Monday 1 August 2011

भारतीय सेना की देशभक्ति ने चीनियों को झुकाया था

-राकेश कुमार
च्यांग काई शेक की पार्टी कुओमिनतांग की लिबरेशनवादी ताकतों को परासत कर माओ
त्से तुंग ने 1 अक्टूबर 1949 को चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का ध्वज लहराकर 'चीनी लोक
गणराज्य (चाइनीज पीपुल्स रिपब्लिक) की स्थापना की। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री
पं. जवाहरलाल नेहरु की सरकार ने उसे मान्यता देने में तनिक भी देरी नहीं लगाई। इसमें
लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल और कृष्ण मेनन जैसे विद्वान की सहमति भी रही
लेकिन जब चीन ने अपने नेतृत्व की महत्वाकांक्षा के कारण 24 अक्टूबर 1950 को
तिब्बत पर अधिकार की घोषणा कर दी और 14 वें दलाईलामा ने वर्ष 1959 के भारत में
शरण लेकर यहां निर्वासित तिब्बती सरकार का गठन कर लिया उसके ठीक बाद चीन-
भारत की तल्खियां उजागर होने लगीं। भारत के महान चिंतक अरबिंदो घोष ने सचेत
किया था कि कम्युनिस्ट चीन का उभरना भारत और एशिया के लिए भयंकर खतरा है।
अपने देहावसान से प्राय: एक सप्ताह पहले ऐसा ही वक्तव्य सरदार पटेल ने जारी किया
था। उन्होंने तिब्बत पर चीनी करतूत से उपजने वाले भविष्य के खतरों के प्रति सेचत
करते हुए प्रधानमंत्री नेहरु को एक पत्र लिखा था। उन्होंने कहा था कि भारत ने तिब्बत के
साथ एक स्वतंत्र संधि कर उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया। इससे पहले इस बात का
ख्याल रखने की जरूरत थी कि उत्तर-पूर्वी भारत की सीमा रेखा अस्पष्ट होने के कारण
कई राज्य जो चीन के प्रति अधिक लगाव रखते हैं, कभी भी समस्या का कारण बन
सकते हैं। पटेल जी के पत्र को तत्कालीन रक्षामंत्री तथा पंडित जी के खास मित्र कृष्ण
मेनन ने तवज्जों नहीं दी। यहां तक कि जब तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल तिमैया
ने रक्षामंत्री को सेना के साजो-सामान खरीदने के लिए 300 करोड़ रुपयों का प्रस्ताव सौंपा
तो मेनन ने उन्हें यह कहकर वापस कर दिया कि उनका 300 शब्दों का भाषण इस
समस्या का हल कर देगा। कुछ समय के लिए नेहरु और मेनन की जोड़ी सही साबित
हुई। जब 29 जून 1954 को भारत व चीन के मध्य आठ वर्षीय व्यापारिक समझौता हुआ
और पंचशील सिद्धांत पर एशिया इन दो सबसे बड़े देशों के बीच सहमति बनी तो लगा
कि सब कुछ सही है। उसके दो वर्ष बाद 1956 में भारत और चीन के द्विपक्षीय विवादों
पर आपसी चर्चा हुई जिसमें दोनों पक्षों ने कुछ बिन्दुओं पर सहमति बनाने में सफलता
हासिल की। इनमें मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर की 1100 किमी लम्बी पूर्वी सीमा और
सिक्यांग- तिब्बत सीमा का विवाद लेन-देन के जरिए हल करना था। चीन 90,000 वर्ग
किमी पर अपना दावा छोड़ देता। संधि से पूर्व चीन ने वर्ष 956 में सड़क बनाकर
पाकिस्तान से स्थल मार्ग द्वारा सीधा संबंध बना लिया। उसके बाद वर्ष 1958 की 'चाइना
विक्टोरियस सभा में चीन ने भारत का एक ऐसा मानचित्र प्रस्तुत किया जिसमें भारत की
50,000 वर्ग किमी अधिकृत भूमि को चीन का हिस्सा बताया गया था। भारत इसका
