Saturday 23 July 2011

ममता और अल्हड़ता से सराबोर हैं, अहीरवाल के लोकगीत

- रोहित यादव
हरियाणा प्रदेश का अहीरवाल उबड़-खाबड़, शुष्क धरातल एवं रेतीले टीलों वाला क्षेत्र है।
यहां के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि और पशुपालन है तथा रहन-सहन और खान-पान
बड़ा ही सादा है। अपने परम्परागत धंधे के अतिरिक्त इस क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में
भारतीय सेनाओं में सेवारत हैं।
राजनैतिक रूप से भले ही यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है, परन्तु मेंलों, तीज त्यौहारों, लोक
संगीत व लोकगीतों के मामले में यह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। प्राचीनकाल से ही
मेले, तीज-त्यौहार, लोक संगीत एवं लोकगीत इस क्षेत्र की लोक संस्कृति तथा
जनजीवन के प्रमुख अंग रहे हैं।
लोकसंगीत और लोकगीत तो यहां के कण-कण में समाहित हैं। लोक संगीत की सरिता
को अपने प्रबल आवेग के साथ बहने से यहां के रेत के टीले भी नहीं रोक पाये। गर्म तेज
लू और आंधियों के थपेड़ों से इन्हीं रेत के टीलों पर रेत की लहरें बनती चली आई है।
सायं जब रेत ठंडी होती है, तब यही लहरें लोकगीतों की पंक्तियां सी नजर आती हैं।
अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीतों एवं उनकी लोक धुनों
पर यहां के संघर्षमय जीवन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है।
लोकगीत यहां के सामाजिक जीवन में ऐसे प्रकाशपुंज हैं, जो मानव मन की अथाह अंधेरी
गलियों तक को अलोकित करते रहे हैं। लोकगीतों की धरा यहां सत्त प्रवाह से बहती
आई है, जिसकी बदौलत न केवल मानवीय संवेदनाएं और संबंध ही पुख्ता होते रहे हैं
अपितु दारूण दु:खों के बादलों को भी छितराया हैं और खुशी के पलों को यादगार बनाया
है।
तीज-त्यौहारों एवं शादी-उत्सवों पर यहां औरतों के सामुहिक कंठ कोयल की भांति कूूक
उठते हैं, तब वातावरण की रंगत में एक खास तरह का उन्माद एवं मस्ती छा जाती है।
यहां के जनजीवन में आने वाली विडम्बनाओं एवं घटनाओं का इन गीतों में मार्मिक
चित्रण मिलता है। यहां के आदमी परिश्रमी हैं, तो महिलाएं भी बेहद मेहनती हैं। खेतों में
जाते,पनघट से आते, फसल काटते, क्यारियों को नलाते नारी कंठ हिल-मिलकर जहां-
तहां गाती नजर आती हैं।
यहां के लोकजीवन से अगर लोकगीत निकाल लिए जायें तब जो शेष बचेगा वह या तो
श्मशान की वीरानगी जैसा होगा या फिर पत्थर की भांति खुरदरा व कठोर होगा। यहां के
गीतों में प्रीत है, जीत है और रीत है। यहां का लोक विश्वास और आस्थायें इन गीतों में
हिल मिल गये हैं।
ये लोकगीत यहां के जनजीवन के संस्कारों में रमे हुए हैं। स्मृति रेखाओं पर सुगन्ध की
तरह जमे हुए हैं। इन गीतों की लोकधुनें मन मस्तिष्क पर आसाढ़ की बदलियोंं की भांति
मंडराती हैं। ये गीत और धुनें जहा पति-पत्नी, देवर-भाभी, ननद-भावज आदि-आदि
इन्सानी रिश्तों का अनजाने में ही विश्लेषण करते हैं, वही भाई-बहन और मां-बेटे जैसे
