Sunday 24 July 2011

लोक साहित्य में स्वाधीनता की अनुगूँज

-आकांक्षा यादव
स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी  परम्परायें छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक हमें बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुन: स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रूपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूँ ही नहीं प्राप्त हुई वरन् इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल-बाल-पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खीलाफ  दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजी की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15
अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत
किया।
 इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ
में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता
है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल
को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। जरूरत है कि
इतिहास की उन गाथाओं को भी समेटा जाये जो मौखिक रूप में जन-जीवन में विद्यमान
है, तभी ऐतिहासिक घटनाओं का सार्थक विश्लेषण हो सकेगा। लोकलय की आत्मा में
मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि
पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था,
पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी
ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया।
मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है-
जब सत्तावनि के रारि भइलि
बीरन के बीर पुकार भइल
बलिया का मंगल पाण्डे के
बलिवेदी से ललकार भइल
मंगल मस्ती में चूर चलल पहिला बागी मसहूर चलल
गोरनि का पलटनि का आगे
बलिया के बाँका सूर चलल।
कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति की जनता करे भावी सूचना देने हेतु और उनमें सोयी
चेतना को जगाने हेतु 'कमलÓ और 'चपातीÓ जैसे लोकजीवन के प्रतीकों को संदेशवाहक
बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कालिदास के मेघदूत की
तरह अतिरंजना नहीं अपितु एक सच्चाई थी। क्रान्ति का प्रतीक रहे 'कमलÓ और
'चपातीÓ का भी अपना रोचक इतिहास है। किंवदन्तियों के अनुसार एक बार नाना साहब
पेशवा की भेंट पंजाब के सूफी फकीर दस्ता बाबा से हुई। दस्सा बाबा ने तीन शर्तों के
आधार पर सहयोग की बात कही-सब जगह क्रान्ति एक साथ हो, क्रान्ति रात में आरम्भ
हो और अंग्रेजो की महिलाओं व बच्चों का कत्लेआम न किया जाय। नाना साहब की
हामी पर अलौकिक शक्तियों वाले दस्सा बाबा ने उन्हें अभिमंत्रित कमल के बीज दिये
तथा कहा कि इनका चूरा मिली आटा की चपातियाँ जहाँ-जहाँ वितरित की जायेंगी, वह
क्षेत्र विजित हो जायेगा। फिर क्या था, गाँव-गाँव तक क्रान्ति का संदेश फैलाने के लिए
चपातियाँ भेजी गई। कमल को तो भारतीय परम्परा में शुभ माना जाता है पर चपातियों को
भेजा जाना सदैव से अंग्रेज अफसरों के लिए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपातियों का
संबंध मानव के भरण-पोषण से है। वी.डी. सावरकर ने एक जगह लिखा है कि-
'हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य हुआ, तब ही क्रान्ति-दूतों ने चपातियों द्वारा
देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पावन संदेश को पहुँचाने के लिये इसी प्रकार का
अभियान चलाया गया था क्योंकि वेल्लोर के विद्रोह के समय में भी ऐसी ही चपातियों ने
सक्रिय योगदान दिया था चपाती (रोटी) की महत्ता मौलवी इस्माईल मेरठी इन पंक्तियों
में देखी जा सकती है-
मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर
तो वह खौफो जिल्लत के हलवे से बेहतर
जो टूटी हुई झोंपड़ी वे जरर हो
भली उस महल से जहाँ कुछ खतर हो।
1857 की क्रान्ति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूँज लोक
साहित्य में भी सुनाई पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नही
लड़ गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को पे्ररित करने में प्रमुख भूमिका
निभाई। लोगों को इस संग्राम में शामिल होने हेतु प्रकट भाव को लोकगीतों में इस प्रकार
व्यक्त किया गया-
गाँव-गाँव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दुहाई
लोहा चबवाई के नेवता बा, सब जन आपन दल बदल
बाजन गंवकई के नेतवा, चूड़ी फोरवाई के नेवता
सिंदूर पोंछवाई के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।
राजस्थान के राष्ट्रवादी कवि शंकरदान सामोर ने मुखरता के साथ अंग्रेजो की गुलामी की
बेडिय़ाँ तोड़ देने का आह्नान किया-
आयौ औसर आज, प्रजा परव पूरण पालण
आयौ औसर आज, गरब गोरां रौ गालण
