आर्य और अनार्य संस्कृतियों का समन्वय स्थल छत्तीसगढ़ अनेक प्रकार की कलाओं से सुसज्जित है। कबरा एवं सिंघनपुर के भित्ति चित्र अनार्य सभ्यता के द्योतक हैं। सिरपुर का हरिमंदिर भारतीय आर्य वास्तुकला का एक अतुलनीय प्रतीक है। संगीत और नृत्य के संबंध में भी यह प्रदेश उतना ही धनी है जितना की वास्तुकला के संंबंध में रहा है। यहाँ के संगीत और नृत्य का उल्लेखित स्थान रहा है। यहां के मुख्य नृत्य डंडा नृत्य, चांवर नृत्य, रावत नाच, मड़ई, सुआनृत्य, करमा नृत्य आदि प्रसिद्ध हैं।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति एक ओर जहां भारतीय संस्कृति का अंग होने के कारण उसकी विशिष्टताओं को सहज ही अंगीकार करती है वहीं दूसरी ओर इसकी कुछ ऐसी आंचलिक विशिष्टता भी है जो जीवन आदर्श और प्रेरणा का पुंज प्रमाणित होती है क्योंकि छत्तीसगढ़ की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है अत: इसके समृद्ध लोकसाहित्य में उसका स्पंदन और आधुनिक लोकजीवन में उसकी छटा स्पष्ट परिलक्षित होता है।
छत्तीसगढ़ी का लोकसाहित्य संपन्न है जिसमें प्राचीन से लेकर नवीन संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं इससे प्रभावित होकर संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं इससे प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य भी एक शताब्दी की यात्रा के इतिहास को प्रस्तुत करता है। छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य छत्तीसगढ़ी जन की भावनाओं और विचारों के स्त्रोत का वह आदिम स्वरूप है जो मनुज के मन व अंतर्मन के तरंग बनने से प्रारंभ होकर संस्कृति सदृश परिवर्धन परिमार्जन की प्रक्रिया में जीवन मूल्यों के प्रवाह को समाहत करताी है यही कारण है कि छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य में लोक संस्कृति हृदय की धड़कन है। ऐसी संश्लिष्ट रचना है जिससे शिष्ट साहित्य सदृश समग्र विधाओं को परिभाषित कर निरखना, परखना बाध्य दृष्टि से कदापि संभव नहीं। यह जन-मन-जीवन अनुभव का प्रारुप ही लोकद्वारा प्रदत्त एक सूत्र है जो प्रगीत तत्वों से मिलकर लोकगीत तथा कवि से जुड़कर लोकगाथा बनती है। इसी तरह संवादों में झलकर लोकनाट्य और किस्सागोई का वैशिष्टम लोक कथा बनती है। इसके बावजूद यह भावनाओं व विचारों के प्रवाह में एक दूसरी लोकविधाओं को स्पर्श करती है, यही कारण है कि किसी लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य में विवाह का संदर्भ आने पर विवाह-गीत, प्रणय-स्पंदन में ददरिया, विप्रलंब की स्थिति में सुआ, युद्ध के दृश्यों में पंडवानी आदि अन्यान्य गीतों व लोक छंदों का आगमन होता है। लोकसाहित्य का लोक अभिप्राय ही उसे शिष्ट साहित्य से पृथक करता है जो आंतरिक दृष्टि से एक होकर सार्वदेशिक तथा आंचलिक रंगों के प्रभाव से क्षेत्रीय बन जाता है। यही लोकसाहित्य की आत्मा है जिसका तुलनात्मक अध्ययन लोक साहित्य के मूल स्वरुप को उद्घाटित करने के साथ उसके युगानुरूप परिवर्तन के इतिहास का प्रस्तुत करती है।
यादव जाति का उल्लेख वेदों में मिलने के कारण इसे वैदिक जाति भी कहा जा सकता है। पुराणों में इनका उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र अत्रि ऋषि के पुत्र चंद्रमा हुए। इनके नाम से इस वंश का नाम चंद्रवंश पड़ा। चंद्रवंशी राजाओं की वंश परंपरा में सातवें राजा यदु के नाम पर इस वंश का नाम यदुवंश प्रसिद्ध है। चंद्र के पश्चात चंद्र के पुत्र बुद्ध, बुद्ध का पुत्र पुरुरवा और पुरुरवा के आठ पुत्र हुए । इनके नाम वायु, दृढ़ायु, अश्वासु, नामालूम, घृतिमान, बसु, शुचिविद्य एवं शतायु। इनमें से ज्येष्ठ वायु के पुत्र नहुष हुए। नहुष के पुत्र रति, ययाति, संयाति, उद्भवाचि, श्याति, मेघजाति। नहुष के पश्चात ययाति शक्तिशाली सम्राट बने। ययाति की दो रानियों में से एक असुर गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी। देवयानी के दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए। यदु के चार पुत्र कोष्ठ, नील, अंतिम, लघु यदु की अड़तीसवीं पीढ़ी में सम्राट सारस्वत हुए। सारस्वत के दो पुत्र थे अंधक और वृष्णि। इन दोनों भाइयों के नाम से यह वंश दो धाराओं में विभक्त हुआ प्रथम अंधक वंशीय और द्वितीय वृष्णिय वंशीय। अंधक की दसवीं पीढ़ी में महाराज आदुक हुए। आदुक के दो पुत्र उग्रसेन तथा देवक हुए। उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ। देवक की पुत्री देवकी थी। कंस और देवकी अंधक वंशीय यादव क्षत्रिय थे और दूसरी धारा वृष्णि वंशीय यादव क्षत्रिय थे। वृष्णि के पुत्र भजमान, भजपान के पुत्र विदुरथ, विदुरथ के सुर के शिवि, शिवि के पुत्र स्वयंभोज, स्वयंभोज के हूदक, हूदक के देवबाहु, देवबाहु के विदुरथ, विदुरथ के देवभीढ़ हुए। देवभीढ़ की दो रानियां थी मरिष्ठा और गुणवती। देवभीढ़ के पुत्र सुरसेन के दस पुत्र हुए। इनके नाम है वसुदेव, शत्सक तथा वृक हुए। वसुदेव के दो पुत्र कृष्ण और बलराम। यदुकुल वंशीय भगवान श्रीकृष्ण की महिमा मंडित छवि ने इस वंश को दैदीप्यमान किया है। विधाता भगवान ब्रह्मा से जिस वंश का उद्भव हुआ, कर्मवीर श्रीकृष्ण ने जिस परंपरा को आगे बढ़ाया और आधुनिक परिवेश में भी जिन्होंने अपनी समृद्धशाली परिवेश में भी जिन्होंने अपनी समृद्धशाली परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा है।
