Sunday 24 July 2011

विख्यात मेलों का जनपद महेन्द्रगढ़

-समसेर कोसलिया 'नरेश'
महेन्द्रगढ़ जनपद आज भले ही राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ हो किन्तु इसका अतीत
समृद्ध एवं महत्वपूर्ण रहा है। यहां के तीन प्रसिद्ध ऋषियों के मार्ग दर्शन से पूरा संसार
विज्ञान की ऊचाईयों को छूने में कामयाब हुआ है। ऋषि मुनियों, संत महात्माओं, देवी-
देवताओं से जूड़े स्थलों पर उत्सवों, मेलों का आयोजन होना स्वाभाविक है।
मेलों का प्रचलन हमारे देश में प्राचीनकाल से ही रहा है। मेला शब्द का अर्थ बहुत से
लोगों का जमावड़ा, भीड़-भाड़ उत्सव आदि होता है। एक पुरानी कहावत ''मेला मेली
का, पैसा धेली का,धक्का पेली का। कहावत में ठीक ही कहा गया है कि मेले में दूर-
दराज के सगे सम्बन्धि मिलते हैं। मेले में वस्तुओं को खरीदने हेतु धन खर्च होना
स्वाभाविक है। जहां भीड़-भाड़ हो तो वहां धक्कम-धक्का तो होगी ही। ये मेले हमारे
महापुरूषों के जन्म दिवस,पुन्य तिथियों एवं विभिन्न तीज त्यौहारों के अवसरों पर भरते हैं।
जनपद के मेले ज्यादातर किसी ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा, अवतार या सिद्ध पुरूष के
जन्म या कर्म स्थल और पुराने कथाओं से सम्बन्धित हैं। अनेक युग पुरूषों की स्मृति में
अनेक समाधि स्थलों पर हर साल उत्सवों जैसा आयोजन होता है। ऐसे स्थलों पर देवी-
देवताओं आदि से सम्बन्धित चमत्कार की अनेक जन कथायें जुड़ जाने से लागों में
आस्था एवं विश्वास का मजबूत होना स्वाभाविक ही है। इसलिए ये कथायें भक्तों को मेलों
में सामिल होने के लिए प्रेरणा का कार्य करती रही हैं। बीरबल जैसे ज्ञानी सूरवंशी
बादशाह शेरशाह सूरी की जन्म स्थली, नित्यानन्द, सूखीराम, शिवलाल, मोहर सिंह,
बख्तावर, सम्भुदास, जैसे कवियों की जन्म भूमि एवं च्यवन, पिप्लाद, उद्दालय ऋषि-
मुनियों की तप स्थली व कुशालदास शान्तीनाथ, खेतानाथ,सेवादास, खेमदास, खिम्मज,
रामेश्वरदास, जयरामदास, मोलडऩाथ आदि सन्तों की कर्मभूमि के गौरव जनपद के प्रमुख
मेले निम्र हैं-
मेहेन्द्रगढ़ जनपद के मुख्यालय एवं प्राचीन राजा नूनकरण के बसाये ऐतिहासिक व
पुरातात्वीक महत्व के शहर नारनौल से पश्चिम में कोई आठ किलोमिटर की दूरी पर स्थित
ढोसी पर्वत च्यवन ऋष्ज्ञि के नाम से जुड़ा एक प्रसिद्ध आस्था का केन्द्र है। आरावली
पर्वत श्रृंखला के ढोसी स्थित विशाल पर्वत की चोटी पर एक बड़ा व खुला मैदान है। इस
मैदान में मन्दिर व पवित्र कुण्डों का स्थान धार्मिक लोक आस्था का केन्द्र है। इसी मैदान
पर भृगु पौत्र, च्यवन ऋषि ने अनेक वर्ष तक तपस्या की और अपनी घोर साधना से एक
प्राश (औषधि) की खोज की थी जो च्यवनप्राश के नाम से जग में प्रसिद्ध है। पर्वत पर
स्थित मैैदान के पास एक विशाल चट्टान के पास एक गुफा आज भी मौजूद है। जहां
तपस्या की थी च्यवन ऋषि ने। सोमवती अमावस्या के दिन यहां विशाल मेला लगता हैं
इस दिन यहां की चहल-पहल बड़ी मनमोहक होती है। हरियाण ही नहीं अपितु देश के
