Thursday 21 February 2019

मालवा विवाह गीतों में प्रकृति वर्णन

प्रकृति अने पर्यावरण का बिना संस्कृति अने संस्कार की बात करनो असो लागे जाणे झाड़-झडूकल्या हुण के भूली ने फूल-फल अने पत्ता होण की बात करणो।लोक परम्परा, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा बोली अने लोक-जीवन के समझवा सार वां की प्रकृति अने मोसम का मिजाज के समझणों जरुरी हे। इनी बात के जमाना भर में ठावी, अणी केवात से बी समझी सकां, 'जसो देस वसो भेसÓ जणी देस की जसी प्रकृति के हे वां की वसीज परम्परा, लोकभाषा, बोली, रेण-सेण, अने वेवार देखवा में आय हे। लोक में बिखरी थकी परम्परा हुण प्रकृति से अछूती नी रई सके, अने वा प्रकृति कणी ने कणी भायना ती हमारे पारम्परिक गीत में नगे आय हे। प्रकृति का माय रई ने ज् हम अपणी परम्परा हुण, संस्कार अने रीति-रिवाज हुण के निभावां हां। या यूँ कई सकां के हम अपणी परम्परा के निभावा सारु जो बी चीज (वस्तु) लेणो चावां वा वांकी प्रकृति हमारे दई सके। प्रकृति से लई न जद्-जद् बी हम परम्परा के निभावां हां तो वणी परम्परा से जुडया गीत में प्रकृति के आणो ते हे। उदाहरण का लेण-ब्वाय मे या कणी सुब काम में हमारे कोय चीज चई पड़े तो वी हे-केल का पत्ता, अम्बा की डाली, आम्बा की लकड़ी अने पत्ता, नारेल, अम्मरबेल, खेजड़ी, खांखरा की लाकड़ी, फूल-फल, पाणी, मिट्टी अने मंडप सजावा सारु बाँस आदि अणी चीज होण सारु हमारे प्रकृति में जाणो पड़े, प्रकृति के मनाणो पड़े अने प्रकृति मनावा मारु गीत गाणो पड़े।
लोक परम्परा में अने लोक जीवन में असा हजारों हजार गीत हे, जो नदी, तलाब, पनघट, समदर, झाड़-झडूकल्या, जिन-जिनावर, अने पहाड़ होण की वंदना, अर्चना में युगा-युगा ती मंत्र की तरे मनख्या गाता चल्या अईर्या हे।
मालवा में गाया जाणे वाला ब्वाय गीत हुण में प्रकृति को बखाण ब्वाय संस्कार की नी-नी करता सगली, रीत में नगे आय हे, चाये वे बधावा हो, परबात्या हो कामण हो, सातंगवरत, हल्दी-मेंदी, उकल्डी, मायमाता ती लगई ने गाल गीत तक भारतीय परम्परा अने संस्कृति में कोन सी बी सुभ काम होय विकी सरुआत गणपति पूजन से ज् होय हे। गणपति खुद माँ परवती अने शंकर भगवान का छोरा हे या यूं कई संका के खुद प्रकृति अने पुरुष/आकाश का छोरा हे। बईरा सब ती पेला ब्वाय में गणपति जी के आपणा गीत का भायने  पाती भेजे अने अरज करे-
तम तो वेगा वेगा आओ हो गणेश/तम बिन घड़ी नी सरे
तमने सूरज, मनावे, तमने चन्दरमा मनावे
तमने रामचन्दर मनावे हो गणेश....
मालवा में एक केवात हे 'चार कोस पे पाणी बदले बारा कोस पे वाणी।Ó पाणी को मायनो होय-प्रकृति अने वाणी याने बायरो (हवा) ई दोई नी होय तो अणी धरती पे जीवन बी नी वई सके। वाणी अने पाणी पेज् भौगोलिक, आर्थिक, राजनेतिक, सामाजिक, अने पारिवारिक बणवट, रेण-सेण, रीति-रिवाज, आचार-विचार अने खान-पान, तक को खाको ते होय तो फेर मनक अपणा गीत हुण में प्रकृति के कसे भूली सके? ब्याव संस्कार का माय कई तरे का छोटा-मोटा रिवाज निभाणा पड़े जो अपणी-अपणी जात-बिरादरी में थोड़ा भोत अलग वई सके पण खास-खास रीत के सब में एक जसीज रेवेकणी समाज में कोय सी बी परम्परा असी नी हे, जो बिना गीत के पुरी वई सके। जिस्तन बिना मत्रं के कोय बी वैदिक परम्परा पुरी नी वई सके, विस्तन बिना गीत के कोई बी लोकिक परम्परा पुरी नी वई सके। स्वराघात अणे सप्रंसारण से भर्या-पूर्या अणी गीत हुण में वेदिक संहितापाठ जसी एकरुपता देखवा में आय हे।