छत्तीसगढ़ की यदुवंशियों में जातीय गीत और गाथाएं प्रचलित हैं जो प्रकारांतर में उनकी संस्कृति, जीवट व्यक्तित्व और गौरवशाली इतिहास को अभिव्यक्त करते है। इनके प्रचलित लोकगीतों में जहां भावों और विचारों की अभिव्यक्ति हंै, वहीं इनकी लोकगाथाओं में लोक चरित्र नायक प्रतिष्ठित हैं। इनके लोकगीत अत्यंत संक्षिप्त, सुगठित, सामासिक तथा हृदयस्पर्शी है इसी तरह लोकगाथाएं प्रलंभ हैं इसलिए इसके संवाहक कम लोग है। यही कारण है कि इनके लोक गीत, लोकगाथाओं के अपेक्षा जनप्रिय है मड़ई अथवा रावत नाच इनका अत्यंत लोकप्रिय लोकगीत है जो अब लोकोत्सव के रूप में चर्चित है। छत्तीसगढ़ के यदुवंशी छत्तीसगढ़ी संस्कृति से रंजित लोक कलाकार हैं। इनके प्रदेय को मात्र जातीय आधार पर नहीं निखरना चाहिए, इनके 'मड़ईÓ में पताका आर्य संस्कृति का सूचक है।
छत्तीसगढ़ आर्य, द्रविड़ व निषाद संस्कृति का समन्वय स्वरूप है। यहां निषाद संस्कृति अब अवशिष्ट के रूप में अस्तित्वमान है। इस दृष्टि से मड़ई लंबे बास से निर्मित विजय ध्वज छत्तीसगढ़ी संस्कृति का मूल स्वरूप हैं। छत्तीसगढ़ के यदुवंशी चरवाहा संस्कृति का मूल स्वरूप है। छत्तीसगढ़ के सम्यक विकास में सहायक रहे हैं। लोक कलाकार और गो-पालन संस्कृति के संरक्षक के रूप में इनका अवदान ऐतिहासिक महत्व रखता है। मड़ई छत्तीसगढ़ी शब्द है जिसका अर्थ डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार- मढ़ाना या स्थापित करना है। यह इंद्रध्वज परंपरा का मूल स्वरूप है, इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ की संस्कृति महान है।
बिलासपुर के रावत नाच महोत्सव ने जहां मड़ई लोकगीत को राष्ट्रीय ख्याति दी, वहीं देवरहट (बिलासपुर) अहीर नृत्य उत्सव का आयोजन मूल संस्कृति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से उल्लेखनीय है। मड़ई लोकगीतों के साथ छत्तीसगढ़ के यदुवंशी बांस लोकवाद्य के द्वारा भावों और विचारों को प्रस्तुत करने वाले जो गीत अभिव्यक्त करते हैं, उन्हें बांस गीत तथा कथा के आधार पर जो गाथा परोसते हैं उन्हें बांस गाथा से संबोधित किया जा सकता है। अधिकांश समीक्षक इसे बांस गीत और प्रलंब गीत कहकर ही विवेचना करते हैं, लेकिन यह दृष्टि सरसरी तौर से देखने से ही महसूस की जाती है। प्रलंब गीतों में भावों और विचारों को ही विस्तारित किया जाता है, जबकि लोकगाथा में एक कथा गुथी होती है। छत्तीसगढ़ के यदुवंशियों में जहां विविध भावों और विचारों को विवेचित करने वाले बहुरंगी लोकगीत मिलते हैं वहीं वीर और प्रेम प्रधान ऐसी गाथाएं मिलती हंै जो छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की धरोहर है। ये लोक गाथाएं छत्तीसगढ़ के अहीरों में ही प्रचलित हंै तथा रावत जाति के ही आदर्श चरित्र के रूप में अवतरित हैं। अत: इन गाथाओं का स्थान विशिष्ट है।
बाँसगीतों में मुक्तक और प्रबंधात्मक दो प्रकार के गीत मिलते हंै। इनमें जहां मुक्तक काव्य के समानांतर भाव-प्रवण बाँसगीत उपलब्ध होते हैं वहां संक्षिप्तता, किंतु जहां प्रबंध काव्यात्मकता के समानांतर बाँसगीतों के प्रलंब गीत उपलब्ध होते हैं वहां कथा और भावाओं का सुंदर परिपाक होता है। बाँसगीत को मात्र लोकगीत से अभिहित करके मूल्यांकन करने का प्रयास अपूर्ण होगा। बाँसवादक यदुवंशी जन तरंग में होते हैं तब कथा-चरित्रों को लंबे बाँस में भरकर रससिक्त बनाकर उसे प्रवाहित करते हैं। कई गाथाएं तो इतनी बड़ी होती है कि इसे वे मासपर्यत गाते हैं। इस आधार पर बाँसगीत को समग्र काव्य के समानांतर दो वर्गों में बांट कर सरलतापूर्वक अध्ययन किया जा सकता है। प्रथम वर्ग 'बाँसगीतÓ से संबांधित होगा जिसमें लोकगीत की परिभाषा को 'बाँसगाथाÓ से संबांधित करना होगा। इस प्रकार 'बाँसगीत Ó और 'बाँसगाथाÓ का समग्र अध्ययन प्रकारांतर में छत्तीसगढ़ी लोकगीतों और लोकगाथाओं के अध्ययन को भी रेखांकित करेगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि 'बांसगीतÓ शब्द युग्म इतना रूढ़ हो चुका है कि इसके प्रलंब गीतों को गाथा के रूप में अभिहित करना सामान्यत: विचित्र लग सकता है, किंतु विशिष्ट संदर्भों में इसकी चर्चा करते समय इसे गाथा कहना भी आवश्यक हो जाता है। ये केवल बाँस छंदों पर निर्मित गाथाएं ही हंै।
बाँसगाथाओं में प्राय: चरवाहा संस्कृति संपृक्त है। राउत उन्हीं पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों को अधिगृहीत करता है जो या तो चरवाहा संस्कृति से रंजित हो अथवा पूर्वजों द्वारा संचित आध्यात्मिक आस्था से ओत-प्रोत आख्यानक का आधार हो। इस तरह लगभग तीस संग्रहित बाँसगाथाओं को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से चरवाहा संस्कृति जन्यगाथाएँ और पुराण तथा इतिहासजन्य गाथाएं इस तरह दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
बाँस गाथाओं में प्राय: ऐसी गाथाओं की बहुलता है जिनमें राउतों की विशिष्ट संस्कृति चरवाहा संस्कृति प्रभूत परिमाण में उपलब्ध है। बाँस गाथाएं युगों-युगों से मौखिक परंपरा में प्रचलित होते हुए भी इसलिए अमर अथवा कालजयी है क्योंकि उन्हें चरवाहा संस्कृति का अमृत मिला है। इसी गौरव के सहारे राउत जाने-अनजाने पारंपरिक गाथाओं को बाँसों में गाते बजाते हैं।