कौन-कौन से लाखों भक्तजन यहां पंहुचते हैं। पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई को रंग-बिरंगे
परिधानों में सजे बच्चे, युवक, युवतियां व बूढ़े बड़े ही चाव से परिपूर्ण होकर चढ़ते हैं।
यह अरावली पर्वत श्रंखला का एक विशाल पर्वत है। जनपद के गांव कुलताजपुर जो
पर्वत के दक्षिण मेें है वहां से सुगम सिढिय़ों की चढ़ाई शुरू होती है जो पत्थर की
घुमावदार सिढिय़ां संख्या में 475 हैं। चढ़ाई आरम्भ करने के पश्चात करीब 500 फिट की
ऊंचाई पर शिव कुण्ड नामक स्थल आता है। जहां एक प्राकृतिक झरना है जिसका जल
तालाब में गिरता रहता है ओर इसी तालाब में भगतजन स्नान करते हैं। अससे आगे ज्यों-
ज्यों चढ़ाई चढ़ते हैं तो कुदरती नजारा बड़ा खुश नशीब दीख पड़ता है। दूर दूर तक
धरातल पर फैले खेतों की हरियाली का आकर्षक नजारा तीर्थ यात्रियों का मन मोह लेने
से भी नहीं चूकता।
ढोसी पर्वत की चोटी पर पंहुचने के बाद लगभग 200 फिट नीचे की ओर मैदान पर
उतरना होता है। यह वह स्थान है। जहां धरती पर होने का भ्रम होता है मगर वह स्थान तो
धरातल से हजारों गज की ऊंचाई पर है। यहां का शान्त परिवेश मन को बड़ी शान्ती देने में
समर्थ है। यहां पर शोरगुल की दुनिया से दूर रहकर कुदरत की गोद में रहकर व्यस्त
दिनचर्या से निजात पाया जा सकता है। पर्वत पर चट्टानों का टिकाव देखने योग्य है
जिन्हें देखेने से ऐसा लगता है कि ये चट्टाने अब गिरी तब गिरी किन्तु ये चट्टाने युगा-
युगो से ज्यों की त्यों अडिग हैं। एक जन श्रुति है कि पर्वत पर चट्टानों के मध्य सफेद
लकीरें अर्जुन के रथ के पहियों के निशान हैं। यह वही स्थल है जहां राजा श्र्याति की पुत्री
सुकन्या का विवाह ऋषि चयवन से हुआ था और सुकन्या की कोख से जमदग्री ऋषि का
जन्म हुआ था।
प्राकृतिक सौन्दर्य व धार्मिक विश्वास सदा से ही यह स्थान लोकार्षण का केन्द्र रहा है।
इसी वजह से शायद नारनौल शहर को बसाने वाले राजा नूनकर्ण ने पहले पहल इसी पर्वत
पर अपना दुर्ग बनवाया था। पर्वत पर बिखरे दुर्ग के अवशेष इसके मूक गवाह बताये जाते
हैं। जिला प्रशासन ने इस धार्मिक स्थल पर श्रद्धालुओं की आस्था को ध्यान में रखकर ही
पीने के पानी का अचित प्रबन्ध व यात्रियों के ठहरने हेतु स्थल बनाने का कार्यक्रम तैयार
किया हुआ है। गत 4 नवम्बर 2003 को भारतीय संस्कृति एवं कलानिधि हरियाणा की
अध्यक्षा श्रीमती कोमल आनन्द ने ढोसी पर्वत का पुरातात्विक टीम के साथ दौरा किया
था। ढोसी पर्वत को एतिहासिक एवं मनोहारी मानकर तीन हरियाणवीं फिल्मों झनकदार
कंगना, जर जोरू और जमीन और लाडो की सूटिंग यही हुई थी।
नाभा रियासत के राजा हीरासिंह को संतान प्राप्ति हेतु काटी के परगने दार ने सलाह दी थी
कि बाबा नरसिंहदास से संतान प्राप्ति हेतु मिले। राजा-रानी बाबाजी से मिले तो बाबा के
आशिर्वाद से राजा को टिब्बा सिंह व टिब्बा बाई के रूप में एक लड़का वे एक लड़की
की प्राप्तिज हुई। राजा ने बाबा कुटिया वाले स्थल पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण
करवाया और पुजारी के वेतन की व्यवस्था राज खजाने से की। यह व्यवस्था हरियाणा
अलग राज्य बनने तक जारी रही। यहां पर प्रति वर्ष बसन्त पंचमी व कार्तिक सुदी द्वितीया
को भव्य मेले लगते हैं। गांव में सरभंगी संत गणेश दास जी की याद में मकर स्क्रान्ति को
मेला लगता है। बाबा नरसिंहदास मन्दिर में प्राचीन एवं दुर्लभ हस्तचलित हवा का पंखा
आज भी विराजमान है।
महेन्द्रगढ़ शहर से चरखी दादरी सड़क पर 9 किलोमीटर दूर गांव पाली में बाबा
जयरामदास की याद में मागबदी एकादशी को मेला भरता है। कहा जाता है कि पटियाला
के राजा नरेन्द्र सिंह को बाबा के वरदान से महेन्द्र सिंह नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। राजा
ने खुश होकर कानौड़ का नाम राजकुमार के नाम पर महेन्द्रगढ़ रखा और इस तमाम क्षेत्र
की पांच वर्ष की उगाही माफ कर दी थी। वीरों की एवं कान्हा की नगरी के नाम से जाना
जाने वाला नगर कनीना में बस अड्डे के पास 'फाल्गुन सुदी एकादशी को बाबा
मोलडऩाथ की याद में भव्य मेला ही नहीं लगता अपितु मेले के अवसर पर ऊट-घोड़ो
की दौड़ मुख्य आकर्षण का केन्द्र होते हैं। इस इक्कीसवी सदी में भी श्रद्धालुजन शक्कर का
ही प्रसाद बांटते हैं। बहुत से श्रद्धालुजन बाबा जयरामदास और बाबा मोलडऩाथ के चरणों
में शराब का भोग लगाते हैं। यह गलत धारणा पता नहीं कहां से आ पनपी।
महेन्द्रकढ़ शहर से आठ किलोमिटर की दूरी पर स्थित गांव बुवानिया के खुडाली नामक
स्थल पर बाबा खेमदास की याद में धुलण्डी को विशाल मेला लगता है। बाबा परमसिद्ध
पुरूष्ज्ञ थे। वहीं बाबा के शिष्य भगवानदास के चेले अमरदास एक अच्छे वैद्य भी हैं और
लोगों की निशुल्क सेवा भी कर रहे हैं। चढ़ाया इतनां आता है कि दवाओं के खर्च के
अलावा बचे हुए धन से वरिष्ट माध्यमिक विद्यालय भवन में दर्जनों कमरों का निर्माण व
धर्मशाला का निर्माण भी करवाया गया है। महेन्द्रगढ़ शहर से करीब 16 किलोमिटर दूर
सेहलंग गांव में बाबा खिमज की याद में बसन्त पंचमी के दो दिन बाद अरावली पर्वत
श्रंखला की सुन्दर पहाड़ी पर एक विशाल मेला लगता है। महेनद्रगढ़ शहर से कोई 12
किलोमिटर दूर माण्डोला गांव में बाबा केसरिया मन्दिर में भादवा बदी शप्तमी को विशाल
मेला भरता है। इस मेले के अवसर पर रेल विभाग रेवाड़ी बीकानेर के बीच कई और रेल
गाडिय़ा चलाता है। कहा जाता है कि बाबा की कृपा से बिना किसी दवा दारू, झाडफ़ुंक
के सांप के काटे रोगी का अपने आप ही ईलाज हो जाता है। मन्दिर प्रांगण में खड़े जाटी
के पेड़ का टहनी से पनपना एक चमत्कार माना जाता है।
महेन्द्रगढ़ शहर में मसानी मुहल्ले के पास माँ मसानी का भव्य मेला धुलण्डी के सात दिन
बाद आने वाले बुद्धवार को लगता है। यहां पर स्थित माता मसानी का मन्दिर हजारों वर्ष
पूर्व किसी बंजारे के हाथों से निर्माण हुआ बताया जाता है। भोजावास में बाबा जिन्दा का,
भादवा बदी नवमी को गांव बुवानिया, कनीना में भी भव्य मेले लगते हैं। देवी माँ का मेला