आयौ औसर आज, रीत रारवण हिंदवाणी
आयौ औसर आज, विकट रण खाग बजाणी
फाल हिरण चुक्या फटक, पाछो फाल न पावसी
आजाद हिन्द करवा अवर, औसर इस्यौ न आवसी।
1857 की लड़ाई आर-पार की लड़ाई थी। हर कोई चाहता था कि वह इस संग्राम में
अंग्रेजों के विरूद्ध जमकर लड़े। यहाँ तक कि ऐसे नौजवानों को जो घर में बैठे थे,
महिलाओं ने लोकगीत के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-
लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।
1857 की जनक्रान्ति का गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेहीÓ ने भी बड़ा जीवन्त वर्णन किया है।
उनकी कविता पढ़कर मानो 1857, चित्रपट की भाँति आँखों के सामने छा जाता है-
सम्राट बहादुरशाह 'जफरÓ, फिर आशाओं के केन्द्र बने
सेनानी निकले गाँव-गाँव, सरदार अनेक नरेन्द्र बन
लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का
हिन्दू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया न नाम दुरंगी का
अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे
घनघोर बादलों-से गरजे, बिजली बन-बनकर का कड़क उठे
हर तरफ क्रान्ति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरों का
पुतला बचने पाये न कहीं पर, भारत में अब गोरों का।
1857 की क्रांति की गूँज दिल्ली से दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भी सुनाई दी थी।
वैसे भी उस समय तक अंग्रेजी फौज में ज्यादातर सैनिक इन्हीं क्षेत्रों के थे। स्वतंत्रता की
गाथाओं में इतिहास प्रसिद्ध चौरीचौरा की डुमरी रियासत बंधू सिंह का नाम आता है, जो
कि 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों का सिर कलम करके और चौरीचौरा के समीप
स्थित कुसुमी के जंगल में अवस्थित माँ तरकुलहा देवी के स्थान पर इसे चढ़ा देते। कहा
जाता है कि एक गद्दार के चलते अंग्रजों की गिरफ्त मेें आये बंधू सिंह को जब फाँसी दी
जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही टूटता रहा। यही नहीं जब फाँसी के फन्दे से
उन्होंने दम तोड़ दिया तो उस पेड़ से रक्तस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से अंगे्रजों के
खलाफ लडऩे की शक्ति माँगते थे। पूर्वांचल के अंचलों में अभी भी यह पंक्तियाँ सुनायी
जाती हैं-
सात बार टूटल जब, फाँसी के रसरिया
गोरवन के अकिल गईल चकराय
असमय पड़ल माई गाढ़े में परनवा
अपने ही गोदिया में माई लेतु तू सुलाय
बंद भईल बोली रूकि गइली संसिया
नीर गोदी में बहाते, लेके बेटा के लशिया।
भारत को कभी सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। पर अंग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व
संस्कृति पर घोर प्रहार किये और यहाँ की अर्थव्यवस्था को भी दयनीय अवस्था में पहुँचा
दिया। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने इस दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है-
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहिले जो रूप-रंग-भीनो
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।
आजादी की सौगात भीख में नहीं मिलती बल्कि उसे छीनना पड़ता है। इसके लिये जरूरी
है कि समाज में कुछ नायक आगे आयें और शेष समाज उनका अनुसरण करे। ऐसे
नायकों की चर्चा गाँव-गाँव की चौपालों पर देखी जा सकती थी। बिरसा मुण्डा के बारे
प्रचलित एक मुंडारी लोकगीत के शब्द देखें-
तमाड़ परगना गेरडे अली हातु
बिरसा भोगवान-ए जानोम लेगा
आटा-माटा बिरको तला चलेकद रे दो
चले कद हतु रे उलगुलान लेदा।
गुरिल्ला शैली के कारण फिरंगियों में दहशत और आतंक का पर्याय बन क्रान्ति की ज्वाला
भड़काने वाले तात्या टोपे से अंग्रेजी रूह भी काँपती थी फिर उनका गुणगान क्यों न हो।
राजस्थानी कवि शंकरदान सामौर तात्या टोपे की महिला 'हिन्द नायकÓ के रूप में गाते
हैं-
जठै गयौ जंग जीतियो, खटकै बिण रण खेत
तकड़ौ लडिय़ाँ तांतियो, हिन्द थान रै हेत
मचायो हिन्द में आखी, तहल कौ तांतियो मोटो
धोम जेम घुमाओ लंक में हणूं घोर
रचाओ ऊजली राजपूती रो आखरी रंग
जंग में दिखायो सूवायो अथग जोर।
इसी प्रकार शंकरपुर के राना बेनीमाधव सिंह की वीरता को भी लोकगीतों में चित्रित किया
गया है-
राजा बहादुर सिपाही अवध में
धूम मचाई मोरे राम रे
लिख लिख चिठिया लाट ने भेजा
आब मिलो राना भाई रे
जंगी खिलत लंदन से मंगा दूं
अवध में सूबा बनाई रे।
1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरूष नायकों ने भाग लिया, महिलायें भी उनसे
पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की
अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में
जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया।
मजा हजरत ने नहीं पाई
केसर बाग लगाई
कलकत्ते से चला फिरंगी
तंबू कनात लगाई
पार उतरि लखनऊ का
