Friday 22 July 2011

एक भूली बिसरी लोकगाथा : पराक्रमी परसू

प्रा. आनंद यादव -
लोक साहित्य के अन्र्तगत लोकगाथाओं या कथाओं को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सदियों से गेय-गाथाओं या दन्त कथाओं के रूप में चली आ रही  ये लोक कथाएं हमारीसांस्कृतिक धरोहर ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। क्षेत्र-विशेष की उथल-पुथल व सांस्कृतिक विविधताओं की जानकारी हेतु लोकगाथाओं का विशद अध्ययन आवश्यक है, जिनमें तात्कालिक समाज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक स्वरूप की स्पष्ट झलक मिलती है। इन लोक-कथाओं ने क्षेत्र-
विशेष के बाहर भी अपने पाँव पसार कर आंचलिक साहित्य व संस्कृति के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
परसू-पँवारा भी एक ऐसा ही लोक-काव्य है जो उत्तरी-भारत के अनेक अंचलों में बड़ी ही श्रद्धा व सम्मान के साथ गाया जाता है। पूर्वांचल में लोरिकी-गायन के अनुरूप ही
पश्चिमांचल मुख्यत: रूहेलखण्ड  मण्डल व उस से सटे जनपदों में पंवारा गायन की यह
लोकविधा शताब्दियों से जन-मानस को अनुप्रेरित करती आ रही है। रुहेलखण्ड में
'कन्नाईÓ या 'छिलडिय़ाÓ तो बुन्देलखण्ड क्षेत्र में धर्मा सांवरी व परसा की गाथा-रूप में
यह काफी लोकप्रिय है। जख, चोखली, वंश, ढोला व भाका आदि में 'कन्नाईÓ को
अपना विशेष स्थान प्राप्त है।
सूप, कोरों का पत्ता, घोंघी या मँूज आदि वाद्य यंत्रों की मदद से सात दिन, सात रातों तक
चलने वाली 'हरि अनंत हरि कथा अनन्ताÓ सदृश्य परसू-पंवाड़ा के मनोयोग पूर्वक गायन
से युगल सर्प फन उठा कर झूमने लगते हैं व रिमझिम पानी भी बरसने लगता है। ऐसी
लोक मान्यता है कि एक हाथ कान पर रखकर व दूसरा हवा में लहराते परसू-पंवाड़ा का
गायक कभी विजना घोड़ी पर सवार हाथ में कुररा लिये परसू की तरह मूंछों पर ताव देता
फड़कने लगता है तो कभी परसू की विजय श्री का वर्णन करते अपार खुशी से झूम उठता
है।
एक किंवदन्ती के अनुसार उ.प्रदेश के पीलीभीत जनपद में स्थित बिलई-खेड़ा के राजा
बलि के पास भारी मात्रा में पशुधन था, परसू सरदार उन का प्रधान ग्वाल था, नांद
पसियापुर से बिलई पसियापुर तक अनेक गौशालाएं बनी हुईं थीं, मार्ग में स्थित डण्डिया
भुसौड़ी से पशुओं का चारा-भूसा आदि रखा जाता था, कभी इस क्षेत्र में छड़ा, रसुईया,
बरा आदि विशाल गौड़ी ( गायों के चारागाह) व निजाम, अजीत, गूलर, भॉड़, भगा आदि
बारह डाण्डियाँ (गायों के बैठने के स्थान) आज भी है, परसुआ अटास्थित गौशाला से
दूध दूह कर प्रस्तर नालियों व सुरंगों द्वारा चक्र-सरोवर में लाया जाता था जहां उसका
मंथन होता था लगभग आधा क्विंटल भारी मथानी चक्र सरोवर के पास पड़ी है जिसकी
लोग पूजा करते हैं।
अंग्रेज पुरातत्वविद जनरल कनिंघम जो वर्षो पूर्व परसू ग्वाल का महल या अटारी कहे
जाने वाले परसुआ-अटा स्थल पर पहुंचे थे ने लिखा है 'परसुआ कोट राजा बलि द्वारा
अपने अहीर सेवक परसुआ के लिये बनाए गए भवनों का मंदिर के प्राचीन अवशेष है.Ó
धरातल पर 450 वर्ग मीटर लम्बे, 100 वर्ग मीटर चौड़े व 62 मीटर ऊंचे परसुआ कोट या
टीले का सावधानीपूर्ण उत्खनन किये जाने की आवश्यकता है।
परसू वीर तथा साहसी राजकुमार थे, अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद बांगर-बिलई
(बिलई-खेड़ा) अपने मामा राले सरदार की शरण में अनुज थोंदू व बहिन राजकुमारी
मिंगनी को लेकर पहुंचे, राले की पत्नी मामी साँवरी ने उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया,
राले सरदार ने दोनों राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्रऋ चलाने, मल्ल-युद्ध व गोपालन की उत्तम
शिक्षा-दीक्षा दी, परसू-थोंदू दोनों भाई 12 बहंगी दूध प्रतिदिन चकर तीर्थ के शिव मंदिर
में चढ़ाते थे, बैरी-विद्रोह गुरैना व बिल्हैना सांड़ सदा उन के साथ रहते थे।
बड़े भाई परसू का विवाह राजा सूरज मल की कन्या सनरिया देवी या शीला भवानी के