चेत्र बदी अष्ठमी को नांगल चौधरी में, कनीना अटेली मार्ग पर गांव महासर में चैत्र व
आसोज सुदी सप्तमी को विशाल मेले लगते हैं। ये मेले दुर्गा माता से मनोकामना पूर्ति हेतु
भरते हैं। इस दिन सैकड़ोंं गांवों के लोग अपने नवजात शिशुओं की धोक लगवाने यहां
आते हैं। संत कबीरदास की जयन्ती को गांव कमानिया में। गांव बिहाली में 15 अगस्त व
26 जनवरी को महान स्वतन्त्रता सेनानी राव तुलाराम की याद में, चैत्र सुदी नवमी को दुर्गा
माता का भव्य मेला गांव सहबाजपुर में। गांव खेड़ी में राम नवमी को भारी मेला लगता है।
बाघेश्वर धाम का मेला प्रत्येक शिवरात्रि को भरता है। सावन का महिना लगते ही जब
समुचा परिवेश बारिस की रिम-झिम फुंहारों में नहाकर इक नई सुरभि से सुवासित हो
उठता है और प्रकृति हरितिमा का नया परिधान ओड कर इठला पड़ती है तब हरियाणा का
बाघेश्वर धाम नामक तीर्थ स्थल एक नये स्पन्दन से झंकृत हो जाता है। हरियाणा के
विभिन्न भागों तथा पड़ोसी प्रदेशों से भी कंधे पर कावड़ उठाये तीर्थ यात्रियों की कभी न
टूटने वाली कड़ी 'बोल बमÓ मेले की ओर अग्रसर होती दीख पड़ती है। प्रयाग मेले की
ही भांति यह मेला पूरे मास चलता है और तीर्थ यात्रियों का यहां पहुंचना निरन्तर जारी
रहता है।
कावडिय़ों के नाम से विख्यात यहां श्रद्धालुजन बांस की सजी-सजाई कावड़ के छोरो पर
एक-एक शुद्ध पात्र में गंगाजल और मन में श्रद्धा का सागर लिये किसी अदृश्य शक्ति से
संचालित आस्था के वशीभूत कंटका कीर्ण मार्ग के घाटों से होकर अपनी नियति का
अभिसार करने बाघेश्वर धाम पंहुचते है। श्रद्धालुजन चार तरह की कावड़े लाते है जिनमे
खड़ी, बैठी, झूला और डाक कावड़ होती है। बैठी व झूला कावड़ को लाने में एक-एक
श्रद्धालु की जरूरत होती है। खड़ी कावड़ को लाने में दो की आवश्यकता होती है। डाक
कावड़ को 10-12 श्रद्धालुओं की मदद से दौड़ते हुए हरिद्वार से बाघोत तक लाते हैं तथा
एक वाहन उनके साथ चलता है। इस तीर्थ स्थल को देश में पवित्रतम माना जाता है तथा
शिव के उपासक गोमुख तथा हरिद्वार से लाए गंगाजल का अध्र्य शिवलिंग पर चढ़ाकर
स्वयं को धन्य समझते हैं।
लोक परम्परा तथा आस्था से बधे लाखों अनाम तीर्थ यात्री न केवल प्रदेश के विभिन्न
हिस्सों से होते हैं बल्कि पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और दिल्ली जैसे प्रदेशों
से ज्यादा संख्या में आते हैं। बाघेश्वर धाम शिवमंदिर के स्वयभू शिवलिंग की यद्यपि पूरे
वर्ष पूजा-अर्चना की जाती है, पर सावन के महीने में यहां आराधना का विशेष महत्त्व है।
गैरूए वस्त्रधारी तीर्थ यात्री बाघोत से कोई 350 किमी दूर हरिद्वार (हरकीपौड़ी) तथा कोई
600 किमी दूर गोमुख (गंगोत्री) में गंगा की निर्मल जलधारा से पवित्र जल दो शुद्ध पात्रों
में एकत्र कर मन्दिर तक का समूचा रास्ता नंगे पाव तय करते हैं।
सावन लगते ही कावडिय़ों का एक अन्तहीन सिलसिला गोमुख तथा हरिद्वार से
बाघेश्वरधाम के समचे मार्ग को नए स्पदंन से जीवन्त बना देता है। बोल बल, बोल बम