चरवाहा संस्कृति जन्य गाथाओं में पराक्रम और प्रेम की बहुलता है। सच भी है, जहां शौर्य और वीरता जाति गौरव से आह्लायित है वहीं प्रेम के तरल कोमल हृदय को भी प्रकाशित करते हंै। वीरगाथाकालीन रचनाओं में वीर और श्रृंगार रस की ही प्रचुरता है और यही लौकिक मनुज के जीवन का उद्देश्य भी है। मध्यकाल में वीरता में कमी आयी और प्रेम केवल शरीर सुख का उपक्रम निरूपित हुआ। इसी तरह की उभय विध स्थितियां इन गाथाओं में भी संरक्षित है। इसके अतिरिक्त तंत्र-मंत्र का मायाजाल और परकाया प्रवेश की विद्या से मंडित बांस गाथाएं भी मिलती है जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति की विशिष्टता को प्रदर्शित करती हैं।
इस प्रकार की संकलित गाथाओं के कथ्य के मूल बिंदु पर केन्द्रित होकर इन्हें अधोलिखित तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(अ) वीराख्यानक गाथाएं (ब) प्रेमाख्यानक गाथाएं (स) रोमांचक गाथाएं
यह पहले भी लिया जा चुका है कि राउतों का संबंध शासक वर्ग से था और इनका जीवन वीरतापूर्ण कार्यों से संबंधित रहा है। यही कारण है कि इनकी गाथाओं में वीरता का चरम प्रदर्शन मिलता है। ऐसी अनेक गाथाएं अद्य पर्यन्त राउतों के कंठ से सुरक्षित हैं जो इनकी वीरता, शौर्य एवं पराक्रम का अलौकिक तथा अतिश्योक्तिपूर्ण निदर्शन कराते हैं। इनकी शौर्य-प्रतीक लाठी चिर संगिनी की भांति इनके हाथ से जुड़ी रहती है। बाँसगाथाओं में प्राय: इनकी लाठी के चमत्कारपूर्ण वार की चर्चा समादृत है। इस वर्ग के अंतर्गत गोइंदी, राउत, छहुरा-मकुंदा, कंठी, राउत एवं भुजबल राउत की गाथाओं को रख सकते हैं।
यद्यपि चरवाहा संस्कृति के बिना बाँसगाथाओं की कल्पना संभव प्रतीत नहीं होती तथापि कुछ ऐसी गाथाएं बाँस पर अवश्य गायी जाती हैं जिनमें या तो चरवाहा संस्कृति अत्यल्प परिमाण में उपलब्ध है अथवा आध्यात्मिक या ऐतिहासिक दबाव के कारण उसका तिरोभाव हो जाता है। पुराण तथा इतिहासजन्य गाथाएं प्राय: कल्पना समन्वित तथा आंचलिक आलोक सम्मिश्रित मिलती हैं। ऐसी गाथाओं में किसन-चरित, गोबरधन पूजा, सरवन कुमार, लेढ़वा राउत, राजा जंगी ठेठवार, राजा भरथरी, आल्हा-उदल, रोहितदास भगत, बघवा अउ बाम्हन का नाम लिया जा सकता है। इसके विपरीत पूर्णत: पुराण आश्रित गाथाएं भी उपलब्ध है जिनमें कल्पना और आंचलिकता के लिए कोई अवकाश नहीं होता। ऐसी गाथाओं में गनेस गाथा, हनुमान के समुंद लांघन और किसन अउतार के नाम परिगणित कराए जा सकते हंै।
छत्तीसगढ़ में प्रचलित विविध वर्णी लोकगीतों में बाँसगीतों का वैशिष्ट अनेक कथा उद्घाटित की जा सकती है। यदुवंशी अपने 'बाँसÓ को सामान्य लौकिक वाद्य यंत्र नहीं मानता है, प्रत्युत वह देवताओं द्वारा निर्मित है, उसके वादन-गायन का कार्य देवियां करती हैं-
'अरे गाँवे के देवता मोर बाँसे ल काटे ना अउ
अगिन देवता रे छेदे बाँस हो।Ó
अउ सारद माता मोर बाँस बजावै ना अउ
सरसती न गाये फेर गीद हो।
राउतों की यह मान्यता है कि बिना दैवी अनुग्रह के बाँसगीत गायन संभव नहीं। वह जानता है कि लिखते समय लेखनी से भूल सहज संभव है, जबकि वेदशास्त्र पाठी से उसके पठन में त्रुटि असंभव नहीं है। फिर वह तो निरक्षर भट्ट है। उसने कभी कलम हाथ नहीं गही और मौखिक परंपरा से प्राप्त सामग्री का ही परायण करता है, अत: इसमें भूल-चूक की आशंका बनी ही रहती है-
'अउ लिखन मं चूकै लिखनी हर भइया मेरा,
बांचे मं बेद रे पुरान हो।
अजी मैं तो गावत हौं मुंह अखरा जंवरिहा मेरा,
कलम धरें न कभू हाथ हो।।Ó
यही कारण है कि राउत जोहरनी या मंगलाचरण द्वारा अपने इष्टदेव एवं माँ शारदा का आह्वान करना नहीं भूलता-
'अहो सारद सारद तोला रटौं भवानी माता,
तैं तो सारद चमडोर हो।
उतर सारद माता अपन भुवन ले ओ
बैठो मोरे मंदे दरबार।
सारद माता तोला आवत सुनतेंव दाई,
माड़ी ले धोंतेंव तोर गोड़।
फूले अउ के मैं तकिया लगावेंव माता,
बइठक देतेंव ओ तुम्हार।
चंदन पिढुलिया के बइठक देतेंव माता,
नामे ल लेतेंव दिन रात हो।।Ó
मंगलाचरण से मंत्रपूत हुआ 'बाँसÓ अलौकिक शक्ति संपन्न हो जाता है, अत: अपनी विशिष्ट घोष से चारों दिशाओं को झंकृत करता है।
बांसगाथाओं के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में लोरिक चंदा की जो गाथा प्रचलित है उसमें भी अहीर संस्कृति संरक्षित है।
'लोरिक चंदाÓ छत्तीसगढ़ी लोकगाथा है जिसमें यदुवंशियों का जातीय गौरव सुरक्षित है। छत्तीसगढ़ अंचल के अतिरिक्त यह लोकगाथा, भोजपुरी, मंगही, मैथिली, बंगला एवं तेलगू आदि बोली भाषा में प्रचलित है। इस दृष्टि से इसका तुलनात्मक अध्ययन जहां संस्कृति व परिवेश का भेद निर्दिष्ट करता है वहीं मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल व दक्षिण में अहीरों पर इस गाथा को अधिकांश समीक्षक बिहार प्रांत की मूल लोक रचना मानते है। भोजपुरी लोकगाथा के आचार्य डॉ. सत्यव्रत सिन्हा के अनुसार समस्त भोजपुरी प्रदेश में 'लोरिकीÓ की लोकगाथा व्यापक रूप से प्रचलित है। 'लोरिकीÓ को लोरिकीयन के नाम से अभिहीत किया जाता है। वस्तुत: यह अहीरों का जातीय काव्य है। अहीर लोग अपने यहां उत्सवों एवं शुभ संस्कारों के अवसर पर उत्साह से 'लोरिकीÓ गाते हैं। इसमें अहीर जाति के जीवन का गौरवपूर्ण चित्रण है।
रामायण की तर्ज पर इस गाथा को 'लोरिकायनÓ कहना लोक द्वारा उसकी सत्ता महत्ता का कर्म धर्म के रूप से स्वीकृति का प्रतिफलन है। यद्यपि भोजपुरी में यह गाथा अहीरों का जातीय लोक महाकाव्य है तथापि छत्तीसगढ़ में यह समग्र जातियों की श्रद्धा विश्वास का संयोजन है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ की इस लोकगाथा में हीरो के शौर्य और प्रेम के आदर्श को अन्य जाति के लोग भी गाते हैं। स्पष्ट है कि भोजपुरी में जहां यह जातीय लोकगाथा है। वहीं छत्तीसगढ़ी में प्रेमाख्यानक प्रतिनिधि लोकगाथा है। इस लोकगाथा में यद्यपि यदुवंशी श्रमिक वर्ग का है तथापि प्रतिभा व वीरता के संस्कार से वह उत्कर्ष को स्पर्श करता है। ऐसा आभास होता है कि मूल लोकगाथा छत्तीसगढ़ी की हो जिसका संस्करण भोजपुरी में प्रतिष्ठित हो गया है।