आयो डेरा दिहिस लगाई
आस-पास लखनऊ का घेरा
सड़कन तोप धराईं।
रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। उनकी मौत पर
जनरल ह्यूगरोज ने कहा था कि- 'यहाँ वह   औरत सोयी हुयह है, जो विद्रेही में एकमात्र
मर्द थी।Ó 'झाँसी की रानीÓ नामक अपनी कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान 1857 की
उनकी वीरता का बखान करती हैं, पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर
तक लोक लय सुनाई देती है-
खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी
पुरजन पुरजन तोपों लगा दई, गोला चलाए असमानी
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी
सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी
दोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
1857 की क्रान्ति में शाहाबाद के 80 वर्षीय कुंवर सिंह को दानापुर के विद्रोही सैनिकों
द्वारा 27 जुलाई को आरा शहर पर कब्जा करने के बाद नेतृत्व की बागडोर सौंपी गयी।
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम अंचलों में शेर बाबु कुंवर सिंह ने घूम-घूम कर
1857 की क्रान्ति की अलख जगायी। आज भी इस क्षेत्र में कुंवर सिंह को लेकर तमाम
किवदन्तियाँ मौजूद है। इस क्षेत्र के अधिकतर लोकगीतों में जनाकांक्षाओं को असली रूप
देने का श्रेय बाबु कुंवर सिंह को दिया गया-
अक्सर से चले कुंवर सिंह पटना आकर टीक
पटना के मजिस्टर बोले करो कुंवर को ठीक
अतुना बात जब सुने कुंवर सिंह दी बंगला फुकवाई
गली-गली मजिस्टर रोए लाट गये घबराईं।
1857 की क्रान्ति के दौरान ज्यों-ज्यों लोगों को अंग्रेजों की पराजय का समाचार मिलता वे
खुशी से झूम उठते। अजेय समझे जाने वाले अंग्रेजों का यह हश्र, उस क्रान्ति के साक्षी
कवि सखवत राय ने यूँ पेश किया है-
गिद्ध मेडराई स्वान स्यार आनंद छाये
कहिं गिरे गोरा कहीं हाथी बिना सूंड के।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी हुकुमत को हिलाकर रख दिया। बौखलाकर
अंगेजी हुकूमत ने लोगो को फाँसी दी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया और
तोपों से बाँधकर दागा-
झूलि गइलें अमिली के डरियाँ
बजरिया गोपीगंज कई रहलि।
वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें
कालापानी की सजा दे दी। तभी तो अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला
'कजरीÓ के बोलो में कहती है-
अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरि।
 बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी-बहिष्कार- प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंगे्रजी
कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था,
फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों-
फिर जाहु-फिर जाहु घर का समधिया हो
मोर धिया रहि हैं कुंवारी
बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो
मोर पूत रहि हैं उधार
बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो
तब होइ है धिया के बियाह।
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस
हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी
का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता। सुभद्राकुमारी चौहान न े'जलियावाले बाग में
बसंतÓ नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं
अपने प्रिय-परिवार देश से भिन्न हुए हैं
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना
तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर
यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे-से आना
यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।
कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावें किये जायें।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी
हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सराकार उन्हें जेल में डालने के लिए तड़प
उठी। 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेजी सरकार
ने निर्ममता से फाँसी पर लटका दिया तो मशहूर उपन्यासकार प्रेमचन्द के अन्दर का
देशप्रेम भी हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर
अपने घर लाये तथा कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फाँसी दिये जाने से
एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने 'दुनिया का सबसे अनमोल रतनÓ नामक अपनी प्रथम कहानी
लिखी थी, जिसके अनुसार-'खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये
गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।Ó उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप
सुनते ही बहनें चौकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चौहान ने 'बिदाÓ में लिखा
