भारतीय साहित्य में अग्नि पुराण के अनुसार स्तंभों का महत्वपूर्ण स्थान है इनकी पूजा अर्चना आदि काल से चली आ रही है। देवअर्चना के क्षणों को गरिमामय व महिमामय बनाने के लिए स्वर व लय का प्रमुख स्थान रहा है, जिस तरह सतनाम भाइयों के द्वारा स्तंभ (जैतखंभ) सत्य, शांति, सद्भावना का प्रतीक के रुप में मनाया जाता है उसी तरह यदुवंशियों द्वारा स्तम्भ (खोडहर) को शक्ति के रुप में प्रतीक मानकर उसकी पूजा अर्चना की जाती है।
महाभारत के प्रणेता वासुदेव श्री कृष्ण ने अपना बचपन यँू ही नहीं बिताया वरण गो वंश व यदुवंश के प्रसार की योजना भी सुनिश्चित की थी, कृष्णयुगीन इतिहास में पशु बलि प्रथा का विधान पाया गया है। श्री कृष्ण ने सिर्फ शोषण का विरोध किया वरण स्वर्गाधिपति इंद्र व अन्य निरकुंश राजाओं का मान मर्दन कर पशु, पहाड़, वनस्पति जंगल व पर्यावरण की पूजा अर्चना कराई जिसे हम गोवर्धन पर्व के रुप में मनाते हैं।
गायों को चराने के लिए गोचर हुआ करते थे। परिवार में पल रही गाय जब दूध देना बंद कर देती थी तब भू-कृषकों द्वारा अपनी गायें गोशाला में या गोचारणों को दान कर देते थे तब वे हृष्ट-पुष्ट होकर आती थी लेकिन आज हम गोपालक के गुण महत्व को भुलाकर पर्यावरण माननीय संवेदनाओं को भूलाकर धन के लोभ में गोरस, गोमांस को बेच कर अधिक दूध की आशा में फूंका से लेकर आक्सीटोक्सि जैसे हार्मोन्स का इंजेक्शन देकर अमानवीय हरकतों से बाज नहीं आते।
यदुवंशियों को चंद्रवंशी भी कहा जाता है, इनके कई उपनाम भी हो गये जैसे झेरिया, कोशरिया, कन्नौजिया इन्हीं के बीच अहीर, रावत, ठेठवार हुए हैं। जब मैंने खोडहर को प्रतीक मान शोध किया जो चौंका देने वाले तत्व उभर कर आये यह कैसे संभव हुआ बड़े बुजुर्गों से सुना तो पता चला कि द्वापर में निरकुंश राजाओं से पशुधन की हानि से बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही परिवार के चार यदुकुमारों को गाय चराने का जिम्मा दिया। माता के अज्ञानुसार वे जंगल (गोहडी) जाने को तैयार हुए। श्री कृष्ण ने नोई (गाय के पूछ से बनी रस्सी) बलराम ने खोडहर (चंदन की लकड़ी का बना मुद्गर) तथा माता ने दुहना दी।
चारों भाई असंख्य पशुधनों को लेकर जंगल की ओर प्रस्थान हुए एक जंगल के बीच झोपड़ी बना कर वे रहने लगे बीच में खोडहर को गड़ा दिया गया, सांझ ढले गये खोडहर के चारों ओर बैठ जाया करते थे, दो भाई गोधन को लेकर जंगल जाया करते थे व दो भाई भोजन पकाने के लिए अपनी झोपड़ी में रहा करते थे इसी तरह उनकी पारिया बंधी थी। एक दिन जंगल में एक गाय ने बछड़े को जन्म दिया। गोचारणों ने बछड़े को बेर की झाडिय़ों में छिपाकर गाय चराने लगे, इधर भोजन पकाने वाले दोनों भाई (कोटरी) जंगली जानवर का मांस पकाने की तलाश में निकल पड़े बेर की झाडिय़ों को हलते देख उसे कोटरी समझ बैठे और बेर की झाडिय़ों में आग लगा दी। बछड़ा जल कर खत्म हो गया, बछड़े को भूनी हुई कोटरी समझकर झोपड़ी में लाए व पकाए और एक पैर को उसी खोडहर में लटकाकर अपने चरवाहे भाइयों के आने की प्रतीक्षा करने लगे, चरवाहे भाई बेर की जली झाडिय़ों को देखा तो आत्मग्लानि से भर उठे और अनमने मन से अपनी झोपड़ी की ओर रवाना हुए। खोडहर में लटके पैर को देखकर चरवाहे भाई समझ गए कि यह बछड़ा है। भाइयों से पूछने पर उसे कोटरी बताए लेकिन उन्हें असलियत का पता चला तो वे भी आत्मग्लानि से भर उठे, जिन भाइयों ने बछड़े का चीरा फाड़ी किया उन्हीं को खोडहर देकर कन्नौज प्रांत की ओर भेज दिया जो आज जयचंद की नगरी के नाम से जाना जाता है। उन्हें कन्नौजिया (ठेठवार) से जाना जाता है, एक भाई को कोशागढ़ भेजा गया जो कोशरिया हुआ व एक भाई झिरियागढ़ चला गया जिसे झिरिया यदुवंशीय के नाम से जानते हैं।