साथ व अनुज थेंदिया का विवाह नींबागढ़ रियासत में रानी द्विलरिया से हुआ था,
लोकगाथा की उक्ति :-
'आठ ब्याहीं, नौं धरी, सोलह गौने यार ददा परसू केÓ के अनुसार परसू के आठ विवाहित
रानियों के अतिरिक्त रणक्षेत्र में विजय प्राप्त कर व डोला स्वीकार कर लायी गई कई
रानियाँ थी।
दोनों भाइयों ने अपने मामा राले के कुशल निर्देशन में बाँगर-बिलई राज्य की रक्षा करते
हुए बर्द गुरहैना व मित्र र्दुजना गूजर की मदद से अनेक साहसिक कार्य किए, काली-
कीच, भूरा दानव, धीरा-विजयी व लच्छा बाघिन का अन्त, लखमा घोषित के 12 बेटों से
युद्ध, तेली राठौर से लड़ाई, लोहागढ़ की विजय, रानी मैनरा से विवाह, राजकुमारी फूल-
बघौरी से प्रेम-प्रसंग, कामरूप देश की विजय आदि अन्यानेक कार्य इस लोक-गाथा के
मुख्य विषय हंै, परसू की रानी शीला भवानी द्वारा अपने सतीत्व के बल पर साठ कोस दूर
गंगा-घाट तक सूखे में घन्नई ले जाना आश्चर्य चकित करता है तो धीरा-बाड़ी के
सरदारों, करौनिया दानव का अंत व कामरूप देश की मनसा व तमनसा जादूगरनियों के
मोह पाश से बच निकलने के प्रसंग रोमांचित भी करते हैं।
पराक्रमी परसू ग्वाल जगनिक कवि द्वारा रचित आल्हा खण्ड में वर्णित महोबा के वीर
सरदार, आल्हा-उदल, मलखान, ढेबा व ब्रह्मा के समकालीन बताए जाते हैं। सम्भल
(मुरादाबाद) के निकट मनोकामना तीर्थ पर पृथ्वीराज चौहान न नागाओं के साथ हुई
तीनों लड़ाइयों में परसू ग्वाल ने अपने मित्र मन्ना गूजर के साथ मिलकर डट कर
मुकाबला किया व सिरसागढ़ की अंतिम लड़ाई व बांदोगढ़ की लड़ाई में जहां राजकुमारी
सुरजा का अपहरण हुआ था अटूट शौर्य व पराक्रम प्रदर्शित करते हुए वीर गति प्राप्त की
थी, बांगर-बिलई (पीलीभीत) क्षेत्र में चकर तीर्थ के निकट भारी मथानी, परसुआ कोट,
पसियापुर व ध्यानपुर ग्रामों में गाय-बैलों की प्रस्तर प्रतिमाएं, कन्नापुर व गझनेरा में 4
मीटर व्यास के ऊंचे बुर्ज व बैठकें ओढ़ाकर का टीला, सांवरी, ताल सहित अनेक ताल
गौड़ी, डांडी आदि परसू से संबंधित  स्थलसे लोक गाथा की सत्यता के स्पष्ट प्रमाण हंै
किन्तु समय के अन्तराल से ये सभी प्रतीक व प्रमाण ध्वस्त व विलुप्त से होते जा रहे हैं।
भगवान श्री कृष्ण के वंशज विशाल गो-धन की सेवा-सुश्रुषा कर दूर-दूर तक अपनी
विजय-पताका लहलहाने वाले परसू ग्वाल की यह लोक गाथा उत्तर-भारत ही नहीं,
यादव समाज के गौरवमय अतीत की अमूल्य थाती है, खेद तो इस बात का है कि परसू
पंवाड़ा जैसी लोकप्रिय गाथा के मंचन, प्रदर्शन, लेखन व प्रस्तुतीकरण की दिशा में आज
तक कोई संगठित प्रयास ही नहीं किया गया है। न ही कोई आडियो, वीडियो, सीडी
कैसेट्स आदि का निर्माण ही किया गया है। परसू-थोंदू की अनेकानेक रोचक गाथाओं से
जुड़े परसू-पंवाड़ा पर तो पूरी एक फिल्म या सीरियल भी बनाया जा सकता है व इस
धारावाहिक के प्रसारण से जनमानस में इसकी लोकप्रियता को बनाए रख जीवन दान
दिया जा सकता है।
पूर्वांचल में लोरिकी-गायन के अनुरूप ही पश्चिमांचल व उत्तरी भारत में परसू-पराक्रम
की यह लोकगाथा जन मानस में अपार ख्याति व श्रद्धा अर्जित कर श्रुति व स्मृति के बल
पर जीवित है।
अक्षर ज्ञान से अनभिज्ञ पंवाड़ा गायक ही इस लोकगाथा के प्रमुख रक्षक कहे जा सकते हैं
जिन्होंने शताब्दियों से इसे अपने कण्ठों व स्मृतियों में अक्षुण्य बनाए रखा है। इस पीढ़ी के
समाप्त होते ही लोकविधा की इस अनूठी परम्परा की पहिचान व नामोनिशान भविष्य में
विलुप्त होने की पूरी आशंका है। राजप्रसादों व ऊंची अट्टालिकाओं में बैठ कर लेखनरत
इतिहासवेत्ताओं द्वारा उपेक्षा व विस्मृति के बाद भी बांगर-बिलई की माटी में यह
लोककाव्य आज भी महक रहा है व पँवाड़ा का नायक परसू ग्वाल जनमानस के मन-
मस्तिष्क में अपनी अमिट छाप बनाए हैं।
44 नेहरु मार्ग, पो. टनकपुर 'नैनीतालÓ
(उत्तरप्रदेश), पिन- २६२३०९
(साभार रऊताही-2011  )


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