Wednesday 10 April 2019

जन जागरण का प्रतीक अहीर नृत्य रऊताही महोत्सव

छत्तीसगढ़ अंचल का लोकप्रिय मड़ई महोत्सव जिसे रौताही के नाम से जाना पहचाना जाता है। रौताही-पौराणिक ,ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों का अनूठा संगम राष्ट्रीय एकता स्नेह एवं सद्भाव का प्रेरणा स्त्रोत है साथ ही भारतीय ग्राम्य जीवन के उल्लास स्नेह उमंगों का प्रतीक वीरत्व शिवत्व एवं शौर्य प्रदर्शन का एक श्रेष्ठ सफल माध्यम है।
इस महोत्सव में मानव अपनी आंतरिक खुशियों की लहर से समस्त वातावरण को रसमय तन्मय कर देना चाहता है। ऐसे समय में जिधर देखें उधर प्रकृति पूरी उल्लसित हो झूमने लगती हैं, धरती उमंग में फूल उठती है शीतल मंद सुगंध त्रिविध मलय समीर लहराने लगता है। छैल-छबीले, रसीले श्रृंगार प्रिय नवयुवकों व गोपाल बन्धुओं के पाँव थिरकने लगते है।
दसों दिशाओं में झमकते घुंघरुओं की झनकार कमर बंध जलाजल की आवाज से हर ग्राम गली चौराहा चौपाल व तुलसी बिरवा से सुसज्जित आंगन शब्दायमान हो रसमय होने लगता है, मन भ्रमरों के मौन अधर गुनगुना उठते हैं।
वन्य प्रान्तर पुण्यमयी भूमि नव वधु सी पल्लवित पुष्पित सुरभित हो मुस्कराने लगती है। विहम वृन्द आनंदित हो कलरव करते प्रफुल्लित नजर आते हैं। धरा से गगन तक खुशियां ही खुशियां प्रेम में नया उल्लास गीत संगीत में विशेष माधुर्य एवं तन मन में नई उमंग छाने लगती है। सूर दुर्लभ मानवीय भौतिक, आत्मिक सुख सौंदर्य से युक्त रावत लोक नृत्य में भगवान श्रीकृष्ण के रास नृत्य स्मृति सुमन के सदृश्य रोम-रोम में सुवासित होने लगता है।
इसी तरह लोक नृत्यों में गीत-संगीत एवं वाद्य स्वरों की मनभावनी पतित पावनी त्रिवेणी प्रवाहित हो तन मन प्राणों में अकथनीय आनंद की सृष्टि रच देती है।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस भावात्मक-लयात्मक एवं उल्लासमय वातावरण में परमानंद का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। ग्रामवासी अपने इस सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिये सदैव सजग समर्पित रहते हैं।
रावत नृत्य के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ अंचल में करमा नृत्य, सुआ नृत्य, ददरिया गीत, भोजली गीत नृत्य, जंवारा गौरा नृत्य, डंडा नृत्य, पंथी नृत्य, पंडवानी नृत्य, डीड़वा नृत्य, बांसती फगुआ नृत्य, देवार नृत्य एवं झूमर नृत्य अपनी बहुरंगी सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण लोक जीवन लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर भारतीय समाज की महत्ता को उजागर करने के लिए कृत संकल्पित है।
लोक नृत्यों में लोक मंगल की पवित्र भावना राष्ट्रीय प्रेम का संदेश विद्यमान है।
मेरे परम आदरणीय गुरु देव श्री विद्या भूषण मिश्र के अनुसार- छत्तीसगढ़ अंचल अपनी लोकप्रिय संस्कृति परम्पराओं के लिए विश्वविख्यात है। बहुचर्चित है उसके लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक संगीत में उसकी सभ्यता,  संस्कृति, जागृति, धार्मिक विचार भावनाओं की मधु गूंज आती है।
छत्तीसगढ़ में रावत जाति के लोग सबसे प्राचीन उत्सव जीवी नृत्य धर्मी, संगीत प्रेमी, सत्य व्रत नेमी होते हैं। रावत नाच कार्तिक अमावस्या और कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ होकर निरंतर चलता रहता है। दीपावली पर्व पर दीपोत्सव नृत्य को देवारी नाचा के नाम से जाना जाता है।
