अपने देश के अधिकांश प्रदेशों में यादव समाज बड़ी संख्या में निवास करते हैं। यादवों में विभिन्न प्रकार के उपनाम भी है जैसे अहीर, राउत, ठेठवार आदि, गोवर्धन पूजा सभी यादवों का एक प्रमुख त्यौहार है।
राऊत शब्द वीरता का द्योतक है। मानस के अनुसार चाहिये क्षेत्र कुशल रौताई ! रौताई शब्द में इतना वीर भाव है कि युद्ध के बीच, कुशल क्षेत्र की गुंजाइश नहीं है। अधिकांश रुप से यह त्यौहार वे ही यादव मनाते हैं जो अपने-अपने घरों में गाय वंश पालते हैं उन्हें अपने गोधन को चराने के लिए जंगल जाना पड़ता है जहां हमेशा जंगली जानवरों से भय बना रहता है इसलिए अपनी गो वंश को उनसे बचाने के लिए प्रत्येक अहीर वीरता का संस्कार ग्रहण करता है तथा उसका अभ्यास करता है। वर्षा के चार माह में अहीर अपना गो वंश लेकर जंगल के बीच लारी बनाकर वहीं रात दिन रहता है जंगली जानवरों से अपनी मवेशियों को बचाने के लिए वह हमेशा सतर्क रहता है कभी-कभी तो तेंदुआ, चीता, शेर से भी सामना करना पड़ जाता है।
दीपावली के पूर्व अहीर गांव के बाहर अखरा याने अखाड़ा बनाता है वहां लाठी से युद्धाभ्यास करता है। प्रहार करना, प्रहार रोकना, शरीर के विभिन्न मार्मिक स्थानों पर प्रहार करना आदि का पूरा अभ्यास करते हैं। फिर देवउठनी एकादशी के बाद नृत्य प्रारंभ हो जाता है। नृत्य की वेशभूषा पूर्ण रुप से वीरोचित रहता है। सिर में कपड़ा का पागा जो सिरस्त्राण का काम आ सके, छाती पर कौड़ी का बना कंवच बाए हाथ में लोहे का ढाल जिससे लाठी जिसके सिरे पर लोहा या पीतल का गोल गुहा लगा हो, किसी के हाथ में घघरा (फर्सानुमा शस्त्र) तथा लोहे का गुरुद भी रहता है। घुटनों तक कसी हुई धोती इस प्रकार एक दम युद्ध की तैयारी। उनके नृत्य का वाद्य जो युद्ध भूमि में बजाया जाता है, तुरही और ढोल होता है। अहीर की यह टोली जब बाजार बिहाने जाती हैं तो नृत्य के साथ आपस में युद्ध भी करते हैं। इस प्रकार यह अहीर नृत्य उनके एवं दर्शकों में भी भाव पैदा करता है पर वर्तमान समय में इसका स्वरुप एक दम बदलकर पूर्ण रुप से श्रृंगारिक हो गया है।
जब से स्थान-स्थान पर यादव शौर्य प्रदर्शन प्रतियोगिता प्रारंभ हुई है तब से उसका स्वरुप ही बदल गया है। अब वेशभूषा में सिर पर कागज का फूल, बदन पर मखमली जड़ीदार सलूखा, हाथ में ढाल के स्थान पर रुमाल, कमर में जलाजल, कमर में धोती या हाफपेन्ट, फूलपेन्ट, गिटीस पट्टी, पैर में जूता मोजा, उसी प्रकार वाद्य में ढोल, तुरही के साथ निशान चांग और आकर्षक नाचकर जो अच्छा फिल्मी गीत या छत्तीसगढ़ी गीत गा सके। प्रतियोगिता में जो अच्छा स्थान पा सके इसी केन्द्र बिन्दु को सामने रखकर आज अहीर नृत्य किया जाता है। नृत्य को राजनैतिक संरक्षण ने और विकृत कर दिया है। शौर्य का स्थान अब श्रृंगार ने ले लिया है। पूर्व में अहीर नृत्य क्षात्र तेज का भाव समाज में उत्पन्न करता था अब तो उसी प्रकार हो गया है कि-