पवित्र रिश्तों को गौरवान्वित भी करते हैं।
ये लोकगीत इस क्षेत्र की सांस्कृतिक उर्जा की एक ऐसी सामाजिक अभिव्यक्ति हैं जो
रसवादी सौन्दर्य शास्त्र से अभिप्रेरित है। यही रसवादी सौन्दर्य बोध हमारे लोकजीवन एवं
संस्कृति का ऐसा उर्जा स्त्रोत, जो जीवन की अनवरत विडम्बनाओं एवं घटनाओं के बीच
भी आत्म-विष्वास रूपी संजीवनी प्रदान करते हैं।
किसी भी समाज तथा जाति को जानने से पूर्व उसके लोकगीतों को जानना जरूरी है।
यहां के लोकगीतों के अध्ययन करने से इस क्षेत्र के रंग-रंगीले, उत्सव-त्यौहारों तथा
सामाजिक रीति-रिवाजों का परिचय आसानी से मिलता है। लोकजीवन का ऐसा कोई
आयाम नहीं जो इन लोकगीतों में मुखरित नहीं होता हो। यहां के लोकगीतों में वीर रस
और श्रृंगार रस की प्रधानता है। जिसमें व्याकरण और भाषा को कोई विशेष संयम देखने
को नहीं मिलता। खड़ी व सरल भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के लिखे गये इन गीतो
को हिन्दी भाषा का थोड़ा सा भी जानने वाला आसानी से समझ जाता है। इन गीतो का
रचियता कौन है, कोई नहीं जानता? ऐसा ल्रगता है कि ये लोकगीत समय-समय पर
आवश्यकता के अनुसार स्वयं बनते चले गये और पीढ़ी दर पीढ़ी हमें विरासत के रूप में
मिलते रहे हैं। महिलाएं इन्हीं गीतो में साहस, शील, भक्ति, प्रेम, दया, पतिव्रता,
आज्ञापालन आदि-आदि अनेक आदर्श गुण ग्रहण करती हैं।
अहीरवाल क्षेत्र में कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान व अन्य लोक देवी-
देवताओं को याद करने की परम्परा पुरातन समय से चली आ रही है। क्योंकि क्षेत्र के
लोग इन्हीं देवी-देवताओं को अपने सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ की धुरी मानते हैं।
रतजगा, विवाह-शादी तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर भी देवी-देवताओं के गीत व
भजनों के माध्यम से याद करने की प्रथा इस क्षेत्र में भी है। यहां प्रचलित गीतों की
शब्दावली जहंा ठेठ देहाती है, वहीं इनके भावार्थ आरतीनुमा है। इन गीतों में न कल्पना के
पंख हैं और न ही शैलीगत पेंच। इस कड़ी में ग्राम देवता व गौरी पुत्र गणेश को विघ्न
विनाशक देवता के रूप में किसी भी मांगलिक अवसर पर गीतों के माध्यम से सबसे
पहले याद किया जाता है। ग्राम देवता की पूजा-अर्चना के समय गाये जाने वाले गीत की
एक बानगी देखिये-
ऊँचा थारा कोट,नीची थारी खाई जी,
उठों बाबा भोमिया, खोल किवाड़ी जी।
हास-परिहास इस क्षेत्र के जनजीवन का अभिन्न अंग हैं। विवाह के अवसर पर महिलाएं
अनेक प्रकार के मनोरंजन और हास्य-विनोद से परिपूर्ण गीत गाती हैं। इन गीतों में वे
उलाहना भी देना नहीं भूलती। जब बारात पूरी तरह सज-धज कर दुल्हन के द्वार पर
पहुंचती है, तो गांव की महिलाएं बारातियों को गीतों के माध्यम से चिढ़ाती हैं-
हमने बुलवायें मूछंा आले,
ये मूछंकटे कयूं आये जी।
विवाह के अवसर पर वर पक्ष के घर में सुना जा सकता है यह गीत- अनोखा लाडला हो,
