Saturday 23 July 2011

एक चलती-फिरती संस्था थे बाबा

-शमशेर कोसलिया 'नरेश'
भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों ने सदैव ही मानव कल्याण हेतु कार्य किए हैं। दुनिया के अन्य
देशों के मुकाबले में भारत के ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा ही मानव कल्याण हेतु प्रसिद्ध रहे
हैं। आधुनिक युग में भी एक साधु ऐसे हुए हैं जिन्हें हम एक ऋषि मुनि साधु-सन्त
महात्मा सिद्ध पुरुष सज्जन समाज सेवी स्वतंत्रता सेनानी की संज्ञा दे सकते हैं। साधु
किसी धर्म, जाति परिवार विशेष के न होकर सभी के चहेते रहे हैं। वह दक्षिणी हरियाणा
व उत्तरी, राजस्थान के लोगों के घनिष्ठ प्रिय संतों की अग्रिणी श्रेणी में गिने जाते हैं। उस
सन्त का जन्म कब और कहाँ व किन परिस्थितियों में हुआ तथा उन्होंने अपने जीवन में
लोक कल्याण हेतु ऐसा क्या-क्या काम किया कि वह लोगों का चहेता बन गया। उसके
जीवन पर यहां प्रकाश डालने के प्रयास किए जा रहे हैं। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जनपद
मुख्यालय नारनौल से कनीना मार्ग पर लगभग 12 मील की दूरी पर नागवंशी यादव
बाहुल्य सीहमा गांव में चुनीलाल यादव रहते थे। उनके बेटे का नाम रामसिंह तथा पुत्र
वधू का नाम मीनीदेवी था। उनका परिवार धर्म परायण तथा जन कल्याणकारी था वह
साधू संतों का आतिथ्य सत्कार करने में अग्रीणी था। एक बार सन्त कुशाल दास से
मिलने जाते समय हुडिंया कलां राजस्थान के संत दामोदर दास गांव से होकर जा रहे थे
तो चुनीलाल उन्हें अपने घर ले आए रामसिंह व उनकी पत्नी ने संत जी की खूब सेवा
की तथा दोपहर का भोजन करवाया। भोजन करने के बाद संतजी ने मीनी देवी को
आशीर्वाद देते हुए कहा कि मांई अबकी बार आपके जो बेटा होगा। खेत पर जन्म लेगा।
वह बड़ा होकर जन-जन का प्रिय संत बनेगा। मीनी देवी ने विनीत भाव से कहा- 'बाबा
गांव में गर्भवती स्त्री को घर से बाहर खेतों में काम करने नहीं जाने दिया जाता है। तब
भला मैं खेतों पर क्यों जाऊंगी और लड़के का जन्म खेतों पर कैसे होगा?Ó
संत जी ने कहा मांई साधुओं की वाणी कभी बेकार सिद्ध नहीं होती है। जो मैंने कहा है
भविष्य में नहीं होने वाला संत जी ने मीनीदेवी के बड़े बेटे व होने वाले बेटे पर कविता
की ये दो पंक्तियां कही 'घर में है वो घड़सों थारो। खेत ेमें होवे वो खेतों म्हारो।।Ó
सिद्ध संतों के वचन प्रामाणिक होते हैं। नियति ने अपना खेल रचा चुनीलाल व उनकी
पत्नी हीरो देवी राम सिंह की ननिहाल के एक विवाह समारोह में शामिल होने हेतु (उस
समय ऊंट पर सवार होकर) चले जाते हैं। रास्ता लम्बा था इसलिए समय से पहले ही
चले थे। उस दिन रामसिंह अकेले ही बैलगाड़ी हांककर अपने खेतों पर जाकर काम में
जुट गए। अचानक उनके पेट में भयंकर पीड़ा हुई, जिससे वह वहीं खेत की मेंढ पर लेट
गए और दर्द की वजह से चिल्लाने लगे।
गांव के किसी राह चलते बालक ने उनके घर उनकी पत्नी को इसकी खबर दी। तो घर
में कोई भी न होने की वजह से मीनीदेवी खुद ही अपने पिया की जान को बचाने के लिए