नीकी पै फीकी लगे, बिनु अवसर की वात।
जैसे वरणत युद्ध में, रस श्रृंगार न सुहात।।
साभार- रऊताही 1999
राऊत शब्द वीरता का द्योतक है। मानस के अनुसार चाहिये क्षेत्र कुशल रौताई ! रौताई शब्द में इतना वीर भाव है कि युद्ध के बीच, कुशल क्षेत्र की गुंजाइश नहीं है। अधिकांश रुप से यह त्यौहार वे ही यादव मनाते हैं जो अपने-अपने घरों में गाय वंश पालते हैं उन्हें अपने गोधन को चराने के लिए जंगल जाना पड़ता है जहां हमेशा जंगली जानवरों से भय बना रहता है इसलिए अपनी गो वंश को उनसे बचाने के लिए प्रत्येक अहीर वीरता का संस्कार ग्रहण करता है तथा उसका अभ्यास करता है। वर्षा के चार माह में अहीर अपना गो वंश लेकर जंगल के बीच लारी बनाकर वहीं रात दिन रहता है जंगली जानवरों से अपनी मवेशियों को बचाने के लिए वह हमेशा सतर्क रहता है कभी-कभी तो तेंदुआ, चीता, शेर से भी सामना करना पड़ जाता है।
दीपावली के पूर्व अहीर गांव के बाहर अखरा याने अखाड़ा बनाता है वहां लाठी से युद्धाभ्यास करता है। प्रहार करना, प्रहार रोकना, शरीर के विभिन्न मार्मिक स्थानों पर प्रहार करना आदि का पूरा अभ्यास करते हैं। फिर देवउठनी एकादशी के बाद नृत्य प्रारंभ हो जाता है। नृत्य की वेशभूषा पूर्ण रुप से वीरोचित रहता है। सिर में कपड़ा का पागा जो सिरस्त्राण का काम आ सके, छाती पर कौड़ी का बना कंवच बाए हाथ में लोहे का ढाल जिससे लाठी जिसके सिरे पर लोहा या पीतल का गोल गुहा लगा हो, किसी के हाथ में घघरा (फर्सानुमा शस्त्र) तथा लोहे का गुरुद भी रहता है। घुटनों तक कसी हुई धोती इस प्रकार एक दम युद्ध की तैयारी। उनके नृत्य का वाद्य जो युद्ध भूमि में बजाया जाता है, तुरही और ढोल होता है। अहीर की यह टोली जब बाजार बिहाने जाती हैं तो नृत्य के साथ आपस में युद्ध भी करते हैं। इस प्रकार यह अहीर नृत्य उनके एवं दर्शकों में भी भाव पैदा करता है पर वर्तमान समय में इसका स्वरुप एक दम बदलकर पूर्ण रुप से श्रृंगारिक हो गया है।
जब से स्थान-स्थान पर यादव शौर्य प्रदर्शन प्रतियोगिता प्रारंभ हुई है तब से उसका स्वरुप ही बदल गया है। अब वेशभूषा में सिर पर कागज का फूल, बदन पर मखमली जड़ीदार सलूखा, हाथ में ढाल के स्थान पर रुमाल, कमर में जलाजल, कमर में धोती या हाफपेन्ट, फूलपेन्ट, गिटीस पट्टी, पैर में जूता मोजा, उसी प्रकार वाद्य में ढोल, तुरही के साथ निशान चांग और आकर्षक नाचकर जो अच्छा फिल्मी गीत या छत्तीसगढ़ी गीत गा सके। प्रतियोगिता में जो अच्छा स्थान पा सके इसी केन्द्र बिन्दु को सामने रखकर आज अहीर नृत्य किया जाता है। नृत्य को राजनैतिक संरक्षण ने और विकृत कर दिया है। शौर्य का स्थान अब श्रृंगार ने ले लिया है। पूर्व में अहीर नृत्य क्षात्र तेज का भाव समाज में उत्पन्न करता था अब तो उसी प्रकार हो गया है कि-
नीकी पै फीकी लगे, बिनु अवसर की वात।
जैसे वरणत युद्ध में, रस श्रृंगार न सुहात।।
साभार- रऊताही 1999
No comments:
Post a Comment