अणी परम्परागत श्रुतिगीत हुण में जो कि लोकमन की भावना से जनम लई अने शिव रुप आकाश में सतत् प्रवाहमान वई ने नद्दी की तरे बईर्या याने (अर्थात्) गाया जईर्या हे, वी प्रकृति का बखान के अछूता किस तन रई सके? ब्याव गीत की सुरुआत में गणपति गावा का बाद सबती पेली रीत हे, खानागार-खरमाटी, लावा की अणे कुम्हार का चाक के बदावा की। अपणी मिट्टी से लगाव, जुड़ाव, अणे सृष्टि का प्रतीक रुप में चाक को पूजणो एक तरे ती सम्पूर्ण सृष्टि को पूजन मान्यो जाय हे। चाक बदाती बखत बईरा हुण जो गीत गावे विन में प्रकृति का जो खास रुपक हे उनके लेवा की कोसिस करी हे।-
भवंरा, पेलो बदावो म्हारे आवीयो
भवंरा मोकल्यो म्हारो ससुराजी री पोल
वाड़ी रा भवंरा दाख मीठी ने रस सेवर्यो।
ब्याव को पेलोज बदावो प्रकृति में बसंत ऋतु की अगवानी को संदशो देतो प्रतीत होय हे। छ: ऋतु में खास अने जिके सगली ऋतु होण को राजो मान्यो जाय वणी  ऋतु से ज् ब्याव गीत हुण की सुरुआत अने लगनसरा हुण की सुरुआत, अणी संस्कार को प्रकृति से कितरो जुड़ाव हे, यो बतलाय हे। बसंत ऋतु की अगवानी को प्रतीक भवंरा अने फूल ती अणी बदावा की सरुआत ब्याव संस्कार का भायने मनख जिन्दगी की गृहस्थ जीवन में जावा की (प्रवेश) सुचना देणो हे। अणी सुन्दर बाड़ी (बगीचा) रुपी गृहस्थ आश्रम में बसंतरुप रुपी ब्याव संस्कार का भायने छोरा-छोरी, कली-भंवरा का रुप में लाड़ा-लाड़ी बणी ने अपणो पेलो पांव आगे धरे तो अणी ती अच्छो गीत कंई वई सके 'दाख मीठी अने रस सेवर्योÓ प्रेम का अणी मीठा सा बंधन का गठजोड़ में बंधी प्रेम रुपी दाख को मीठो रस चारी मोर बिखेर्यो जाय हे। अतरो चोखो प्रकृति परक भाव, मधुर लोकधुन अणे अतरी सरल भाषा शैली के बस... गाया जावा अणे सुण्या जाव, देख्यो जाय तो ब्याव की सगली रीति, परम्परागत प्रकृति ती जुड़ी थकी हे। ब्याव में अपणा कुल का देवी-देवता को बी पूजन होय, कलश स्थापना होय, जवारा थेपाय अणे गीत गाया जाय वणी की एक बानगी-
रमा-झमा हो करती वरद आई, आय आँगणे पग दियो
सुता के जागो राज सूरज जी, तम घर वरद उतावली
सुता के जागो राज चंदरमाजी तम घर वरद उतावली।।
अणी तरे ती बईरा हुण अधिकतर गीत हुण में सूरज अणे चंदरमा के मनाय हे, बिना चंदरमा अणे सूरज के प्रकृति का बारा मे सोचणो बी बेकार हे। गीत हुण का भायने प्रकृति में रच्या-बस्या मनख हुण अपणी भावना के अणी वरत-तेवार अने परम्परा हुण में पुरी आस्था, अणे श्रद्धा की सांते उकेरवा की कोसिस करे हे। ब्याव जसा आयोजन में तो घणों ती घणों बखान प्रकृति को वयो हे। भारतीय संस्कृति में ब्याव संस्कार की सरुवातज् बसंत ऋतु से होय जो प्रकृति में बदलाव की बखत (समय) हे। या ऋतु ब्याव संस्कार में परणवा वाला लाड़ा-लाड़ी बण्या जुवान छोरा-छोरी हुण के यो संदेश देवे हे के अबे अणी मनख जिन्दगी में नरा-नरा बदलाव आणा हे जो अणी जिन्दगी की दशा अणे दिशा ते करेगा।
यो बदलाव अणे यो संस्कार खाली लोक जीवन मेज निभायो जाय असो नी हे बल्कि बसंत ऋतु में प्रकृति बी इनी बदलाव अणे संस्कार में पुरी तरे ती लीन रे हे असो लागे। म्हने अपणी मालवी लोकभाषा में लिखी थकी खण्डकाव्य कृति 'आँबा को ब्याव में अणी बात के पुरी तरे ती मेहसुस करी हे। बसंत पंचमी तो लोक जीवन में लाड़ा के मोड़ बंधे, लाड़ी के मेंदी लगे अणे सगला घराती अणे बराती सजी धजी ने तैयार हुई जाय। असोज प्रकृति में आबां (आम) का झाड़ में मोड़ बंधी जाय (फुल आना)Ó आमली (इमली) का झाड़ में लग्या फल में मेंदी को रंग उतरवा लागी जाये अने सगला