इस तरह चारों सगे भाई अलग-अलग यदुवंशीय हो गये जिनके पास खोडहर पाया गया वे ठेठवार भाई मातर को अपना धार्मिक उत्सव के रुप में मनाते हैं। मातर जगाने का मतलब कंकालिन माता की पूजा अर्चना है, मातर के लिए खोडहर का होना अति महत्वपूर्ण है इसलिए खोडहर को शक्ति के रूप में अधिक महत्व दिया जाता है, यही मातृशक्ति का पर्यायवाची है।
साभार- रऊताही 2000
महाभारत के प्रणेता वासुदेव श्री कृष्ण ने अपना बचपन यँू ही नहीं बिताया वरण गो वंश व यदुवंश के प्रसार की योजना भी सुनिश्चित की थी, कृष्णयुगीन इतिहास में पशु बलि प्रथा का विधान पाया गया है। श्री कृष्ण ने सिर्फ शोषण का विरोध किया वरण स्वर्गाधिपति इंद्र व अन्य निरकुंश राजाओं का मान मर्दन कर पशु, पहाड़, वनस्पति जंगल व पर्यावरण की पूजा अर्चना कराई जिसे हम गोवर्धन पर्व के रुप में मनाते हैं।
गायों को चराने के लिए गोचर हुआ करते थे। परिवार में पल रही गाय जब दूध देना बंद कर देती थी तब भू-कृषकों द्वारा अपनी गायें गोशाला में या गोचारणों को दान कर देते थे तब वे हृष्ट-पुष्ट होकर आती थी लेकिन आज हम गोपालक के गुण महत्व को भुलाकर पर्यावरण माननीय संवेदनाओं को भूलाकर धन के लोभ में गोरस, गोमांस को बेच कर अधिक दूध की आशा में फूंका से लेकर आक्सीटोक्सि जैसे हार्मोन्स का इंजेक्शन देकर अमानवीय हरकतों से बाज नहीं आते।
यदुवंशियों को चंद्रवंशी भी कहा जाता है, इनके कई उपनाम भी हो गये जैसे झेरिया, कोशरिया, कन्नौजिया इन्हीं के बीच अहीर, रावत, ठेठवार हुए हैं। जब मैंने खोडहर को प्रतीक मान शोध किया जो चौंका देने वाले तत्व उभर कर आये यह कैसे संभव हुआ बड़े बुजुर्गों से सुना तो पता चला कि द्वापर में निरकुंश राजाओं से पशुधन की हानि से बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही परिवार के चार यदुकुमारों को गाय चराने का जिम्मा दिया। माता के अज्ञानुसार वे जंगल (गोहडी) जाने को तैयार हुए। श्री कृष्ण ने नोई (गाय के पूछ से बनी रस्सी) बलराम ने खोडहर (चंदन की लकड़ी का बना मुद्गर) तथा माता ने दुहना दी।
चारों भाई असंख्य पशुधनों को लेकर जंगल की ओर प्रस्थान हुए एक जंगल के बीच झोपड़ी बना कर वे रहने लगे बीच में खोडहर को गड़ा दिया गया, सांझ ढले गये खोडहर के चारों ओर बैठ जाया करते थे, दो भाई गोधन को लेकर जंगल जाया करते थे व दो भाई भोजन पकाने के लिए अपनी झोपड़ी में रहा करते थे इसी तरह उनकी पारिया बंधी थी। एक दिन जंगल में एक गाय ने बछड़े को जन्म दिया। गोचारणों ने बछड़े को बेर की झाडिय़ों में छिपाकर गाय चराने लगे, इधर भोजन पकाने वाले दोनों भाई (कोटरी) जंगली जानवर का मांस पकाने की तलाश में निकल पड़े बेर की झाडिय़ों को हलते देख उसे कोटरी समझ बैठे और बेर की झाडिय़ों में आग लगा दी। बछड़ा जल कर खत्म हो गया, बछड़े को भूनी हुई कोटरी समझकर झोपड़ी में लाए व पकाए और एक पैर को उसी खोडहर में लटकाकर अपने चरवाहे भाइयों के आने की प्रतीक्षा करने लगे, चरवाहे भाई बेर की जली झाडिय़ों को देखा तो आत्मग्लानि से भर उठे और अनमने मन से अपनी झोपड़ी की ओर रवाना हुए। खोडहर में लटके पैर को देखकर चरवाहे भाई समझ गए कि यह बछड़ा है। भाइयों से पूछने पर उसे कोटरी बताए लेकिन उन्हें असलियत का पता चला तो वे भी आत्मग्लानि से भर उठे, जिन भाइयों ने बछड़े का चीरा फाड़ी किया उन्हीं को खोडहर देकर कन्नौज प्रांत की ओर भेज दिया जो आज जयचंद की नगरी के नाम से जाना जाता है। उन्हें कन्नौजिया (ठेठवार) से जाना जाता है, एक भाई को कोशागढ़ भेजा गया जो कोशरिया हुआ व एक भाई झिरियागढ़ चला गया जिसे झिरिया यदुवंशीय के नाम से जानते हैं।
इस तरह चारों सगे भाई अलग-अलग यदुवंशीय हो गये जिनके पास खोडहर पाया गया वे ठेठवार भाई मातर को अपना धार्मिक उत्सव के रुप में मनाते हैं। मातर जगाने का मतलब कंकालिन माता की पूजा अर्चना है, मातर के लिए खोडहर का होना अति महत्वपूर्ण है इसलिए खोडहर को शक्ति के रूप में अधिक महत्व दिया जाता है, यही मातृशक्ति का पर्यायवाची है।
साभार- रऊताही 2000
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