Monday 1 August 2011

लोक साहित्य में पर्यावरण चेतना

-गोवर्धन यादव
'लोक साहित्यÓ लिखने-पढऩे में एक शब्द है, पर वस्तुत: यह दो गहरे भावों का गठबंधन
है। 'लोकÓ और 'साहित्यÓ एक दूसरे के संपूरक...... एक दूसरे में संश्लिष्ट। जहाँ लोक
होगा, वहाँ उसकी संस्कृति और साहित्य होगा। विश्व में कोई भी ऐसा स्थान नही है जहाँ
लोक हो और वहाँ उसकी संस्कृति न हो।
मानव मन के उद्गारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियों का सजीव चित्रण यदि कहिं मिलता
है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है। यदि हम लोक साहित्य को जीवन का दर्पण
कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता
है कि लोककथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की
जननी। लोक साहित्य में कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा लोकजीवन का यथार्थ सहज
ही देखने में मिलता है।
लोक साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य हैं क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी,
जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं। अत: हमें जो भी उपलब्ध होता है, वह
गहन अनुुभूतियों तथा अभावों के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह
पलता और विकसित होता है। इसलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है।
साहित्य का केन्द्र लोक मंगल है। इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा
है। किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता। जहाँ
अनिष्ट की कामना है, वहाँ साहित्य नहीं हो सकता। वह तो प्रकृति की तरह ही
सार्वजनहिताय की भावनाओं से आगे बढ़ता है।
प्रकृति साहित्य की आत्मा है। उसका अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी
साहित्य की अनिवार्यता है। मिट्टी में सारे रचनाकर्म का 'अमृतÓ वास रहता है। रचनाकार
उसे नए-नए रूप देकर संपादित करता है। गुरू-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानों के
नजदीक ले आती है। यहाँ कबीर का कथन प्रासंगिक है। 'गुरू कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-
गढ़ी काठै खोट, अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहे खोट।Ó संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी
प्रकार के दोषों-खोटों से विमुख रहता है। इसमें लोकहित की भावना सामाहित है।
मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं- 'मलूका सोई पीर है जो
जाने पर पीर - जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर।Ó दूंसरों की पीड़ा समझने वाला
इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता। उसे वनस्पति की पीड़ा का भी भान
होता है। चराचर जगत के प्रति मैत्री का यह विस्तार साहित्य ही तो है।
लोक साहित्य में लोककथा-लोकनाटक तथा लोकगीतों को रखा जा सकता है, जिसमें
जनपदीय भाषाओं का रसपूर्ण-कोमल भावनाओं से विकसित साहित्य होता है। भारतीय
लोक साहित्य के मर्मज्ञ आर.सी टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य की साहित्यिक
दृष्टिकोण से विवेचना करना उसी सीमा तक उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित
सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। यदि लोक साहित्य की
वैज्ञानिकी विवेचना की जाती है तो मूल विषय नीरस तथा बेजान हो जाएगा।
लोक के हर पहलू में संस्कृति का दिव्य दर्शन होता है। जरूरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरल
सोच की। लोक साहित्य के उद्भट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भंडार को
स्पष्ट तौर पर स्वीार करते हुए कहा था- 'मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियाँ भर कर
मोती लाया।Ó
पर्व और त्यौहारों के इतिहास में हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास छिपा
है। बहुत सारे त्यौहार ऐसे हैं जो प्रकृत की गोद में और प्रकृत के संरक्षण में मनाए जाते है
जैसे गोवर्धन पूजा, आंवला पूजन, गंगा सप्तमी, माह कार्तिक में तुलसी पूजन आदि। ये
सभी पर्व हमें अपनी प्राकृतिकता से सह संबंधों की परम्पराओं की याद दिलाते हैं। ऐसे
पर्व जो प्रकृति के विभिन्न घटकों को पूजने के दिन के रूप में मनाए जाते हैं। उसी पर्व के
अवसर पर सम्पन्न क्रियाकलाप और समारोह प्रकृति-प्रेम एवं प्रकृति के प्रति
संवेदनशीलता का नया वातावरण हमें प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए उत्प्रेरित
करते हैं। प्रकृति घटकों के सह संबंध हमें नई भौतिक संस्कृति एवं लोभ मानस-पटल पर
नहीं होंगे तो स्वार्थमय भौतिक संस्कृति जैसे 'प्रदुषण संस्कृतिÓ प्रकट नहीं होगी और
पर्यावरण शुद्ध बना रहेगा।
भारतीय जनजीवन में वृक्षों को देवता की अवधारणा की परम्परा के फलस्वरूप इनकी
पूजा अर्चना की जाती है। पीपल के वृक्ष में श्रीकृष्ण ने अपनी विभूति बनायी है। ऐसा
माना जाता है कि पीपल के वृक्ष के फूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण,
पत्तों में श्री हरि और फलों में सब देवताओं से युक्त 'अच्युतÓ निवास करते हैं। मान्यता है
कि अशोक वृक्ष लगाने से कभी शोक नहीं होता। बिल्व वृक्ष दीर्घायु प्रदान करने वाला
होता है। वल्बल, मधुक (महुआ) तथा अर्जुन वृक्ष सब प्रकार का अन्न प्रदान करता है।
कदम्ब वृक्ष से सुफल लक्ष्मी प्राप्त होती है। आम का वृक्ष सौभाग्य बर्धक होता है।
आज भी विभिन्न भागों  में पीपल, तुलसी, गूलर, बरगद, और आम की पंच-वृक्षों में
गणना होती है और पूजे जाते है। धार्मिक आस्था के अनुसार सभी हरे वृक्ष पूजनीय और
उनको काटना पाप समझा जाता है।
विभिन्न तथ्यों एवं लोक जीवन की शैली के आधार पर निष्कर्ष रूप मेें कह सकते हैं कि
वृक्ष हमारी संस्कृति अभिन्न अंग रहे हैंं। (साभार अक्षरशिल्पी)
                                                                          कावरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)

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