छत्तीसगढ़ी लोकगाथा 'लोरिक चंदाÓ का संबंध रायपुर जिला अंतर्गत ग्राम रीवा (लखौली) है। रीवा और आसपास के ग्रामवासियों में 'लोरिक चंदा से संबंधितÓ घटनाओं और स्थानों की किंवदंतिया विद्यमान है। आवश्यकता है, इस लोकगाथा के अनुसार निर्दिष्ट स्थानों के गहन-सघन अन्वेषण की। यह घटना मूल रूप से इस अंचल की धरोहर भी हो सकती है। इस दृष्टि से पूर्वाग्रह दुराग्रह से मुक्त शोध की महती आवश्यकता है। 'लोरिकायनÓ व 'लोरिकीÓ का विकास लोरिक से हुआ है। भाषा विज्ञान के इस नियम के आधार पर यह सिद्ध है कि इस अंचल में प्रतिष्ठित 'लोरिक चंदाÓ मूल शब्द है। प्रख्यात भाषा विद डॉ. विनयकुमार पाठक बताते हैं कि आज से अठारह वर्ष पूर्व ग्राम रींवा जाकर मैंने लोरिक चंदा से संबंधित घटनाओं के स्थानों को निरखा-परखा है और बहुश्रुतों-बहुज्ञों से चर्चा की है, इस विषय पर शोध से नए तथ्य उद्घाटित होंगे, ऐसी मेरी मान्यता है।
नायिका का नाम छत्तीसगढ़ी में चंदा और चनैनी, भोजपुरी में चनवा , मैथिली में चनैन, उत्तरप्रदेश चनवा, हैदराबादी में चंदा एवं बंगाली में चंद्राली है। चंदा के जन्म की घटना का चित्रण करते हुए कवि संतराम साहू चंदा की जगह उसका 'चनैनीÓ अर्थात नक्षत्र रखने का तथ्य प्रकट करते हैं। यह टोटका का उपक्रम है-
टोटका बचाये बर, नाम कइसे लेबो
आंखी जुग-जुग दिखले, चंदा के नाव चंदैनी धरबो।
सुकुमारी रानी बर, किसिम-किसिम सोंचत हे।
राड़ी मन के पातर नजर बर, कान म दौना खोंचत हे।
स्पष्ट है कि प्रथम दर्शन में माता-पिता द्वारा उसका नाम चंदा रख गया, लेकिन छत्तीसगढ़ी संस्कृति में संस्थित टोटका के अनुरुप उसका महत्व कम करने के लिए 'चनैनीÓ नाम दिया गया। इस नाम की सार्थकता यह सिद्ध करती है कि नायिका का नाम इस अंचल की संस्कृति के अनुरूप है। अन्य क्षेत्र के पात्र नाम कितने सार्थक हंै, यह उस क्षेत्र के विद्वान भलीभांति बताएंगे। सहनायिका का नाम छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में मंजरी, मैथिली में मंझारी, बंगाली में मयनावती तथा हैदराबादी में मैना है। बंगाल में यह लोकगाथा इसी आधार पर 'मैनावतीÓ के नाम से अभिहित है।
बिहार में अहीरों के जातीय लोक महाकाव्य के रूप से प्रतिष्ठित 'लोरिकीÓ उत्सवों व मांगलिक अवसरों पर गेय है, इसमें अहीर लोरिक अवतार पुरुष के रूप से वर्णित है। इसकी वीरता अलौकिक है और पराक्रम अद्भुत अद्वितीय। छत्तीसगढ़ी में इसे प्राय: दो लोग गाते हैं। एक प्रमुख गायक होता है और दूसरे उसके स्वर (राग) में स्वर मिलाने वाला रागी कहलाता है। इसका कार्य लोकगाथा में हुकृति देने वाले की तरह होता है। अंतर यह है कि इस लोकगाथा का रागी पूरी गाथा जानने के कारण एक ओर जहां प्रमुख गायक के आधे भाग 'अर्धालीÓ को उठाता है अर्थात प्रमुख गायक के सिर मेेंं धड़ जोड़ता है। वहीं हुकृति और उत्सुकता के द्वारा श्रोतावर्ग का भाव और कथा समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। इसे प्रस्तुत करते हुए कमर में हुए हाव-भाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इस तरह यह लोक नाट्य से संपृत्त होकर खड़े साज की लोकशैली का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक व्यक्ति मशाल लेकर मानों निराशा के अंधकार में प्रेम और वीरता को ज्योति को नचाता है।
छत्तीसगढ़ी खण्ड काव्य 'लोरिक चंदाÓ में यदुवंशियों का शौर्य व गौरवशाली संस्कृति उद्घाटित है। जन्म खण्ड में छत्तीसगढ़ के अहीरों का परिवेश जीवंत है-
आगू मा कासन चढ़े कस, घोड़ेय हे भाटा मन।
अखरा खेलत कलमी दैहान हा, कहर-कहर करय।
फड़ी लउठी के डर मा, पचडगरी आने डहर भागय।
एक-एक ले करामात अउ देखावत अयबी।
कोनहा के खवइयां मन के, नई चलय सुख सइबी।।
ककरो लउठी सावन कस बरसय, चलय भादो अंधियारी।
झोंकय रे अहीर मनौहा, फड़ी म झोंकय बारी।
बड़े-बड़े लठबाझ अहीरा, अउ बड़का लड़का है।
बड़े-बड़े मुखबीर जोइधा, बजाय हे, डंका हे।
अंतिम पंक्ति यों में अहीरों के लठबाज, लड़ाकू एवं शूरवीर होने का विशेषण उनकी युद्धप्रियता और जातीय गुण-गौरव की अभिव्यक्ति है।
छत्तीसगढ़ के यदुवंशियों का छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य और लोकसंस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। वस्तुत: ये यदुवंशी छत्तीसगढ़ी लोककलाकार हैं जो लोकगीता और गाथाओं को सुरक्षित रख प्राचीन संस्कृति और गौरवमयी इतिहास के पृष्ठ को ही प्रस्तुत करते हैं। इनके लोकगीतों में कर्मठता का संदेश है और शौर्य में पराक्रम का प्रादर्श। इनका सरल-सहज निश्छल निष्कपट जीवन इनके लोकगीतों एवं लोकगाथाओं में अभिव्यंजित है। यद्यपि इनके पराक्रम और पुरुषार्थ लोकगीतों एवं गाथाओं के अंग बने हुए हैं तथापि इनकी कर्मठता और जीवन के विविध क्षेत्रों में इनका योगदान इनके पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।
छत्तीसगढ़ी के अन्य लोकसाहित्य अर्थात लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य और लोकोक्ति भी ये संरक्षित किये हुए हैं। जिस तरह छत्तीसगढ़ी और लोकजीवन इन यदुवंशियों की पहचान है। इन्होंने जिस तरह अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए छत्तीसगढ़ की संस्कृति को अपनाया, वह इनकी उदारता और समन्वयवादिता का प्रतीक है। यही शक्ति इनके गौरव ध्वज को जातीय लोकगीतों और गाथाओं में सुरक्षित रखे हुए हैं।