झाड़-झड़ूकल्या, फूल-फल ती सजी-धजी ने महकवा लगी जाये। म्हने अपनी पोथी 'आँबा को ब्यावÓ में आम्बा के लाड़ो अणे आमली के लाड़ी बणई ने मालवा का सवा सो झाड़-झंकार के घराती अणे बराती बणई के अणी में प्रस्तुत कर्या हे। म्हारो केवा को मतलब यो हे के हमारा कोई बी रीति-रिवाज प्रकृति से अछूता नी हे। लोक परम्परा में ब्याव की जितरी खूबी अणे रीति-रिवाज वई सके वी सगली रीति म्हने प्रकृति में ढूंढवा की कोसिस करी हे। खेर यो एक अलग विषय हे, फेर भी म्हारा हिसाब ती अणे ब्याव संस्कार को जीतरो गेरो संबंध प्रकृति ती हे, अतरो कणी ओर संस्कार अणे रीत को नी वई सके।
लगन, बदावा, गणेश, खानागार-खरमाटी लावा अणे चाक बदावा की सांते-सांते ब्याव में जो पेली रीत हे, वा हे उकल्ड़ी। उकल्ड़ी पूजवा को मतलब प्रकृति अणे पर्यावरण के बचावा को संकल्प लेणो होय हे। अपणा घर की रोज साफ-सफाई करी ने गांव ती बायर उन कचरा के इकट्ठो कर्यो जाय हे, उन कचरा का ढेर के उकल्डो केवे हे। मनख जिनगी में अणी छोटी-छोटी बात हुण को ध्यान रखणा अणे अपणा से छोटा  मनख के बी वितरोज सम्मान देणो यो अणी रीत को खास संदेश हे। प्रकृति अणे पर्यावरण का प्रति समर्पित अणी रीति को गीत बी सबके जगावा  को काम करे हे। बईरा हुण अपणी शैली में सबको नाम लई-लई ने केवे के फलां-फलां जागी ग्या हे, तम बी जागो-ई तो इन्द्रासन से सूरज जी जागीया/ई तो तारा हुण में चन्दरमा जी जागीया। ई तो जाग्या-जाग्या चारु ई देव/ के कजली बन (वन) रो कुंकडो (मुर्गा)
लोक जीवन अणे प्रकृति से जुडय़ा हजारों गीत अणी संस्कृति से जुडय़ा हे। जरोत हे तो इनके समेटवा की। हल्दी, मेंदी, आम्बो, अमरबेल, अशोक, चम्पा, चमेली, गुलाब, गेंदा, बांस, खेजड़ी, खाखरा, कपास, पान, सुपारी, केल, अने, खजुर, जसा नरा-नरा झाड़ हुण को अणी ब्याव संस्कार में वपराव होणो कंई ने कंई हमारे प्रकृति से जोड़े हे। इन सबका न्यारा-न्यारा सैकड़ों गीत हे। नरी-नरी रीत तो खाली प्रकृति से ज् जुड़ी हे। ब्याव में सवेरा-सवेरी उठी के घट्टी-फेरती लुगायां द्वारा गाया जाये उणके परबात्या केवे। परबात्या में सबेरा-सबेरी की जो लोक लुभावणी झांकी अपणा गीत में बईरा हुण प्रस्तुत करे वी की कंई केणी। तम बी सुणो-
म्हारा बालाजी वायण जागो, परभात्यो तारो उगीयो।
तारो उगो माताबई री कूंख, जणे सूरज जी सरका जनमिया
तारो उगो माताबाई री कूंख, जणे चंद्ररमा जी सरका जनमिया
अणी तरे दूसरा परबत्या की बानगी रखणो चऊँ-
अणी लिम्बड़ली रा लांबा-लांबा पान
छलंग्या पे सूरज उगीयो!
अणी तरे घणा-घणा गीत हुंण में प्रकृति को घेणो चोखो अने जस को तस बखाण अणी ब्याव गीत हूण में कर्यो हे। चंवरी फेरा, सातंग-वरत, बान-मामेरा, सिचावणी, परबात्या, बधावा, कामण अने गाल गीत में प्रकृति को बखाण हुओ हे ओर तो ओर बनड़ा-बनड़ी का ज्यादा तर गीत हुण में 'हरियाली बनड़ीÓ अणे 'हरियाला बनड़ाÓ सबद को आणो हमारे कंई ने कंई प्रकृति ती जोड़े हे। लोकगीत हुण हमारो इतिहास हे, वर्तमान हे अणे भविष्य बी हे। एक असी पगडंडी हे जिके बणावा वालो कोय एक मनख नी हे, बल्कि आखी की आंखी संस्कृति अणे आखो समाज हे जो युगां-युगां ती उणी गीत परम्परा के वेद पुराण की तेरे संजोतो चल्यो अईर्यो हे। प्रकृति अणे लोक में रच्या-बस्या अणी गीत हुण में हमारी परंपरा हमारी प्रकृति अणे हमारी सभ्यताज् नी हे बल्कि हमारी श्रद्धा अणे आस्था मूल भावना भी अणे में ज् समई थकी हे।
साभार रऊताही 2015

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