घर में रखी फांकी चूर्ण आदि साथ में लेकर खेत पर पहुँची। उसने अपने स्वामी को
फांकी चूर्ण आदि थमाया भी न था कि मीनीदेवी को प्रसव पीड़ा आरम्भ हो गई और थोड़ी
ही देर बाद उसने एक बालक को जन्म दिया। उधर रामसिंह के पेट की पीड़ा बिना किसी
दवा दारु के स्वत: ही ठीक हो गई रामसिंह ने ही खेत की मेढ़ (डोले) पर खड़े (उगे)
सरकण्डे की पानी (पत्ती) की धार से नवजात बालक का नाल काटा। नवजात बालक व
अपनी पत्नी को बैलगाड़ी बैठाकर शीघ्र ही अपने घर पहुँचा। कार्तिक सुदी अष्टमी (गोप
अष्टमी) विक्रमी सम्मत् 1973 का वह शुभ दिन था। खेत में जन्म होने की वजह से ही
उस बालक को खेता कहा जाने लगा। खेताराम ने मात्र 3 वर्ष की उम्र में ही चारपाई पर
सोना छोड़ दिया था। वे धरती या बड़े पत्थर पर सोते थे। इसलिए घर वालों ने उसके लिए
एक लकड़ी के तख्त का इन्तजाम कर दिया। उसे एक ब्राह्मण की चटशाला में रह कर
हिन्दी, गणित का ज्ञान प्राप्त किया। 16 वर्ष की आयु में ही मीनीदेवी का आशीर्वाद प्राप्त
कर सन. 1932 में घर छोड़ दिया। अब खेताराम ने 4 वर्षों तक देश में इधर-उधर अच्छे
गुरु की खोज की और बाबा मस्तनाथ मठ अस्थल बोहर जिला रोहतक पहुँचे। वहाँ
पंजाब में जन्मे रह रहे सन्त जयलाल नाथ को अपना गुरु बनाया। उस सन्त ने खेताराम
की चोटी काटने व कानों में मुद्रा डालने की रस्म पूरी की तथा सन्त वाणी देकर दीक्षा दी।
इस प्रक्रिया से अब उसका नाम खेतानाथ हुआ।
अब साधू का चोला पहनकर (सन्त बनकर) खेतानाथ ने हरिद्वार स्थित मायापुर आश्रम
में संस्कृत का गहन अध्ययन किया। संस्कृत के अध्ययन के उपरान्त वह हरिद्वार से
दिल्ली के रास्ते से होकर कई साधू-सन्तों की सेवा करते हुए राजस्थान पहुँचे। राजस्थान
के कई साधुओं से मिलते हुए हरियाणा के स्मारकों  के शह नारनौल के पास खत्रीपुर-
दुबलाना में रह रहे बाबा शान्तिनाथ जी के पास पहँुचकर वस्त्र त्याग की विद्या सीखी और
उनको अपना गुरु बनाया। उन्हीं से वेदान्त योग आदि का ज्ञान अर्जित किया। उनके
सामिप्य में रहकर शास्त्रों का गहन अध्ययन  किया। सन्त शान्ति नाथ जी एक अच्छे वैद्य
भी थे। सन्त जी खेतानाथ को वैद्य का काम सिखाना चाहते थे, किन्तु उन्होंने इस कार्य
को नहीं सीखा और उन्होंने जन जागृति का मार्ग अपनाया।
जब देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय जनआंदोलन चल रहे थे। उस समय उस युवा
संत ने भी सक्रिय रूप से उन सभी आन्दोलनों में विशेष भूमिका निभाई। संत जी ने सन्
1945 में प्रजामण्डलों के कार्य-कलापों को गति दी। उनकी ही देख-रेख में गांव कांटी में
प्रजामण्डल की विशाल बैठक संपन्न हुई। बैठक में मौजूद सभी सेनानियों को अंग्रेजों ने
बौखलाकर बंदी बना लिया। अन्य सेनानियों के साथ संत जी को भी नारनौल, पटियाला,
नाभा, भटिण्डा तथा फरीदकोट की जेलों में बंद रखकर अनेकों यातनाएं दी गई। जेल में
स्वतंत्रता सेनानियों से माफी मंगवाना व भेद उगलवाना था। संत जी ने न माफी मांगी और
