Saturday 23 July 2011

सपनों का यथार्थ

-ले. रघुवीर सिंह यादव
चुनावों से अच्छी सफलता और अधिक सीटें प्राप्त करने के सिद्धांत एवं रणनीति तय
करने के लिए दिल्ली में कार्यरत, स्थित समसत यादव संस्थाओं व संगठनों की एक
चुनाव पूर्व बैठक आयोजन किया गया था। या. से.स. की कार्यकारिणी के साथ मैं भी
वहां उपस्थित हुआ था। उस बैठक में लम्बे चौड़े विचार-विमर्श के बाद अत्युत्तम नीति
निर्धारित की गई कि सब दल अभ्यर्थी और संगठन बिरादरी के साथ इसका पालन
करेंगे। भविष्य के फीलगुड के साथ बैठक सम्पन्न हो गई।
घर लौटने पर नित्य कर्म से निवृत्त होकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। थकावट के
कारण जल्दी ही गहरी नींद आई और मैं स्वप्नलोक में विचरण करने निकल पड़ा।
क्या देखता हूं कि मैं एक जलयान में समुद्री यात्रा कर रहा हूँ। वहाँ मुझे डैक के पास एक
बाल्टी में कुछ केकड़े गतिशील दिखाई दिये। किसी ने कहा बाल्टी वहाँ से हटा दो
अन्यथा जल के जीव पुन: पानी में चले जायेंगे। सचमुच वे केकड़े बाहर निकलने की
कोशिश में थे। बाल्टी कोई नहीं हटा रहा था। मेरी नजर बाल्टी पर ही जमी थी। मैं देख
रहा था कि एक केकड़ा जब बाहर जाने के लिए ऊपर उठता तो दूसरा केकड़ा उसकी
टाँगों में अपनी टाँगे उलझा देता। इस टाँग खिंचाई के खेल में सारे के सारे केकड़े बाल्टी
ही में पड़े रह गये। एक भी बाहर नहीं निकल पाया।
मैं चौंका, आँख खुली, करवट बदली और फिर सो गया। इस बार सपना बदल गया। मैं
अपने गाँव के एक मुसलमान परिवार में पहुँच गया। वहां दो बच्चे चूल्हे के सामने खेल
रहे थे। माँ पानी भरने पनघट पर गई हुई थी। घर घास फूँस का था। दोनों ने सन की
एक-एक लकड़ी उठाई, चूल्हे में जलाई और उनका जलता हुआ सिरा छान तक ऊँचा
करके 'कलुआ तेरी बड़ी कि मेरीÓ का खेल खेलने लगे। छान में आग लग गई। बच्चे
डर के मारे पास की सार में जा छुपे। मैं आग बुझाने को दौड़ा। सपना फिर टूट गया। मगर
थकावट का मारा फिर सो गया। इस बार दृश्य पूरी तरह बदल चुका था। मैं एक पंजाबी
पिंड में  पहुँच गया था। जहाँ एक किशोरी अपनी माँ से मेला जाने की जिद कर रही थी।
माँ ने कहा कि मैं तुझे इस शर्त पर वहाँ जाने दूँगी। तू वहाँ ढोलकी की ताल पर नहीं
थिरकेगी। अब तेरी सगाई (कुड़मई) हो चुकी है, बचपन पीछे छूट गया। कोई देखेगा तो
हमारी बदनामी होगी।  हाँ, कहकर बेटी मेला देखने चली गई। किन्तु वह मेले में ढोलकी
की ताल पर स्वयं को नाचने से न रोक सकी। लौटने पर माँ ने वचन भंग का कारण पूछा
तो सरल सा उत्तर था 'माँ मैं रह न सकीÓ। सपना टूटा, मेरी आँख खुल गई और मैं
चिन्तन में डूब गया। देखा, इन सपनों का यथार्थ तो हमारी विशाल बिरादरी में अक्षरश:
घटित होता प्रतीत हो रहा है।
हमारे एक बड़े नेता ने एक दूसरे बड़े नेता की टाँग खींची और उसे प्रधानमंत्री बनने से
रोक दिया। केकड़ों की तरह जहाँ के तहाँ रह गये।
दिल के फफोले जल उठे, सीने के दाग से।
इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।।
एक दूसरे ने लाखों आदमियों को अपनी माँ का मृतक भोज देकर कलुआ तेरी बड़ी कि
मेरी के अनुरूप अपने घर तथा समाज  में आग लगा दी और खुद बैलों की सार में घुस
के बैठ गये। बैलों ने पूँछ मारकर उन्हें ताड़ दिया।
एक अन्य नेता थे, जब उन्हें अ.भा.या.म. सभा का प्रधान पद न मिला तो समानान्तर सभा
खड़ी करके उस का स्वयंभू प्रधान पद सुशोभित कर दिया और निष्ठावान कार्यकर्ता यह
कहते रह गये-
सीने पर सौ वार सहे, जब दुश्मन की तलवार उठी।
हिम्मत उस दिन टूट गई जब आँगन में दीवार उठी।।
चुनाव पूर्व तय की गई नीतियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। समय पर अभ्यर्थी, मतदाता
और कार्यकर्ता उपरोक्त किशोरी की तरह संकीर्ण स्वार्थ के ढोल की ताल पर थिरकने
लगते है स्वयं को रोक नहीं पाते। बाद में प्रतिकूल परिणाम पर पछताते रहते हैं। कितने
अफसोस की बात है कि जिन यादवों का अतीत अनुपम व अनुकरणीय और विश्व पूज्य
था। उनके लिए आज कवि वर मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ ही याद आती हैं-
हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें बैठ कर, हम ये समस्याएँ सभी।
समस्याएँ हैं, उनके हल भी हमें ही खोजने होंगे। केवल सभाओं में ऊंचे भाषण और
नीतियों के निर्धारण मात्र से ही काम नहीं चलेगा। जरूरत है कि सबके दिलो-दिमाग में
उन नीतियों को अमली जामा पहनाने का पक्का इरादा भी हो और वह हमें अब करना ही
होगा। (साभार रौताही 2011)
                                                                                            112 ओमायन, छतरपुर गांव, नई दिल्ली 30

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