में निवास करने वाली जनजाति 'उरांवÓ में वर का पिता या अभिभावक ही योग्य कन्या की तलाश करते हैं। योग्य कन्या मिलते ही उससे विवाह का प्रस्ताव किया जाता है। विवाह तय होने पर बूंदे (दहेज) की रकम तय की जाती है। बूंदे में नगद राशि के अलावा, चांवल, दाल, तेल इत्यादि चीजों का समावेश होता है। नगद राशि पांच सौ रुपयों से लेकर दो हजार तक हो सकती है। यह राशि वर का पिता वधु के पिता को देता है।
इस जनजाति में 'वन्दवाÓ विवाह की प्रथा भी प्रचलित है, जिसमें युवक मनपसंद युवती को चूड़ी, वस्त्र आदि देकर उसे अपनी पत्नी बनाता है। इसके अतिरिक्त इस उरांव जाति में 'ढूंकूÓ परम्परा भी देखने को मिलती है। जिसमें युवती पसंदीदा युवक के साथ रहने लगती है।
इन आदिवासियों में विवाह योग्य पुत्र का पिता यह जानकारी मिलते ही कि गांव के अमुक घर में विवाह योग्य कन्या है अन्न, वस्त्र, मांस और मदिरा (शराब) लेकर गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों सहित कन्या पक्ष के यहां जाता है और गांव की बाहरी सीमा पर रुक कर अपने आने व आशय की सूचना देता है। कन्या पक्ष वाले उसे सम्मानपूर्वक अपने घर ले जाते हैं।
प्रस्ताव शादी का वर पक्ष का पिता रखता है, प्रस्ताव के स्वीकृति के साथ वर पक्ष द्वारा लाई गई सामग्री (मांस-मदिरा) आदि से कन्यापक्ष भोज आयोजित करते हैं।
गोड़ आदिवासियों में विवाह की अलग परम्परा है। इनमें दादा व नाना के परिवारों में विवाह करना अच्छा समझा जाता है। समयोगी विवाह इनमें नहीं होते। इस विवाह में लड़के के यहां लड़की वाले बारात लेकर जाते हैं। लड़के के मंडप में ही विवाह की रस्म पूरी होती है। परन्तु अब ये चढ़ विवाह को ज्यादा अपनाते हैं। इस विवाह में दूल्हा बारात लेकर आता है। विवाह की रस्म पूरे विधि विधान के साथ संपन्न होती है। इनमें कभी कभी 'भीली विवाहÓ तथा 'बालात विवाहÓ देखने को मिलता है। भीली विवाह (प्रेम विवाह) लड़का लड़की के बीच प्रेम हो जाने के बाद होता है। यदि दोनों में से कोई पक्ष इस पर राजी नहीं होता तो बालात विवाह को जन्म देता है।
बैगा जनजाति में विवाह के कई तरीके हैं- एक तरीका विवाह का है, जिसमें पूरा वैवाहिक कार्य दोशी (पुजारी) संपन्न कराता है शादी पक्की करने के लिए दोशी के साथ लड़के के माता-पिता व गांव का प्रमुख जाता है। दोशी इस दौरान अपने साथ दो बोतल महुआ की शराब दोनों कंधों में लटका कर ले जाता है। तत्पश्चात दोशी इस शराब को लड़की वालों को देता है जब शादी पक्की हो जाती है, तो परिवार के लोग बैठकर लड़के व लड़की के पैर धोते हैं। फिर इसी शराब को पी जाते हैं। किन्तु अगर शादी की बात पक्की नहीं होती है, तो दोशी उन शराब की बोतल को अपने घर ले जाता है।
तीन चार दिन के अंतराल के बाद लड़के वाले फिर से लड़की वालों के यहां शादी कब है, मालूम करने जाते हैं। उस समय भी वे अपने साथ शराब की दो बोतल ले जाते हैं। शादी का दिन निश्चित होने पर लड़के वाले अपने गांव के सभी युवक-युवतियों को विशेष श्रृंगार करके ले जाते हैं। इसके मौके पर वे शराब पीकर नाचते गाते हैं। शादी में मंडप, सात भंवरे होती है। दहेज प्रथा बिल्कुल नहीं है।