का जाप करते ये तीर्थ यात्री समूचे परिवेश को प्रतिनिधित्व कर देते हैं। कभी-कभी कोई
बोल उठता है, जयकारा वीर बजरंगी, संग चल रहे यात्रि दोहराते हैं. हर-हर महादेव।
आस्था से उनका पथ ऐसे क्षणों में दूरियों को सिमटा देता है।
बाघेश्वर धाम मन्दिर का निर्माण रैबारी राजा कल्याण सिंह द्वारा करवाया जाता है। उनके
ऊट खो गए थे या डाकुओं ने लूट लिए थे जो शिवजी की कृपा से पुन: मिलने पर शिव
मन्दिर का निर्माण कलियाणा के राजा कल्याण सिंह ने करवाया। मन्दिर में स्वयं उत्पन्न
शिवलिंग आज भी है जो कभी भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप को भगवान शिव ने
बाघ रूप में दर्शन दे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। बाघ रूप में दर्शन देने के कारण इस
धाम का नाम 'बाघेश्वर धाम पड़ा। कुछेक लोगों का कथन है कि यहां हरियेक वन में
बाघों का अधिकता होने के कारण इस धाम का नाम 'बाघेश्वर धाम पड़ा। चाहे जैसे भी
पड़ा हो किन्तु नाम से ही गांव का नाम बाघोत पड़ा।
बाघोत गांव महेन्द्रगढ़ शहर से उत्तरपूर्व में करीब 25 किलोमीटर खण्ड कनीना से उत्तर में
करीब 18 किमी चरखीदादरी से दक्षिण में कोई 22 किमी कोसली से पश्चिम में कोई 22
किमी दूरी पर स्थित है। सावन मास में भरने वाले मेले के अवसर पर यहां दूर-दराज क्षेत्रों
के सेवकों की सैकड़ों सेवा समितियां होती है जो मेले में लोगों की मदद व नियंत्रण करती
है। पूरा जिला प्रशासन इस समय मेले में ही होता है। सावन मास के अलावा यहां पर
फाल्गुन माह की महाशिवरात्रि को भी विशाल मेला लगता है। सावन माह में तो यहां
आधा करोड़ से भी ज्यादा श्रद्धालु शिवलिंग पर अपनी श्रद्धा का अभिषेक करने पहुंचते
हैं। इन अवसरों पर बड़ी-बड़ी कुश्तियों का आयोजन होता है। यहां शिव मंदिर में पीढ़ी
दर पीढ़ी पुजारी रहते आए हैं। गत शिवरात्रि के मेले के अवसर पर प्रशासन द्वारा ट्रस्ट
बना दिया गया था मगर पुजारी कोर्ट से स्टे ले आया बताया जाता है। इस मेले के अलावा
फाल्गुन एकादशी को श्याम जी का भव्य मेला लगता है। धाम पर करीब 45 धर्मशालाएं
यात्रियों के विश्राम के लिए बनाई हुई है।
बाघोत के अलावा गांव खायरा, कुराहवटा, नारनौल, धनौन्दा, खेड़ी-तलवाना, सीहमा,
निवाजनगर, धरसो, गुढ़ा, सिहोर, स्याणा, बसई, खुडाना, सिसोठ, कांटी, महेन्द्रगढ़,
फतनी, सैदपुर, लावन, खोड़ में भी छोटे-छोटे मेले भरते रहते हैं। जनपद के गांव धरसो,
महासर, कुरावहटा, महेन्द्रगढ़ आदि गांवों में समय-समय पर पशुओं के मेले भी भरते
रहते हैं। इन मेलों के अवसर पर खेल एवं कुश्तियों का आयोजन होता है। इन मेलों की
विरासत को महेन्द्रगढ़ जनपद आज तक पाश्चात्य संस्कृति से बचाए हुए हैं।
(साभार रौताही 2011)
                                                            साहित्य वाचस्पति मु.पो. स्याणा तह. व
                                                           जिला महेन्द्रगढ़ 123027 (हरियाणा) मो. 09466666118

No comments:

Post a Comment