लक्ष्मी पूजा, गोवर्धन पूजा से अहिरा देव शक्ति अर्जित कर आंतरिक बल, शौर्य, साहस, वीरता का भाव संजोता है और अपना सन्मार्ग सिद्ध लक्ष्य प्रशस्त करता है। गोवर्धन पूजा के पश्चात गाय बैलों के गले में पलाश वृक्ष की छाल जिसे आंचलिक बोली में बांक कहते हैं, से निर्मित सुहाई बाँधता है और अपने मालिकों-किसानों के धान की कोठी में गउ गोबर से धन देवता कुबेर का चित्र बनाते हुए मालिक के दीर्घायु जीवन की कामना करते हुए गऊ माता से प्रार्थना करता है-
बांधेव मया सुहाई बंधना, धन लक्ष्मी तोर रुप हो।
देव सुघर आशीष जमो ल, झन रहिबै तंय चूप हो।
इसके पश्चात मालिक उसे अपनी तरफ से खुश होकर निछावर पुरस्कार भेंट स्वरूप रुपया देता है। मान-सम्मान करता है। मगन मन नर्तक रावत भी सद्भाव आशीष देता है-
जइसे मालिक लिये दिये, तइसे झोकौं आशीष हो।
अन्न धन में भंडार भरे तोर, जीवौ लाख बरीस हो।
अहिरा निर्भय हो पवित्र मन से लोक मंगल की कामना से ओत प्रोत है। वह अपने साथ सबका कल्याण चाहता है। देवउठनी एकादशी के दिन ही गन्ने का मंडपाछादन कर भगवती तुलसी विवाह व भगवान शालिग्राम की पूजा अर्चना की जाती है। गाय बैलों को खिचड़ी खिलाते आरती पूजा की जाती है। आंगन में पूरे चौक की चमक से मन प्रसन्न हो उठता है। हिन्दू लोग अपने समस्त मांगलिक शुभ कार्यों का शुभारंभ इसी दिन करके जीवन सफल मनाते है। अहिरा अपने मालिक को गाय बैलों के उत्तरदायित्व सौंप कर स्वतंत्र  रुप से नृत्य करने में व्यस्त-मस्त हो जाता है।
अरररा भाई हो, हो भाई हो, एकात्म समवेत स्वर लहरी से नृत्य प्रारंभ होता है। नृत्य करते समय रावत लोग अपने आत्मिक विभिन्न भावों गुणों से युक्त कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रहीम एवं मौलिक लोकांचलिक पारम्परिक दोहे बोलकर अपने हृदय के सद्भाव, भक्ति भाव एवं स्नेह को वाणी द्वारा व्यक्त करते हैं। बाएं हाथ में फरी, गुरुद ढाल व दाएं हाथ में तेंदू की लाठी लिए नृत्यांगना, मड़ई महोत्सव, रौताही बाजार में उतर आते हंै। इनकी तेन्दू की लाठी मानो बज्र शक्ति, ब्रह्मास्त्र जैसा प्रणाधार सी लगती है अहिरा लोग सोते जागते उठते बैठते, खाते पीते, हर समय अपने सहोदर भाई सदृश्य लाठी को एक पल के लिये अलग नहीं करते। कुल देवता ठाकुर देव, दूल्हा देव, ठकुराईन, सोनइता, ठगहा देवता, रक्त चंडी, महामाया, सारंगढिऩ, गौराईया,  बजरंगबली, परउ बइगा, अखरा के गुरु बैताल, नौ सौ योगनियां, सिद्ध बाबा महादेव वृषभ, संडहादेव आदि देवी देवता इनके जगत प्रसिद्ध है।
अखरा सुहई काछन मातर जागरण, बाजार बिहाना और मड़ई रौताही महोत्सव रावत नृत्य के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं।
नृत्य करने  की भाव भंगिमा बहुरंगी, वेशभूषा की चमक-दमक से समस्त वातावरण जगमगा उठता है। राम रज अभ्रक जरी से सुसज्जित चमकते-दमकते चेहरे माथे पे श्वेत व लाल रंग की सुर्खी चंदन टीका, लाल होंठ, गुलाबी गाल, घुंघराले काले घने झुलुप दार मनमोहक बाल, हृष्ट-पुष्ट शरीर, मदमस्त चाल, सिर पे रंग बिरंगी कलगीदार तुर्रा लच्छेदार पगड़ी। बाजू बंद, माड़ी घुटने व कमर तक कसी चुस्त धोती, पैरों  में मोजा व कपड़े का जूता, घुंघरुओं की छमाछम झनकार कुहुक के साथ दोहे की कर्णप्रिय मिठास, गुदरुम गंधर्व बाजे की आवाज, सज धज कर मस्त नाचते गाते राउतों के गोल, जिसे देखकर जनमानस का मन मुग्ध हो उठता है। लगता है मानो ग्राम्यांचल की सहज सूर संस्कृति कलात्मक अभिव्यक्ति ने शहर को भी भाव विभोर कर दिया है।
अहिरा नृत्य में एकता, विश्वबन्धुत्व, प्रेम की अभिव्यक्ति, समर्पण की शक्ति, उत्साह-उमंग, शौर्य एवं भातृत्व भाव का परिचायक लोक संस्कृति की जीवंतता का सजीव उदाहरण जन जागरण सूर्योदय स्नेह का अमर संदेश है जिसे जीवित अक्षुण्ण बनाये रखने हम सब का परम धर्म एवं नैतिक
कत्र्तव्य है।
 साभार रऊताही 2016

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