व्यक्ति की आवश्यकताएं कभी किसी युग में पूरी नहीं हुई। वह अथक श्रम करता है सुविधाएं जुटाता है परंतु आवश्यकता के संघर्ष उसे विज्ञान के युग में भी थका देते हैं। श्रम की निरंतर मार से व्यक्ति थकता नहीं- पर थकान मिटाने के लिये उसके मन को थाह देता है- गीत नृत्य और संगीत।
संगीत किसी भाषा का मोहताज नहीं होता। पांवों की थिरकन-मन की गुनगुन और थकान की वेदना से राहत पाने के लिए लोकगीतों-लोकनृत्यों की धुन में वह समा जाता है। संघर्षरत समस्त पीड़ा थकान भूलकर वह मचल-मचल उठता है।
छत्तीसगढ़ में नृत्य-गीतों की अटूट परंपरा रही है। यहां के कर्मा नृत्य, पंथी- पंडवानी और रावत नृत्य को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय महत्व प्राप्त हो चुका है। छत्तीसगढ़ में रावत नाच की परंपरा ने अन्य लोगों में भी अपार उत्साह जगाया है। जिस तरह लोक गीतों में उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है- उसी प्रकार लोकनृत्यों में भी यह झलक लोगों को एक सूत्रता में आबद्ध करता है।
भारत में यादव जाति के लोगों की संख्या मुख्यत:म.प्र. और उ.प्र. में बहुतायात मात्रा में पाई जाती है। मोटे अनुमान के आधार पर यहां की आबादी क्रमश: 20 और 25 प्रतिशत यादव जातियों की है। म.प्र. में यादव जाति के लोगों की गणना मुख्य प्राचीन आदिवासी हरिजनों के साथ प्राचीनतम जातियों में से होती है। इन जातियों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है।
अशिक्षा के कारण यहाँ की जातियों में विकास की गति धीमी है और इनमें इन्हीं कारणों से आदिम जाति युगीन बर्बरता की झलक देखी जा सकती है। ये आपस में मार काट और शौर्य प्रदर्शन में आज भी तत्पर दिखते हैं। रावत नाच को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
बिलासपुर जिला में रावत नृत्य गीत का विशेष प्रभाव और महत्व है। लोक कला महोत्सव में से छत्तीसगढ़ की जिन लोक गीतों और लोक नृत्यों को स्थान मिलता है- उनमें रावत नृत्य गीत, करमा और पंथी-पंडवानी मुख्य है। क्षेत्र के लिए यह शुभ संकेत है। किसी जाति की चेतना में लोकोत्सवों की संस्कार एक भूमिका रखती है। पहले इन जातियों को घरों-घर, आंगन में जा जाकर गीत-नृत्य करना पड़ता था घरों की मुखिया को आशीष देकर उनसे भेंट उपहार स्वरूप राशि या अनाज पाते थे। इन राशियों का जातिय विकास में उपयोग होने के स्थान पर कुछ लोग मनोरंजन अय्याशी और दारु मुर्गा खा-पीकर उड़ा देते थे। किन्तु यह अधिक दिनों तक नहीं चली और अब रावत नाच महोत्सव, रऊताही स्मारिका आदि के प्रकाशन से इस जाति की चेतना को प्रेरणा व उत्साह मिलने लगा है।
रौताही स्मारिका वर्ष 94 देवरहट (सेमरसल) का प्रकाशन इसी कड़ी में एक अभूतपूर्व प्रयास है। मैं हिन्दी साहित्य समिति की ओर से कार्यक्रम के संरक्षकों एवं आयोजकों डॉ. एम.आर. यादव मुख्य अतिथि महोदय कार्यकर्तागण और समस्त ग्रामवासियों को बधाई और नए वर्ष की शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।
इनकी जातिय प्रगति में- 'रौताहीÓ स्मारिका प्रकाशन का कार्य इन्हें एक जुटता में पिरोये। इन्हें वीरता शौर्य प्रदान करे और राष्ट्रीय एकता की दिशा में मील का पत्थर प्रमाणित होवे।