साभार रऊताही 2002
छत्तीसगढ़ी संस्कृति एक ओर जहां भारतीय संस्कृति का अंग होने के कारण उसकी विशिष्टताओं को सहज ही अंगीकार करती है वहीं दूसरी ओर इसकी कुछ ऐसी आंचलिक विशिष्टता भी है जो जीवन आदर्श और प्रेरणा का पुंज प्रमाणित होती है क्योंकि छत्तीसगढ़ की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है अत: इसके समृद्ध लोकसाहित्य में उसका स्पंदन और आधुनिक लोकजीवन में उसकी छटा स्पष्ट परिलक्षित होता है।
छत्तीसगढ़ी का लोकसाहित्य संपन्न है जिसमें प्राचीन से लेकर नवीन संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं इससे प्रभावित होकर संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं इससे प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य भी एक शताब्दी की यात्रा के इतिहास को प्रस्तुत करता है। छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य छत्तीसगढ़ी जन की भावनाओं और विचारों के स्त्रोत का वह आदिम स्वरूप है जो मनुज के मन व अंतर्मन के तरंग बनने से प्रारंभ होकर संस्कृति सदृश परिवर्धन परिमार्जन की प्रक्रिया में जीवन मूल्यों के प्रवाह को समाहत करताी है यही कारण है कि छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य में लोक संस्कृति हृदय की धड़कन है। ऐसी संश्लिष्ट रचना है जिससे शिष्ट साहित्य सदृश समग्र विधाओं को परिभाषित कर निरखना, परखना बाध्य दृष्टि से कदापि संभव नहीं। यह जन-मन-जीवन अनुभव का प्रारुप ही लोकद्वारा प्रदत्त एक सूत्र है जो प्रगीत तत्वों से मिलकर लोकगीत तथा कवि से जुड़कर लोकगाथा बनती है। इसी तरह संवादों में झलकर लोकनाट्य और किस्सागोई का वैशिष्टम लोक कथा बनती है। इसके बावजूद यह भावनाओं व विचारों के प्रवाह में एक दूसरी लोकविधाओं को स्पर्श करती है, यही कारण है कि किसी लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य में विवाह का संदर्भ आने पर विवाह-गीत, प्रणय-स्पंदन में ददरिया, विप्रलंब की स्थिति में सुआ, युद्ध के दृश्यों में पंडवानी आदि अन्यान्य गीतों व लोक छंदों का आगमन होता है। लोकसाहित्य का लोक अभिप्राय ही उसे शिष्ट साहित्य से पृथक करता है जो आंतरिक दृष्टि से एक होकर सार्वदेशिक तथा आंचलिक रंगों के प्रभाव से क्षेत्रीय बन जाता है। यही लोकसाहित्य की आत्मा है जिसका तुलनात्मक अध्ययन लोक साहित्य के मूल स्वरुप को उद्घाटित करने के साथ उसके युगानुरूप परिवर्तन के इतिहास का प्रस्तुत करती है।
यादव जाति का उल्लेख वेदों में मिलने के कारण इसे वैदिक जाति भी कहा जा सकता है। पुराणों में इनका उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र अत्रि ऋषि के पुत्र चंद्रमा हुए। इनके नाम से इस वंश का नाम चंद्रवंश पड़ा। चंद्रवंशी राजाओं की वंश परंपरा में सातवें राजा यदु के नाम पर इस वंश का नाम यदुवंश प्रसिद्ध है। चंद्र के पश्चात चंद्र के पुत्र बुद्ध, बुद्ध का पुत्र पुरुरवा और पुरुरवा के आठ पुत्र हुए । इनके नाम वायु, दृढ़ायु, अश्वासु, नामालूम, घृतिमान, बसु, शुचिविद्य एवं शतायु। इनमें से ज्येष्ठ वायु के पुत्र नहुष हुए। नहुष के पुत्र रति, ययाति, संयाति, उद्भवाचि, श्याति, मेघजाति। नहुष के पश्चात ययाति शक्तिशाली सम्राट बने। ययाति की दो रानियों में से एक असुर गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी। देवयानी के दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए। यदु के चार पुत्र कोष्ठ, नील, अंतिम, लघु यदु की अड़तीसवीं पीढ़ी में सम्राट सारस्वत हुए। सारस्वत के दो पुत्र थे अंधक और वृष्णि। इन दोनों भाइयों के नाम से यह वंश दो धाराओं में विभक्त हुआ प्रथम अंधक वंशीय और द्वितीय वृष्णिय वंशीय। अंधक की दसवीं पीढ़ी में महाराज आदुक हुए। आदुक के दो पुत्र उग्रसेन तथा देवक हुए। उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ। देवक की पुत्री देवकी थी। कंस और देवकी अंधक वंशीय यादव क्षत्रिय थे और दूसरी धारा वृष्णि वंशीय यादव क्षत्रिय थे। वृष्णि के पुत्र भजमान, भजपान के पुत्र विदुरथ, विदुरथ के सुर के शिवि, शिवि के पुत्र स्वयंभोज, स्वयंभोज के हूदक, हूदक के देवबाहु, देवबाहु के विदुरथ, विदुरथ के देवभीढ़ हुए। देवभीढ़ की दो रानियां थी मरिष्ठा और गुणवती। देवभीढ़ के पुत्र सुरसेन के दस पुत्र हुए। इनके नाम है वसुदेव, शत्सक तथा वृक हुए। वसुदेव के दो पुत्र कृष्ण और बलराम। यदुकुल वंशीय भगवान श्रीकृष्ण की महिमा मंडित छवि ने इस वंश को दैदीप्यमान किया है। विधाता भगवान ब्रह्मा से जिस वंश का उद्भव हुआ, कर्मवीर श्रीकृष्ण ने जिस परंपरा को आगे बढ़ाया और आधुनिक परिवेश में भी जिन्होंने अपनी समृद्धशाली परिवेश में भी जिन्होंने अपनी समृद्धशाली परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा है।
छत्तीसगढ़ की यदुवंशियों में जातीय गीत और गाथाएं प्रचलित हैं जो प्रकारांतर में उनकी संस्कृति, जीवट व्यक्तित्व और गौरवशाली इतिहास को अभिव्यक्त करते है। इनके प्रचलित लोकगीतों में जहां भावों और विचारों की अभिव्यक्ति हंै, वहीं इनकी लोकगाथाओं में लोक चरित्र नायक प्रतिष्ठित हैं। इनके लोकगीत अत्यंत संक्षिप्त, सुगठित, सामासिक तथा हृदयस्पर्शी है इसी तरह लोकगाथाएं प्रलंभ हैं इसलिए इसके संवाहक कम लोग है। यही कारण है कि इनके लोक गीत, लोकगाथाओं के अपेक्षा जनप्रिय है मड़ई अथवा रावत नाच इनका अत्यंत लोकप्रिय लोकगीत है जो अब लोकोत्सव के रूप में चर्चित है। छत्तीसगढ़ के यदुवंशी छत्तीसगढ़ी संस्कृति से रंजित लोक कलाकार हैं। इनके प्रदेय को मात्र जातीय आधार पर नहीं निखरना चाहिए, इनके 'मड़ईÓ में पताका आर्य संस्कृति का सूचक है।