न भेद ही उगला।
इसलिए संत जी को एड़ी व पंजों पर मारकर यातनाएं दी गई। अन्त में पूरे देश के सभी
स्वतंत्रता सेनानियों के आगे अंग्रेजों को घुटने टेकने पड़े और भारत को आजाद करना
पड़ा। देश की आजादी के दिन नारनौल चौक पर बाबाजी ने अपने करकमलों द्वारा तिरंगा
झण्डा फहराया तथा विशाल जन समूह को प्रसाद भी वितरण किया। इस तरह उन्होंने देश
के स्वतंत्रता सेनानियों में अपना अग्रणी पंक्ति में नाम लिखवा लिया।
देश को आजादी मिलने के बाद संत जी गूता शाह पुर (राजस्थान में रहने वाले संत
भगवान नाथ के पास उनसे योग क्रियाएं सीखी और उनको अपना तीसरा गुरु बनाया।
यहां तक की उन्होंने कपिल सांख्य दर्शन, पांतजल योगदर्शन का गहन अध्ययन किया।
गीता का अध्ययन किया वहीं बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित गीता रहस्य नामक
पुस्तक का भी अध्ययन किया। भागवत के 18000 श्लोक उनको याद थे। संत जी ने
कनीना के पास पाथेड़ा गांव के बालू रेत के टीले पर तपती दोपहरी में आसन लगाकर
तपस्या की। फिर तो वो जहां भी जाते रेत के टीलों पर बैठकर घोर तपस्या में लीन रहते।
कहा जाता है कि वे जिस भी तपते टीले पर बैठे होते थे वह एकदम ठण्डा होता था। यह
सब उनकी साधना और करामात का ही चमत्कार था। संत जी राजस्थान के गांव
बीजवाड़ा चौहान के टीले पर बैठ साधना कर रहे थे उन्हीं दिनों वृद्ध (बूढ़े) संत बिहारी
दास जी ने कनीना सिहोर नौताना गांवों में विद्यालय भवन बनवाए  थे तथा उस समय
माजरी कलां में विद्यालय भवन का निर्माण करवा रहे थे। बाबा खेता नाथ की संत बिहारी
दास से वहीं मुलाकात हुई जो एक प्रेरणादायक रही तथा इसी प्रेरणा से उन्हें परोपकार के
कार्यों में गहन रुचि लेने की ठान ली।
संत जी की साधना चमत्कार व मीठी वाणी के वशीभूत होकर सेवक जन कुछ न कुछ
अवश्य चढ़ाते थे। चढ़ावे में आने वाले धन से बाबा ने गांव बीजवाड़ा चौहान, गादूवास
अहीर, बासना, लाडपुर, सीहमा, अटेली, डैरोली आदि हरियाणा व राजस्थान में विद्यालय
बनवाए। श्री कृष्ण जी के नाम पर जयपुर, अलवर, नारनौल में छात्रावास बनवाए।
नारनौल में पोलटैक्निक कालेज (तकनीकी महाविद्यालय) भवन का निर्माण किया।
मण्डी, अटेली, कंवाली, सिधरावली, नारनौल के कॉलेजों में व कन्या गुरुकुल, गणियार,
कुण्ड, मनेठी, दाधिया, खानपुर के गुरुकुलों में भरपूर सहयोग दिया। वहीं ढूमरोली,
विजयपुरा, खोडवा, शहबाजपुर, रामबास, कोथल, दुबलाना के स्कूलों में तथा विवेकानंद
कॉलेज नांगल चौधरी के भवनों के निर्माण में सहयोग के साथ-साथ संत जी ने अपने
करकमलों द्वारा आधारशिला भी रखी।
संत जी ने गुताशाहपुर, छापुर, नीमराणा, झुंझनू, बीड़, सीहमा, अटाली, डैरोली, गुलावला,
नारनौल, शाहबाजपुर में आश्रम में भव्य एवं कलात्मक मंदिरों का निर्माण करवाया। बाबा
खेतानाथ द्वारा निर्मित मन्दिराों की कलात्मकता देखते ही बनती है। बाबा द्वारा निर्मित
आश्रमों के साथ-साथ एक-एक गऊशाला का भी निर्माण करवाया। गऊशाला भले ही