कि-
गिरफ्तार होने वाले हैं
आता है वारंट अभी
धक्-सा हुआ ह्दय, मैं सहमी
हुए विकल आशंक सभी
मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी
आज गिरफ्तारी होगी
फिर जी घड़का, क्या भैया की
सचमुच तैयारी होगी।
 आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस
दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है-
जागा बलम् गाँधी टोपी वाले आई गइ लैं......
राजगुरू सुखदेव भगत सिंह हो
तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।
    सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे, जिन्होंने हँसते-हँसते फाँसी
के फन्दों को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त
नहीं कर पाता और गाता है- एक-एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है-
तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है
मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा
अपनी-अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा
मै उनसे अपना वीर भगत सिंह माँग लाऊँगा।
    इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका
लोकगीत में कहा गया-
हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कस
आहिुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों
तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगगी भर नैस भुलैबे
देश तोरो रिनी रहेते।
सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगाÓ, फिर क्या
था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएँ भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो
उठी-
हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-कड़ा पैंजनिया छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होंने
स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को
प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते-
अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गाँधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।
भारत माता की गुलामी की बेडिय़ा काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस
के साथ कि आने वाली पीढिय़ाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो
अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढिय़ाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं।
कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषीÓ इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
कभी वह दिन भी आएगा, जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा
था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से
ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ संजोते हैं-
चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन
नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण
तरूण-अरूण-सा अदित हुआ परिदीप्त कर भुवन
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन
 देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व्यवस्था
को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं
का डर........ गिरिजाकुमार माथुर 'पन्द्रह अगस्तÓ की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं
और सचेत भी करते हैं-
आज जीत की रात, पहरूए, सावधान रहना
खुले देश के द्वार, अचल दीपक समान रहना
ऊँची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है
किन्तु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है।
आजादी की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम
बेडिय़ो में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के
साथ हम आजाद हुये। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु
भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना
का प्रबुद्ध अभिमान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी
कमजोरियों का विश£ेषण करें, तद्नुसार उनसे लडऩे की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए
परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थो के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का
निर्माण करें।     (साभार रौताही 2011)
                                                                        टाइप 5 क्वार्टर, हॉर्टीकल्वर रोड,
                                                                       हैडो, पोर्टब्लेयर, अंडमान व निकोबार
                                                                        द्वीप समूह - 744102

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