छत्तीसगढ़ आर्य, द्रविड़ व निषाद संस्कृति का समन्वय स्वरूप है। यहां निषाद संस्कृति अब अवशिष्ट के रूप में अस्तित्वमान है। इस दृष्टि से मड़ई लंबे बास से निर्मित विजय ध्वज छत्तीसगढ़ी संस्कृति का मूल स्वरूप हैं। छत्तीसगढ़ के यदुवंशी चरवाहा संस्कृति का मूल स्वरूप है। छत्तीसगढ़ के सम्यक विकास में सहायक रहे हैं। लोक कलाकार और गो-पालन संस्कृति के संरक्षक के रूप में इनका अवदान ऐतिहासिक महत्व रखता है। मड़ई छत्तीसगढ़ी शब्द है जिसका अर्थ डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार- मढ़ाना या स्थापित करना है। यह इंद्रध्वज परंपरा का मूल स्वरूप है, इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ की संस्कृति महान है।
बिलासपुर के रावत नाच महोत्सव ने जहां मड़ई लोकगीत को राष्ट्रीय ख्याति दी, वहीं देवरहट (बिलासपुर) अहीर नृत्य उत्सव का आयोजन मूल संस्कृति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से उल्लेखनीय है। मड़ई लोकगीतों के साथ छत्तीसगढ़ के यदुवंशी बांस लोकवाद्य के द्वारा भावों और विचारों को प्रस्तुत करने वाले जो गीत अभिव्यक्त करते हैं, उन्हें बांस गीत तथा कथा के आधार पर जो गाथा परोसते हैं उन्हें बांस गाथा से संबोधित किया जा सकता है। अधिकांश समीक्षक इसे बांस गीत और प्रलंब गीत कहकर ही विवेचना करते हैं, लेकिन यह दृष्टि सरसरी तौर से देखने से ही महसूस की जाती है। प्रलंब गीतों में भावों और विचारों को ही विस्तारित किया जाता है, जबकि लोकगाथा में एक कथा गुथी होती है। छत्तीसगढ़ के यदुवंशियों में जहां विविध भावों और विचारों को विवेचित करने वाले बहुरंगी लोकगीत मिलते हैं वहीं वीर और प्रेम प्रधान ऐसी गाथाएं मिलती हंै जो छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की धरोहर है। ये लोक गाथाएं छत्तीसगढ़ के अहीरों में ही प्रचलित हंै तथा रावत जाति के ही आदर्श चरित्र के रूप में अवतरित हैं। अत: इन गाथाओं का स्थान विशिष्ट है।
बाँसगीतों में मुक्तक और प्रबंधात्मक दो प्रकार के गीत मिलते हंै। इनमें जहां मुक्तक काव्य के समानांतर भाव-प्रवण बाँसगीत उपलब्ध होते हैं वहां संक्षिप्तता, किंतु जहां प्रबंध काव्यात्मकता के समानांतर बाँसगीतों के प्रलंब गीत उपलब्ध होते हैं वहां कथा और भावाओं का सुंदर परिपाक होता है। बाँसगीत को मात्र लोकगीत से अभिहित करके मूल्यांकन करने का प्रयास अपूर्ण होगा। बाँसवादक यदुवंशी जन तरंग में होते हैं तब कथा-चरित्रों को लंबे बाँस में भरकर रससिक्त बनाकर उसे प्रवाहित करते हैं। कई गाथाएं तो इतनी बड़ी होती है कि इसे वे मासपर्यत गाते हैं। इस आधार पर बाँसगीत को समग्र काव्य के समानांतर दो वर्गों में बांट कर सरलतापूर्वक अध्ययन किया जा सकता है। प्रथम वर्ग 'बाँसगीतÓ से संबांधित होगा जिसमें लोकगीत की परिभाषा को 'बाँसगाथाÓ से संबांधित करना होगा। इस प्रकार 'बाँसगीत Ó और 'बाँसगाथाÓ का समग्र अध्ययन प्रकारांतर में छत्तीसगढ़ी लोकगीतों और लोकगाथाओं के अध्ययन को भी रेखांकित करेगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि 'बांसगीतÓ शब्द युग्म इतना रूढ़ हो चुका है कि इसके प्रलंब गीतों को गाथा के रूप में अभिहित करना सामान्यत: विचित्र लग सकता है, किंतु विशिष्ट संदर्भों में इसकी चर्चा करते समय इसे गाथा कहना भी आवश्यक हो जाता है। ये केवल बाँस छंदों पर निर्मित गाथाएं ही हंै।
बाँसगाथाओं में प्राय: चरवाहा संस्कृति संपृक्त है। राउत उन्हीं पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों को अधिगृहीत करता है जो या तो चरवाहा संस्कृति से रंजित हो अथवा पूर्वजों द्वारा संचित आध्यात्मिक आस्था से ओत-प्रोत आख्यानक का आधार हो। इस तरह लगभग तीस संग्रहित बाँसगाथाओं को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से चरवाहा संस्कृति जन्यगाथाएँ और पुराण तथा इतिहासजन्य गाथाएं इस तरह दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
बाँस गाथाओं में प्राय: ऐसी गाथाओं की बहुलता है जिनमें राउतों की विशिष्ट संस्कृति चरवाहा संस्कृति प्रभूत परिमाण में उपलब्ध है। बाँस गाथाएं युगों-युगों से मौखिक परंपरा में प्रचलित होते हुए भी इसलिए अमर अथवा कालजयी है क्योंकि उन्हें चरवाहा संस्कृति का अमृत मिला है। इसी गौरव के सहारे राउत जाने-अनजाने पारंपरिक गाथाओं को बाँसों में गाते बजाते हैं।
चरवाहा संस्कृति जन्य गाथाओं में पराक्रम और प्रेम की बहुलता है। सच भी है, जहां शौर्य और वीरता जाति गौरव से आह्लायित है वहीं प्रेम के तरल कोमल हृदय को भी प्रकाशित करते हंै। वीरगाथाकालीन रचनाओं में वीर और श्रृंगार रस की ही प्रचुरता है और यही लौकिक मनुज के जीवन का उद्देश्य भी है। मध्यकाल में वीरता में कमी आयी और प्रेम केवल शरीर सुख का उपक्रम निरूपित हुआ। इसी तरह की उभय विध स्थितियां इन गाथाओं में भी संरक्षित है। इसके अतिरिक्त तंत्र-मंत्र का मायाजाल और परकाया प्रवेश की विद्या से मंडित बांस गाथाएं भी मिलती है जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति की विशिष्टता को प्रदर्शित करती हैं।