छोटी क्यों न हों किन्तु उन्होंने गऊ प्रेमी होने का भी संदेश दिया। संत जी द्वारा निर्मित
विद्यालय आश्रम गऊशाला आदि पर व्यय धन केवल श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ावे के रूप में
चढ़ाए गए धन से ही हुआ। प्रत्येक आश्रम विद्यालय मन्दिर तथा गऊशाला में वृक्षारोपण
भी अधिक से अधिक करवाया। नीमराणा में तो कलात्मक सरोवर का भी निर्माण
करवाया वहीं एक विशाल उपवन का भी निर्माण करवाया। पर्यावरण संरक्षण में बाबा ने
जो भूमिका निभाई वह सदैव याद रहेगी। संत जी ने देश के कोने-कोने का भ्रमण भी
किया था। शायद ही कोई ऐसा संत हो जिसने इतना अधिक भ्रमण किया हो। उन्होंने
भ्रमण से शिक्षा प्रसार गऊ सेवा, समाज सेवा, पर्यावरण संरक्षण करना तथा साधूवचन
धारण करना सिखा था। वे एक अनुभवी महान संत थे उनके अनेकों अनेक शिष्य हुए।
निमराणा के जोशी होडामठ प्रवास के समय संत जी रह रहे थे। आश्रम के समीप
आशावली ढाणी में राह पर बने मकान से मातादीन के लड़के व बहू से अन्तिम भिक्षा
ली। जबकि संत जी के पास ही लोग लाखों रुपए चढ़ावे के रूप में चढ़ा देते थे। मगर
उन्हें अपने जीवन की अन्तिम भिक्षा लेने का लक्ष्य पूरा करने का था जो पूरा कर लिया
था। भिक्षा लेकर वे खेतों में पहुंचे तो वहीं पर प्राण त्याग दिए। बाबा खेतानाथ के जन्म व
मृत्यु का यह संयोग अनोखा था कि उनका जन्म भी खेत पर और मृत्यु भी खेत पर हुई
वह 28 दिसम्बर 1990 का एक मनहूश दिन था। जिसने एक साधू, शिक्षा प्रचारक,
समाज सेवी, स्वतंत्रता सेनानी, गौप्रेमी, पर्यावरण संरक्षक को हमसे छीन लिया था।
मातादीन के बेटे धर्मपाल ने संत जी को खेत पर गिरते देखा तो तुरन्त दौड़कर बाबा के
पास पहुँचा तो संत जी के मृत शरीर को देखकर बच्चों की तरह रो पड़े। रोते-रोते ही मठ
में पहुँचकर बाबा के शिष्य सोमनाथ को खबर दी। रात्रि हो रही थी। किन्तु रातोरात यह
दुखद समाचार समस्त क्षेत्र में ही नहीं अपितु हरियाणा के अस्थल बोहर के मठाधीश संत
चान्दनाथ के कानों तक भी पहुंच चुका था। इस दु:खद समाचार को जिसने भी सुना उन
सभी ने रात का भोजन पकाया ही नहीं। जिसने भोजन पहले से पकाया गया हुआ था
उन्होंने खाया ही नहीं। बाबा के शोक लहर ऐसे दौड़ गई थी कि जैसे भारत के प्रधानमंत्री
की मृत्यु हो गई हो। दूसरे दिन प्रात: ही सन्त चान्दनाथ (वर्तमान विधायक बहरोड़) के
अलावा हजारों साधु संत (नाथ पंथ ही नहीं अपितु सभी पंथों से) तथा देर किए बिना
शीघ्र ही टै्रक्टर-ट्राली, स्कूटर, मोटर बाइक ऊंट-रेहड़ी, मोटर गाड़ी जीप, बस ट्रकों से
दूर-दराज के भक्तजन लाखों की संख्या में उमड़ पड़े। समीप के क्षेत्र से तो भक्तजन पैदल
या साइकिल से ही पहुँचने लग रहे थे।
भक्तजनों में महिलाएं भी बराबर संख्या में थी जो भजन गाकर समूचे परिवेश में गूंज पैदा
कर रही थी। सभी लोग संत जी के अन्तिम दर्शन को आए थे। जिनकी संख्या हजारों
नहीं अपितु लाखों में थी और उन सभी की आँखें नम थी। अलवर जिला प्रशासन ने
भक्तों की संख्या भांपते हुए हजारों पुलिस कर्मी तुरन्त भेजे। इस बहाने हजारों पुलिस