सीधा विरोध करने से कतराता रहा क्योंकि शक्तिशाली राष्ट्र का कोई शत्रु नहीं बनना चाहता
है। वहीं, चीनी गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई भारतीय व अन्य एशियाई
नेताओं को गुमराह कर रहा था कि उनका देश मैकमोहन सीमा रेखा को व्यवहारत:
स्वीकार करता है। सच्चाई यह थी कि इसे वह औपनिवेशिक घटना मात्र मानता था और
भारत के साथ सीमा  विवाद का हल निकालने के लिए वह भारत पर हमले की तैयारी
कर रहा था। उसने उचित अवसर पाकर 8 सितम्बर 1962 को मैकमोहन रेखा पार कर
भारत पर हमले की घोषणा कर दी। भारतीय सेना को रक्षा मंत्रालय से हमले का आदेश
मिलते ही 20 अक्टूबर 1962 में दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। चीनी
सैनिक अपने को अजेय मानकर बढ़ते चले आ रहे थे। उन्होंने लेह के पूर्वी क्षेत्र व नेफा
में मैकमोहन सीमा रेखा की भारतीय सैनिक चौकी पर देखते ही देखते फतह कर ली थी।
चौकी पर भारतीय सेना की कोई पेट्रोल पार्टी गश्त नहीं कर रही थी। लद्दाख की
भयानक सर्दी में जवानों के पास न तो पर्याप्त कपड़े, सर्दी के जूते और न ही हथियार थे
लेकिन दुश्मन का सामना करने का हौसला था।
ऊंचे ग्लेशियरों से घिरे सुनसान पहाड़ी इलाके चुशूल रेजांग ला पोस्ट पर मेजर शैतानसिंह
अपनी 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सीÓ कम्पनी का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें 118
जवान थे। 18 नवम्बर 1962 को बर्फीली हवाओं के तेज झोंके, कुहासे की धुंध से जवानों
के हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे कि 1310 चीनी सैनिकों का अचानक हमला हो गया। सुबह
4:35 बजे हुए उस हमले के उत्तर में मेजर शैतान सिंह, हवलदार राजकुमार, हरिराम,
सूरजा, रामचंद्र, गुलाब सिंह, रामकुमार सिंह, फूलसिंह, जयनारायण, निहाल सिंह,
हरफूल सिंह आदि ने अपनी प्लाटूनों सहित मोर्चा संभाल लिया। मैदानी क्षेत्र से आए
जवानों ने पहली बार बर्फ से ढंकी पहाडिय़ों पर मोर्चे का तजुर्बा किया था और उनके पास
मौसम का सामना करने के संसाधन नहीं के बराबर थे। मेजर शैतान सिंह अपने संख्या
बल एवं हथियारों की क्षमता से परिचित थे। उन्होंने अपनी हर प्लाटून के मोर्चे तय कर
निर्देश देना आरम्भ किया कि दुश्मन के हथियारों की रेंज में आते ही गोलियां चलाई
जाएं। कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद राइफल, मशीनगन और मोर्टांर से हमला बोल दिया
गया परन्तु चीनी सैनिकों ने उस समय तक भारतीय सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया
था। उनका हमला जानलेवा था। उनके मोर्टारों से उगलते शोलों के गोले भारतीय सेना के
बंकर व मोर्चे तबाह कर रहे थे। इसके बावजूद भारतीय सैनिक पीछे हटने को तैयार नहीं
थे। नवम्बर माह के उस दिन पूरा देश दीपावली मना रहा था और चुशूल घाटी में भारतीय
वीर खून की होली खेल रहे थे। भारतीय लोकसभा में प्रधानमंत्री द्वारा वक्तव्य दिया जा
रहा था कि जिस हिस्से पर चीन ने कब्जा किया है वहां अन्न का एक दाना भी नहीं
उगता। सदन में कांग्रेस के ही सदस्यों ने उठकर अपनी टोपियां उतारीं और कहा नेहरुजी,