इस जनजाति में 'ले भगा-ले भगाÓ विवाह (पे्रम विवाह) भी होता है। यदि किसी बैगा नवयुवक को किसी नवयुवती से प्रेम हो जाता है, तो वे दोनों उस गांव से भाग जाते हैं। तब लड़के व लड़की वाले उनका पता लगाकर उन्हें वापस लेकर आ जाते हैं। फिर दोनों परिवार के लोग मिलकर गांव के लोगों को मदिरा शराब पिलाते हैं। तत्पश्चात लड़के वाले सहर्ष लड़की को अपने घर रख लेते हैं। घर आने के बाद पूरी रीति-रिवाज के साथ उनका विवाह संपन्न होता है। इस विवाह में लड़की पक्ष के पास कहीं से विवाह का प्रस्ताव आता है और उन्हें वह युवक पसंद आ गया तो वे विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं।
कोरवा जनजाति में विवाह की अलग ही पद्धति है। हालांकि सगौत्र विवाह की परिपाटी नहीं है। पहाड़ी कोरवा, डिहरिया कोरवा में रोटी व बेटी व्यवहार नहीं होता। बाल विवाह का प्रचलन इनमें आज भी है। इनमें हालांकि एक पत्नी विवाह प्रचलित है। लेकिन सक्षम कोरवा एक से अधिक विवाह भी कर लेते हैं। इनमें तलाक प्रथा है। कोरवाओं में ज्यादातर मंगी शादी होती है। अधिकांश संबंध बड़े-बूढ़ों की सलाह से तय होते हैं। अंतिम निर्णय मुखिया को करना होता है। मंडप का निर्माण पूरा गांव मिलकर करता है। जिसमें लड़के-लड़की के लगन होते हैं। मंडप में पित्तर देवता की पूजा होती है। लगन के बाद सभी कोरवा सम्मिलित होकर भोजन करते हैं फिर लड़की की विदाई होती है और महिलाएं कोरवा परम्परा के गीत गाती व नाचती हैं।
आम्पर जाति में आज भी भाई के लड़के से बहन की लड़की ब्याह दी जाती है। इस परम्परा का निर्वाह करने में आम्पर जाति के आदिवासी अपनी शान समझते हैं। छत्तीसगढ़ के देवार जाति में विवाह के समय सूअर काटने की प्रथा है। इसके पीछे मान्यता है कि विवाह के समय सूअर का मांस परोसा जाना सम्पन्नता का द्योतक है। इसमें दहेज देने की प्रथा है। लड़की का मोल होता है।
आदिवासी समुदाय में तीज त्यौहार की अनोखी रस्में, उनकी वैवाहिक परम्पराएं अत्यधिक रोचक होती हैं। इन्हीं परम्पराओं में आदिवासी समाज का वजूद टिका है।
लड़के वाले एक दो हजार रुपये तक लड़की वालों को देते हैं। जब भी लड़की अपने पिता के घर जाती है, तो उसके माता-पिता भोजन नहीं बनवाते हैं। लड़की अपना भोजन स्वयं बनाती है। यदि लड़का पक्ष के लोग लड़की पक्ष वालों के घर जाते हैं, तो अपना भोजन स्वयं अपने हाथों से बनाकर खाते हैं।
देवारों में विधवा विवाह भी प्रचलित है। इसे चूड़ी पहिनाना कहा जाता है। पुन: फेरे नहीं पड़ते अगर कोई देवार आदिवासी किसी बाहरी औरत को अपने डेरे में भगाकर ले आता है तो अन्य देवार उससे रुपये वसूल करते हैं। उसे सहभोज देने के लिए मजबूर किया जाता है। यदि किसी युवती को देवार पुरुष द्वारा पकड़ लिया जाता है तो उसे दंड के रुप में मांस का भोजन लिया जाता है। इस जाति में बिहाना (सहमति से) पेठू (लड़की को भगाकर) व बेधोनी (पंचों के आदेश व परामर्श से) इस तीन विवाह प्रचलित है। अगर कोई देवार आदिवासी लड़की अन्य घर में चली जाएं तो लड़की का पिता लड़के वालों से पांच-छ: सौ रुपये अर्थदंड के रुप में वसूल कर लेता है।
साभार रऊताही 2015

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