द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नहीं था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र
शर्याति
को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम
पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी
राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।
[28] यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर
[29] की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई
रूक्मी
था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज
जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या
देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य
और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से
कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस
घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।
[30]
संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम
और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के
अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों
में मिलता है।
[31] इनके नाम
सत्यभामा,
जांबवती,
कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को
तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में
प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की
संख्या बड़ी थी ।
[32] रुक्मिणी से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा
प्रद्युम्न था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र
अनिरुद्ध का विवाह शोणितपुर
[33] के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
यादवों का अंत
अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष
बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब
काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया
था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली
थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी
ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन
प्रभास
के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने
लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस
प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।
[34]
अंतिम समय
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नहीं लिया,
जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी
होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नहीं चला। कृष्ण बड़े
मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर
स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण
दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।
[35] कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।
[36]
शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर
घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें
ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे
शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100
वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का
आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का
इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए।
पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र
बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।
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