संस्कृति के कई आयाम है जिसमें एक आयाम लोकपर्व है। लोक पर्व वास्तव में संस्कृति नहीं है। यह लोकायाम का एक स्वरुप है। इस आयाम के अंतर्गत जो कर्मकांड के रुप में संस्कार है, वहीं संस्कार, संस्कृति का रुप धारण करती है। प्रत्येक पर्व को मनाने के लिए अलग-अलग रीति, शैली व ढंग है जिसके मूल में कोई परंपरागत तथ्य रहता है उसी की यादगारी में मनाया जाता है। किसी भी पर्व को मनाने के लिए एक परंपरा होती है जिसे प्रतिभाशाली लोग प्रारंभ करते है उनके द्वारा प्रारंभ किये गये कर्मकांड को हम पर्व का रूप दे डालते हंै। पर किसी भी पर्व और त्यौहार के उद्भव का स्थल लोक ही है। जैसे-जैसे लोक उसको महत्व देते है वैसे-वैसे समय के परिवेश से लोकपर्व का स्वरुप आंशिक रुप से रुपांतरित होता जाता है पर मूल तत्व, पर्व के रुप में जीवन्त रहता है। आज के भौतिकवादी युग में लोक तत्व से संबंधित तथ्य फीके पड़ रहे हैं इससे लोक संस्कृति धूमिल सी हो रही है और लोक पर्व भी प्रभावित हो रहे हैं। जैसे-जैसे लोक संस्कृति का विघटन हो रहा है, वैसे-वैसे लोक जीवन की सहजता और उसका उल्लास भी धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण अभिजात्य संस्कृति अर्थात भौतिकवादी सभ्यता का उदय है और दूसरे शब्दों में शहरी संस्कृति का प्रसार है जो बढ़ती जा रही है, उसकी प्रतिक्रिया में ग्रामीण-संस्कृति प्रभावित होती जा रही है। ग्रामीण संस्कृति के जितने लोकायाम है, वे सभी प्रभावित हो रहे हैं। गांव-गांव में प्रचलित जितने लोक पर्व है उनका स्वरुप ही बदलता जा रहा है और विकृत रुप धारण करते जा रहा है उसकी चारुता और सौन्दर्य को लोग छोड़ते जा रहे है। आज के अभिजात्य समाज में गांव के लोग भी भौतिकवाद के आक्रमण से आक्रांत होकर मानवीय संबंधों और सामाजिकता से दूर होकर भटक रहे हंै। शहरों की शहरी संस्कृति की तरह गांवों में भी उसकी प्रतिक्रिया उभरने से भारत का लोक जीवन प्रदूषित होते जा रहा है। वे गांवों को छोड़कर शहरों में बसने का मन बना रहे हंै। इसके अतिरिक्त लोकायामों के तत्वों को विशेषकर लोक पर्वों को हेय की दृष्टि से देख रहे हैं। जहां आजादी के पूर्व प्रत्येक लोक पर्व में जो उत्साह रहता था, वह आज देखने को नहीं मिल रहा है। लोक में प्रचलित रीति-रिवाज, लोक के आनंद और सुख का साधन होते हैं। क्योंकि उनका आधार सामूहिक व्यवहार व लोक व्यवहार के शिष्टाचार, स्वागत-सत्कार तथा लोकाचार होते हैं। लोक रीतियां, सामूहिकता की वृद्धि करने वाले साधन हैं। यही कारण है कि गांवों में प्रचलित लोकपर्व, सामूहिक और सामाजिकता जीवन को प्रभावित करते रहती है। लोक व्यवहार और लोक रीति-रिवाज विशेषकर लोक पर्व तथा किन्हीं मांगलिक कार्यों में ही उभरता है।
देश के अन्य राज्यों के क्षेत्रीय लोकपर्वों की तरह छत्तीसगढ़ राज्य में लोक पर्वों की एक लंबी श्रृंखला है जो लोकायाम के तत्वों को उभारती है। छत्तीसगढ़ में हरेली, पोला, छेरछेरा, संन्ध्या पूजन, खरमछठ, राउत नाचा, बीज-पुटनी, गोंचा, गौरा उत्सव आदि बहुत से ऐसे लोक पर्व हैं जो विशेषकर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में ही मनाये जाते हंै। अन्य राज्यों के क्षेत्रों में नहीं। यहां के प्रत्येक लोक पर्व को मनाने की अलग अलग लोक शैली, लोक रीति और लोकाचार हैं जो गांव के परिवेश से संचालित रहते हैं। छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य विद्वान एवं छत्तीसगढ़ भाषा के मर्मज्ञ श्री प्रो. डॉ. पालेश्वर शर्मा ने अपनी एक अच्छी रचना 'गुड़ी के गोठÓ में यहां के प्रत्येक लोक पर्व पर विस्तृत रुप में यहां की छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाश डाला है उनकी यह सामग्री वाहिक रुप में नवभारत में प्रकाशित हो चुकी है जो छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के लिए बड़ी उपयोगी सामग्री सिद्ध हुई है पर आज के इस भौतिकवादी परिवेश में गांवों के लोकपर्व को सुरक्षित रख पाना बड़ा कठिन दिख रहा है। आज प्रश्न है उनके संरक्षण का। उनका संरक्षण तो लोक संस्कृति से ही होगा न कि शहरी संस्कृति से। आज शहर पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति से प्रभावित होते जा रहा है जो देश के लिए एक अभिशाप बन गया है।
साभार- रऊताही 2001
देश के अन्य राज्यों के क्षेत्रीय लोकपर्वों की तरह छत्तीसगढ़ राज्य में लोक पर्वों की एक लंबी श्रृंखला है जो लोकायाम के तत्वों को उभारती है। छत्तीसगढ़ में हरेली, पोला, छेरछेरा, संन्ध्या पूजन, खरमछठ, राउत नाचा, बीज-पुटनी, गोंचा, गौरा उत्सव आदि बहुत से ऐसे लोक पर्व हैं जो विशेषकर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में ही मनाये जाते हंै। अन्य राज्यों के क्षेत्रों में नहीं। यहां के प्रत्येक लोक पर्व को मनाने की अलग अलग लोक शैली, लोक रीति और लोकाचार हैं जो गांव के परिवेश से संचालित रहते हैं। छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य विद्वान एवं छत्तीसगढ़ भाषा के मर्मज्ञ श्री प्रो. डॉ. पालेश्वर शर्मा ने अपनी एक अच्छी रचना 'गुड़ी के गोठÓ में यहां के प्रत्येक लोक पर्व पर विस्तृत रुप में यहां की छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाश डाला है उनकी यह सामग्री वाहिक रुप में नवभारत में प्रकाशित हो चुकी है जो छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के लिए बड़ी उपयोगी सामग्री सिद्ध हुई है पर आज के इस भौतिकवादी परिवेश में गांवों के लोकपर्व को सुरक्षित रख पाना बड़ा कठिन दिख रहा है। आज प्रश्न है उनके संरक्षण का। उनका संरक्षण तो लोक संस्कृति से ही होगा न कि शहरी संस्कृति से। आज शहर पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति से प्रभावित होते जा रहा है जो देश के लिए एक अभिशाप बन गया है।
साभार- रऊताही 2001
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