कर्मियों ने भी बाबा के अन्तिम दर्शन किए। वहां से कोई उपद्रव थोड़े होना था सभी ने
शान्ति प्रिय ढंग से अपने प्रिय संत के अन्तिम दर्शन किए।
और संत जी के मृत शरीर को समाधि देकर सब भक्तजनों ने जोर-जोर से रोते हुए अपने-
अपने घरों को प्रस्थान किया।
बाबा खेतानाथ ने एक संस्था की तरह काम किया था। इसीलिए उन्हें एक चलती फिरती
संस्था के नाम से भी जाना जाता है। बाबा खेतानाथ के जीवन में सैकड़ों प्रेरक प्रसंग जुड़े
हुए हैं। जिनका अगर संक्षेप में भी जिकर किया जाता है तो भी एक बहुत बड़ा लेख बन
जाएगा। बाबा जी महाराज ने जीवन भर नशे, मांस, दहेजप्रथा का कड़ा विरोध किया वहीं
वह सेवकों को इनसे दूर रहने के लिए शिक्षा दिया करते थे। उनके सम्पर्क में आने वाले
बहुत से सेवकों ने उनकी शिक्षाओं का लाभ भी उठाया। वे अक्सर बच्चों को बलवान
देखना चाहते थे। इसीलिए बच्चों से सदा कहा करते थे।
माड़ा को ही जाड़ा मारै, माड़ा को ही घाम-
माड़ा को मारे राजा, माड़ा को ही राम
वह संत आज भले ही हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके द्वारा दिखाए गए रास्तों को हम व
हमारी आने वाली पीढिय़ाँ सदैव उनके बताए रास्ते पर चलकर अपनाएंगे। उन्होंने हमें
कुमार्ग से हटकर सुमार्ग पर चलने का संदेश दिया है। ऐसे महान संत को भूलना हमारे
लिए एक शर्मकारी भूल होगी। हम परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उस महान
संत को पुन: इस पिछड़े क्षेत्र में भेजे ताकि वहां का अंधियारा छट कर उजाला मिल
सके। संत खेतानाथ ने तो ऐसे-ऐसे कार्य करके दिखाए जिन्हें सरकार भी आसानी से नहीं
कर सकती।
उन्होंने उस क्षेत्र को अपना कर्मस्थल बनाया था जहां प्रशासनिक रूप से विषमता थी और
प्राकृतिक रूप से भी पिछड़ा हुआ था। उसने मां मीनीदेवी की मृत्यु पर भी अचानक
आकर सभी को हैरत में डाल दिया था। पारा जमा देने वाली ठंड में भी अपने शरीर से
उनमें पसीना निकालने की अपार क्षमता थी। यह बाबा शान्तिनाथ द्वारा सिखाई गई विद्या
का ही चमत्कार था। उन्होंने वैद्य का काम न सीखकर केवल रोगियों को ही नहीं अपितु
समस्त मानव धर्म की सेवा में अपना जीवन लगाया था। उस महान संत को कोटि-कोटि
प्रणाम। (साभार रौताही 2011  )
                                                                          मु.पो.स्याणा, तह व जिला-महेन्द्रगढ़
                                                                          हरियाणा 123027, मो. 09466666118

2 comments:

  1. Guru Dev ne apne pram bagat vaid Nandkishore ji tiwari ko ashirvad diya ki vo india ke famous vaidya bane Jodhpur me ayurved University ko banane ki prerana shree Ashok ghelot cm ko unhi se milee unki samrti or Baba ke ashirvad se jodhpur me bhut bhavya Baba khetanath ashram bana hai janha guru dev ke sath vaid ji ki murti bhi hai

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