रायबर मझला-मझला चाल्य। इसके विपरित वधू पक्ष के घर सुना जा सकता है एक
नसीहत भरा गीत-
 बन्नी का दादा बरजै सै,
 लाडो नीम तलै मत जाय।
भाई बहन के यहंा भात भरने जाता है, तब यह गीत गाया जाता है-
 मेरो भाई आयो, हजार लायो,
हीरबंद लायो, वो तो चुनड़ी।
मैं तो वार ओढूं, त्यौहार ओढूं
ओढूं भतीजा के ब्याह में।
इस अवसर पर एक अन्य गीत भी सुना जा सकता है-
रै बीरा नौकर मत ना जाइये,
मेरा कौन भरेगा भात।
ऐ, जीजी नौकर का कै डर सै,
तेरा आन भरूंगा भात।
भाभी-देवर की नोंक-झोंक जगत प्रसिद्ध है। एक गीत के माध्यम से भाभी अपने देवर
को इस तरह चिढ़ाती है-
जै मेरा देवर राजी बोल्यै,
तो बी.ए.पास करा द्यूंगी।
जै मेरे तै करै लड़ाई,
स्कूल मा तै उठा द्यूंगी।
जब कोई युवक अपनी बहू को लेने ससूराल पहुंचता है, तो गीत गाया जाता है-
कैठा- सी आया प्यारा पावणा जी,
कैठे लियो सै मकान नणदेऊ जी,
लाड जमाई प्यारा पावणा जी।
सैदपुर सी आया प्यारा पावणा जी,
मोहलड़ा लियो सै मकान नणदेऊ जी,
लाड जमाई प्यारा पावणा जी।
इस अवसर पर सालियां अपने जीजा से सींठणे के रूप में हंसी-मजाक भी करती हैं-
बिन बादल, बिन बादली,
यो अम्बर कय्यानी छायो जी, अम्बर
कय्यानी छायो जी।
मैं तुनै पूछंू ऐ सखी, यो रोहताश
कय्यानी आयो जी, यो
जीजो कय्यानी आयो जी।
सावन के महीने में इन्द्र भगवान कृपालु होने लगते हैं, वर्षा की बौछारें तपती धरती की
प्यास बुझाने लगती है। क्षेत्र के ग्राम्यांचलों में एक खुमारी-सी चढऩे लगती है। जिस तरह
मोर मस्ती में कूक उठता है, उसी प्रकार गांव की महिलाएं भी मस्त होकर उच्ची आवाज
में हिन्डौले पर झूलती गीत गाती देखी जा सकती है-
और सखी तो अम्मा मेरी,
सब चली जी.ऐ जी
हमनै भी झूलण भेज,
घल्यों ये हिन्डोला,
चम्पा बाग में जी।
सावनी तीज पर माताएं अपनी विवाहित बेटी के घर, उसके भाई के हाथ कोथली भेजति
हैं। कोथली लेकर भाई जब बहन के घर पहुंचता है। बहन अपनी सास से पीहर भेजने
की गुहार करती है-
आया री सामण मास,
हमनै खन्दा दे म्हारै बाप कै।
इन लोकगीतों में सास- बहू की लड़ाई का भी चित्रण मिलता है। एक बहू अपनी सास से
तंग आकर गाती है-
मैं तो माड़ी होगी हो राम
धंधा करके इस घर का
बखत उठ कै पीसणा पीसूं
सवा पहर का तड़का।
वीर रस के गीत भी सुने जा सकते हैं-
आर्या की लड़की कहियों,
हम तलवार उठावागंा,
हम तलवार अठावागंा, भारत
मां की शान बढ़ावागंा।
इन लोकगीतों में नशीली वस्तुओं के सेवन का भी चित्रण है। एक बहन अपने शराबी भाई
से कहती है-
मेरा बीरा रै जवान, मेरा
कहा जरा मान,
तेरी कह रही है दुखिया भाण,
रै दारू का पीना ठीक नहीं।
और भी न जाने कितने भाव प्रणय,वीर रस से सराबोर हास्य-विनोद, करूणा, उल्लास व
मस्ती से परिपूर्ण लोकगीत हमारे लोक साहित्य को समृद्ध बना रहे हैं। ये गीत इस क्षेत्र
की आत्मा के गीत हैं, जो खुली हवा में बड़ी रोचकता से पिरोये जाते हैं।
पत्रकार- मंडी अटेली- 123021 (हरियाणा)

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