हमारे सिरों पर बाल नहीं है और आपके सिर पर भी नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि
सिर कट जाने दिया जाए। उधर, युद्ध मैदान में डटे मेजर शैतान सिंह ने 118 जवानों को
संबोधित करते हुए कहा कि यह हर सैनिक के जीवन का सर्वोत्तम क्षण है कि वे अपनी
मातृभूमि की पवित्रता की रक्षा करें या दुश्मन से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों को राष्ट्रहित में
न्यौछावर कर दें। उनके संबोधन ने सैनिकों का जोश दुगुना कर दिया। उसी बीच चीनियों
ने 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट चौकी के पीछे से हमला बोल दिया जिससे तांगात्से छावनी के
जवान सैनिकों के बचने की गुंजाइश भी नहीं बची। फिर भी, भारत के जांबाजों ने शत्रु
सेना को खासा नुकसान पहुंचाया। उसी दौरान चीनी सेना की चलाई गई एक गोली
कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह को लगी लेकिन हवलदार हरफूल सिंह के कहने के
बावजूद मेजर शैतानसिंह ने मैदान से हटना कबूल नहीं किया। उन्होंने अपनी कमर से
बेल्ट निकाल कर उनको दी और कहा मैं यहीं लड़ूंगा आप छावनी में जाकर सूचना दो
कि 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सीÓ कम्पनी का प्रत्येक सैनिक लहू की अंतिम बूंद
और अपनी अंतिम गोली तक दुश्मन से लड़ता रहा। दुश्मन के खिलाफ हमले पर हमले
कर रहे जख्मी मेजर पर शत्रु सैनिकों की मशीनगन से निकली गोली की बौछार आई।
सीने, पेट और जांघ पर गोलियां लगने के बाद मेजर ने मृत्यु को स्वीकार कर भारतीय
वीरता का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया। आगे चलकर तांगात्से को रेजांग ला दर्रे की
लड़ाई चुशूल की लड़ाई के नाम से अविस्मरणीय वीरगाथा बन गई। इस वीरगाथा के तीन
माह बाद बर्फ पिघलने पर भारतीय सीमा के अंदर 114 भारतीय व 1100 चीनी सैनिकों
के शव प्राप्त हुए। रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों की सुरक्षा में रेडक्रास की एक टीम रेजांगला
दर्रे भेजी। निगरानी दल ने देखा कि शहीद सैनिकों की उंगलियां राइफलों के ट्रिगर पर थी
तो किसी के हाथ में हथगोले थे। मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के अदम्य
साहस और बलिदान को देख चीनी सैनिकों ने जाते समय सम्मान के रूप में जमीन पर
अपनी राइफलें उल्टी गाडऩे के बाद उन पर अपनी टोपी रख दी थी। भारतीय सैनिकों को
शत्रु सैनिकों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था। आज भी इंडिया गेट दिल्ली में वीर जवान
ज्योति में यह छवि देखने को मिलती है। वहीं 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट के 114 वीरों की
चुशूल से 12किमी दूर एक स्मारक बना है। इस स्मारक में सभी वीर सैनिकों के नाम
अंग्रेजी के अक्षरों में अंकित हैं। इस विजय प्राचीर के समान ही एक छोटी समधि के रूप
में 'अहीर धाम स्मारक का भी निर्माण किया गया है। उल्लेखनीय है कि 13 वीं कुमाऊं
बटालियन की 'सी कम्पनी में शामिल अधिकांश जांबाज जवान अहीर (यादव) ही थे
परंतु 'रेजांग ला के समर में वे सब भारतीय सैनिक थे। (साभार रउताही -2011)
  मो. 09454718786

No comments:

Post a Comment