इस प्रकार की संकलित गाथाओं के कथ्य के मूल बिंदु पर केन्द्रित होकर इन्हें अधोलिखित तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(अ) वीराख्यानक गाथाएं (ब) प्रेमाख्यानक गाथाएं (स) रोमांचक गाथाएं
यह पहले भी लिया जा चुका है कि राउतों का संबंध शासक वर्ग से था और इनका जीवन वीरतापूर्ण कार्यों से संबंधित रहा है। यही कारण है कि इनकी गाथाओं में वीरता का चरम प्रदर्शन मिलता है। ऐसी अनेक गाथाएं अद्य पर्यन्त राउतों के कंठ से सुरक्षित हैं जो इनकी वीरता, शौर्य एवं पराक्रम का अलौकिक तथा अतिश्योक्तिपूर्ण निदर्शन कराते हैं। इनकी शौर्य-प्रतीक लाठी चिर संगिनी की भांति इनके हाथ से जुड़ी रहती है। बाँसगाथाओं में प्राय: इनकी लाठी के चमत्कारपूर्ण वार की चर्चा समादृत है। इस वर्ग के अंतर्गत गोइंदी, राउत, छहुरा-मकुंदा, कंठी, राउत एवं भुजबल राउत की गाथाओं को रख सकते हैं।
यद्यपि चरवाहा संस्कृति के बिना बाँसगाथाओं की कल्पना संभव प्रतीत नहीं होती तथापि कुछ ऐसी गाथाएं बाँस पर अवश्य गायी जाती हैं जिनमें या तो चरवाहा संस्कृति अत्यल्प परिमाण में उपलब्ध है अथवा आध्यात्मिक या ऐतिहासिक दबाव के कारण उसका तिरोभाव हो जाता है। पुराण तथा इतिहासजन्य गाथाएं प्राय: कल्पना समन्वित तथा आंचलिक आलोक सम्मिश्रित मिलती हैं। ऐसी गाथाओं में किसन-चरित, गोबरधन पूजा, सरवन कुमार, लेढ़वा राउत, राजा जंगी ठेठवार, राजा भरथरी, आल्हा-उदल, रोहितदास भगत, बघवा अउ बाम्हन का नाम लिया जा सकता है। इसके विपरीत पूर्णत: पुराण आश्रित गाथाएं भी उपलब्ध है जिनमें कल्पना और आंचलिकता के लिए कोई अवकाश नहीं होता। ऐसी गाथाओं में गनेस गाथा, हनुमान के समुंद लांघन और किसन अउतार के नाम परिगणित कराए जा सकते हंै।
छत्तीसगढ़ में प्रचलित विविध वर्णी लोकगीतों में बाँसगीतों का वैशिष्ट अनेक कथा उद्घाटित की जा सकती है। यदुवंशी अपने 'बाँसÓ को सामान्य लौकिक वाद्य यंत्र नहीं मानता है, प्रत्युत वह देवताओं द्वारा निर्मित है, उसके वादन-गायन का कार्य देवियां करती हैं-
'अरे गाँवे के देवता मोर बाँसे ल काटे ना अउ
अगिन देवता रे छेदे बाँस हो।Ó
अउ सारद माता मोर बाँस बजावै ना अउ
सरसती न गाये फेर गीद हो।
राउतों की यह मान्यता है कि बिना दैवी अनुग्रह के बाँसगीत गायन संभव नहीं। वह जानता है कि लिखते समय लेखनी से भूल सहज संभव है, जबकि वेदशास्त्र पाठी से उसके पठन में त्रुटि असंभव नहीं है। फिर वह तो निरक्षर भट्ट है। उसने कभी कलम हाथ नहीं गही और मौखिक परंपरा से प्राप्त सामग्री का ही परायण करता है, अत: इसमें भूल-चूक की आशंका बनी ही रहती है-
'अउ लिखन मं चूकै लिखनी हर भइया मेरा,
बांचे मं बेद रे पुरान हो।
अजी मैं तो गावत हौं मुंह अखरा जंवरिहा मेरा,
कलम धरें न कभू हाथ हो।।Ó
यही कारण है कि राउत जोहरनी या मंगलाचरण द्वारा अपने इष्टदेव एवं माँ शारदा का आह्वान करना नहीं भूलता-
'अहो सारद सारद तोला रटौं भवानी माता,
तैं तो सारद चमडोर हो।
उतर सारद माता अपन भुवन ले ओ
बैठो मोरे मंदे दरबार।
सारद माता तोला आवत सुनतेंव दाई,
माड़ी ले धोंतेंव तोर गोड़।
फूले अउ के मैं तकिया लगावेंव माता,
बइठक देतेंव ओ तुम्हार।
चंदन पिढुलिया के बइठक देतेंव माता,
नामे ल लेतेंव दिन रात हो।।Ó
मंगलाचरण से मंत्रपूत हुआ 'बाँसÓ अलौकिक शक्ति संपन्न हो जाता है, अत: अपनी विशिष्ट घोष से चारों दिशाओं को झंकृत करता है।
बांसगाथाओं के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में लोरिक चंदा की जो गाथा प्रचलित है उसमें भी अहीर संस्कृति संरक्षित है।
'लोरिक चंदाÓ छत्तीसगढ़ी लोकगाथा है जिसमें यदुवंशियों का जातीय गौरव सुरक्षित है। छत्तीसगढ़ अंचल के अतिरिक्त यह लोकगाथा, भोजपुरी, मंगही, मैथिली, बंगला एवं तेलगू आदि बोली भाषा में प्रचलित है। इस दृष्टि से इसका तुलनात्मक अध्ययन जहां संस्कृति व परिवेश का भेद निर्दिष्ट करता है वहीं मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल व दक्षिण में अहीरों पर इस गाथा को अधिकांश समीक्षक बिहार प्रांत की मूल लोक रचना मानते है। भोजपुरी लोकगाथा के आचार्य डॉ. सत्यव्रत सिन्हा के अनुसार समस्त भोजपुरी प्रदेश में 'लोरिकीÓ की लोकगाथा व्यापक रूप से प्रचलित है। 'लोरिकीÓ को लोरिकीयन के नाम से अभिहीत किया जाता है। वस्तुत: यह अहीरों का जातीय काव्य है। अहीर लोग अपने यहां उत्सवों एवं शुभ संस्कारों के अवसर पर उत्साह से 'लोरिकीÓ गाते हैं। इसमें अहीर जाति के जीवन का गौरवपूर्ण चित्रण है।
रामायण की तर्ज पर इस गाथा को 'लोरिकायनÓ कहना लोक द्वारा उसकी सत्ता महत्ता का कर्म धर्म के रूप से स्वीकृति का प्रतिफलन है। यद्यपि भोजपुरी में यह गाथा अहीरों का जातीय लोक महाकाव्य है तथापि छत्तीसगढ़ में यह समग्र जातियों की श्रद्धा विश्वास का संयोजन है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ की इस लोकगाथा में हीरो के शौर्य और प्रेम के आदर्श को अन्य जाति के लोग भी गाते हैं। स्पष्ट है कि भोजपुरी में जहां यह जातीय लोकगाथा है। वहीं छत्तीसगढ़ी में प्रेमाख्यानक प्रतिनिधि लोकगाथा है। इस लोकगाथा में यद्यपि यदुवंशी श्रमिक वर्ग का है तथापि प्रतिभा व वीरता के संस्कार से वह उत्कर्ष को स्पर्श करता है। ऐसा आभास होता है कि मूल लोकगाथा छत्तीसगढ़ी की हो जिसका संस्करण भोजपुरी में प्रतिष्ठित हो गया है।