साभार - मुंगेली रऊताही 1994
संगीत किसी भाषा का मोहताज नहीं होता। पांवों की थिरकन-मन की गुनगुन और थकान की वेदना से राहत पाने के लिए लोकगीतों-लोकनृत्यों की धुन में वह समा जाता है। संघर्षरत समस्त पीड़ा थकान भूलकर वह मचल-मचल उठता है।
छत्तीसगढ़ में नृत्य-गीतों की अटूट परंपरा रही है। यहां के कर्मा नृत्य, पंथी- पंडवानी और रावत नृत्य को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय महत्व प्राप्त हो चुका है। छत्तीसगढ़ में रावत नाच की परंपरा ने अन्य लोगों में भी अपार उत्साह जगाया है। जिस तरह लोक गीतों में उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है- उसी प्रकार लोकनृत्यों में भी यह झलक लोगों को एक सूत्रता में आबद्ध करता है।
भारत में यादव जाति के लोगों की संख्या मुख्यत:म.प्र. और उ.प्र. में बहुतायात मात्रा में पाई जाती है। मोटे अनुमान के आधार पर यहां की आबादी क्रमश: 20 और 25 प्रतिशत यादव जातियों की है। म.प्र. में यादव जाति के लोगों की गणना मुख्य प्राचीन आदिवासी हरिजनों के साथ प्राचीनतम जातियों में से होती है। इन जातियों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है।
अशिक्षा के कारण यहाँ की जातियों में विकास की गति धीमी है और इनमें इन्हीं कारणों से आदिम जाति युगीन बर्बरता की झलक देखी जा सकती है। ये आपस में मार काट और शौर्य प्रदर्शन में आज भी तत्पर दिखते हैं। रावत नाच को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
बिलासपुर जिला में रावत नृत्य गीत का विशेष प्रभाव और महत्व है। लोक कला महोत्सव में से छत्तीसगढ़ की जिन लोक गीतों और लोक नृत्यों को स्थान मिलता है- उनमें रावत नृत्य गीत, करमा और पंथी-पंडवानी मुख्य है। क्षेत्र के लिए यह शुभ संकेत है। किसी जाति की चेतना में लोकोत्सवों की संस्कार एक भूमिका रखती है। पहले इन जातियों को घरों-घर, आंगन में जा जाकर गीत-नृत्य करना पड़ता था घरों की मुखिया को आशीष देकर उनसे भेंट उपहार स्वरूप राशि या अनाज पाते थे। इन राशियों का जातिय विकास में उपयोग होने के स्थान पर कुछ लोग मनोरंजन अय्याशी और दारु मुर्गा खा-पीकर उड़ा देते थे। किन्तु यह अधिक दिनों तक नहीं चली और अब रावत नाच महोत्सव, रऊताही स्मारिका आदि के प्रकाशन से इस जाति की चेतना को प्रेरणा व उत्साह मिलने लगा है।
रौताही स्मारिका वर्ष 94 देवरहट (सेमरसल) का प्रकाशन इसी कड़ी में एक अभूतपूर्व प्रयास है। मैं हिन्दी साहित्य समिति की ओर से कार्यक्रम के संरक्षकों एवं आयोजकों डॉ. एम.आर. यादव मुख्य अतिथि महोदय कार्यकर्तागण और समस्त ग्रामवासियों को बधाई और नए वर्ष की शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।
इनकी जातिय प्रगति में- 'रौताहीÓ स्मारिका प्रकाशन का कार्य इन्हें एक जुटता में पिरोये। इन्हें वीरता शौर्य प्रदान करे और राष्ट्रीय एकता की दिशा में मील का पत्थर प्रमाणित होवे।
साभार - मुंगेली रऊताही 1994
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