छत्तीसगढ़ी लोकगाथा 'लोरिक चंदाÓ का संबंध रायपुर जिला अंतर्गत ग्राम रीवा (लखौली) है। रीवा और आसपास के ग्रामवासियों में 'लोरिक चंदा से संबंधितÓ घटनाओं और स्थानों की किंवदंतिया विद्यमान है। आवश्यकता है, इस लोकगाथा के अनुसार निर्दिष्ट स्थानों के गहन-सघन अन्वेषण की। यह घटना मूल रूप से इस अंचल की धरोहर भी हो सकती है। इस दृष्टि से पूर्वाग्रह दुराग्रह से मुक्त शोध की महती आवश्यकता है। 'लोरिकायनÓ व 'लोरिकीÓ का विकास लोरिक से हुआ है। भाषा विज्ञान के इस नियम के आधार पर यह सिद्ध है कि इस अंचल में प्रतिष्ठित 'लोरिक चंदाÓ मूल शब्द है। प्रख्यात भाषा विद डॉ. विनयकुमार पाठक बताते हैं कि आज से अठारह वर्ष पूर्व ग्राम रींवा जाकर मैंने लोरिक चंदा से संबंधित घटनाओं के स्थानों को निरखा-परखा है और बहुश्रुतों-बहुज्ञों से चर्चा की है, इस विषय पर शोध से नए तथ्य उद्घाटित होंगे, ऐसी मेरी मान्यता है।
नायिका का नाम छत्तीसगढ़ी में चंदा और चनैनी, भोजपुरी में चनवा , मैथिली में चनैन, उत्तरप्रदेश चनवा, हैदराबादी में चंदा एवं बंगाली में चंद्राली है। चंदा के जन्म की घटना का चित्रण करते हुए कवि संतराम साहू चंदा की जगह उसका 'चनैनीÓ अर्थात नक्षत्र रखने का तथ्य प्रकट करते हैं। यह टोटका का उपक्रम है-
टोटका बचाये बर, नाम कइसे लेबो
आंखी जुग-जुग दिखले, चंदा के नाव चंदैनी धरबो।
सुकुमारी रानी बर, किसिम-किसिम सोंचत हे।
राड़ी मन के पातर नजर बर, कान म दौना खोंचत हे।
स्पष्ट है कि प्रथम दर्शन में माता-पिता द्वारा उसका नाम चंदा रख गया, लेकिन छत्तीसगढ़ी संस्कृति में संस्थित टोटका के अनुरुप उसका महत्व कम करने के लिए 'चनैनीÓ नाम दिया गया। इस नाम की सार्थकता यह सिद्ध करती है कि नायिका का नाम इस अंचल की संस्कृति के अनुरूप है। अन्य क्षेत्र के पात्र नाम कितने सार्थक हंै, यह उस क्षेत्र के विद्वान भलीभांति बताएंगे। सहनायिका का नाम छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में मंजरी, मैथिली में मंझारी, बंगाली में मयनावती तथा हैदराबादी में मैना है। बंगाल में यह लोकगाथा इसी आधार पर 'मैनावतीÓ के नाम से अभिहित है।
बिहार में अहीरों के जातीय लोक महाकाव्य के रूप से प्रतिष्ठित 'लोरिकीÓ उत्सवों व मांगलिक अवसरों पर गेय है, इसमें अहीर लोरिक अवतार पुरुष के रूप से वर्णित है। इसकी वीरता अलौकिक है और पराक्रम अद्भुत अद्वितीय। छत्तीसगढ़ी में इसे प्राय: दो लोग गाते हैं। एक प्रमुख गायक होता है और दूसरे उसके स्वर (राग) में स्वर मिलाने वाला रागी कहलाता है। इसका कार्य लोकगाथा में हुकृति देने वाले की तरह होता है। अंतर यह है कि इस लोकगाथा का रागी पूरी गाथा जानने के कारण एक ओर जहां प्रमुख गायक के आधे भाग 'अर्धालीÓ को उठाता है अर्थात प्रमुख गायक के सिर मेेंं धड़ जोड़ता है। वहीं हुकृति और उत्सुकता के द्वारा श्रोतावर्ग का भाव और कथा समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। इसे प्रस्तुत करते हुए कमर में हुए हाव-भाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इस तरह यह लोक नाट्य से संपृत्त होकर खड़े साज की लोकशैली का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक व्यक्ति मशाल लेकर मानों निराशा के अंधकार में प्रेम और वीरता को ज्योति को नचाता है।
छत्तीसगढ़ी खण्ड काव्य 'लोरिक चंदाÓ में यदुवंशियों का शौर्य व गौरवशाली संस्कृति उद्घाटित है। जन्म खण्ड में छत्तीसगढ़ के अहीरों का परिवेश जीवंत है-
आगू मा कासन चढ़े कस, घोड़ेय हे भाटा मन।
अखरा खेलत कलमी दैहान हा, कहर-कहर करय।
फड़ी लउठी के डर मा, पचडगरी आने डहर भागय।
एक-एक ले करामात अउ देखावत अयबी।
कोनहा के खवइयां मन के, नई चलय सुख सइबी।।
ककरो लउठी सावन कस बरसय, चलय भादो अंधियारी।
झोंकय रे अहीर मनौहा, फड़ी म झोंकय बारी।
बड़े-बड़े लठबाझ अहीरा, अउ बड़का लड़का है।
बड़े-बड़े मुखबीर जोइधा, बजाय हे, डंका हे।
अंतिम पंक्ति यों में अहीरों के लठबाज, लड़ाकू एवं शूरवीर होने का विशेषण उनकी युद्धप्रियता और जातीय गुण-गौरव की अभिव्यक्ति है।
छत्तीसगढ़ के यदुवंशियों का छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य और लोकसंस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। वस्तुत: ये यदुवंशी छत्तीसगढ़ी लोककलाकार हैं जो लोकगीता और गाथाओं को सुरक्षित रख प्राचीन संस्कृति और गौरवमयी इतिहास के पृष्ठ को ही प्रस्तुत करते हैं। इनके लोकगीतों में कर्मठता का संदेश है और शौर्य में पराक्रम का प्रादर्श। इनका सरल-सहज निश्छल निष्कपट जीवन इनके लोकगीतों एवं लोकगाथाओं में अभिव्यंजित है। यद्यपि इनके पराक्रम और पुरुषार्थ लोकगीतों एवं गाथाओं के अंग बने हुए हैं तथापि इनकी कर्मठता और जीवन के विविध क्षेत्रों में इनका योगदान इनके पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।
छत्तीसगढ़ी के अन्य लोकसाहित्य अर्थात लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य और लोकोक्ति भी ये संरक्षित किये हुए हैं। जिस तरह छत्तीसगढ़ी और लोकजीवन इन यदुवंशियों की पहचान है। इन्होंने जिस तरह अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए छत्तीसगढ़ की संस्कृति को अपनाया, वह इनकी उदारता और समन्वयवादिता का प्रतीक है। यही शक्ति इनके गौरव ध्वज को जातीय लोकगीतों और गाथाओं में सुरक्षित रखे हुए हैं।
साभार रऊताही 2002
Heartiest thank to you for endeavor, preserving cultural heritage of Yaduvanshi ; semantics approach of your article seems to be highly appreciable among intellectual front.
ReplyDeleteWith Regards .
Dr. Jai Shankar Prasad Yadav