किसी भी समाज को समझने के लिए लोकपरंपरा एवं विश्वास का अध्ययन आवश्यक है। लोकपरंपरा एवं विश्वास से तात्पर्य जनसाधारण की परंपरा एवं विश्वास है जो मौखिक रूप से संचालित होता है एवं परस्पर अनुकरण द्वारा सीखा जाता है। लोकपरंपरा के अंतर्गत जीवनयात्रा से संबंधित संस्कार, व्रत- त्यौहार एवं लोक विश्वास के अंतर्गत विभिन्न संस्कारों से संबंधित विश्वास, व्रत त्यौहारों से संबंधित विश्वास एवं धर्म जादू से संबंधित विश्वास आदि सम्मिलित हैं।
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में विभिन्न जाति के लोग हैं जिनमें रावत जाति के लोगों की संख्या अधिक है साथ ही इनकी कुछ विशिष्ट कला, परंपरा एवं रीति-रिवाज है। अत: समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से रावत जाति के अध्ययन का विशेष महत्व है। यह अध्ययन नगरीय परिवेश से संबंधित है।
रावत शब्द का प्रचलन राव गोत्र से संबंधित होने के कारण हुआ है। रावत जाति अन्य जातियों के समान ही एक संस्कारी जाति है। रावत जाति के लोग स्वयं को कृष्ण का वंशज मानते हैं अर्थात् ये यदुवंशी है। रावत जातियां भारत के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करती हैं। इनकी कई उपजातियां जैसे झेरिया, देसहा, कन्नौजिया, कांसरिया, कंवरा, कंवरई, फूलझरिया, ठठोकर, ठेठवार, अठोरिया, दूधकौवरा, कोसरिया आदि पाई जाती हैं जो कि नामभेद, देशकाल और भाषा के आधार पर उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। रावत जाति भारत की प्रमुख चरवाहा जाति है। गोपालन इनका प्रमुख व्यवसाय व आजीविका का साधन माना जाता है। ये अपना अधिकांश समय जानवरों के साथ ही व्यतीत करते हंै, किन्तु जैसे-जैसे इनका व्यवसाय बढ़ता गया ये जानवरों को चराने के अतिरिक्त दूध दूहने तथा कृषि का कार्य भी करने लगे हैं। बांसुरी बजाना, बांसगीत गाना तथा लाठी चलाना रावत जाति के लोगों की एक प्रमुख विशेषता है। रावत जातियों में भी जातिगत स्तरीकरण पाया जाता है। इस स्तरीकरण में कन्नौजिया सर्वोच्च माना जाता है, उसके बाद दूसरे स्थान पर देसहा आते हैं अन्य उपजातियां समान श्रेणी में आती है। इनके मन में पैतृक संपत्ति के प्रति अपार स्नेह रहता है। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं तथा इनकी बोली छत्तीसगढ़ी है।
किसी भी समाज में प्रचलित संस्कार एवं उनसे जुड़े विश्वास उस समाज में रहने वाले व्यक्ति के जीवनचक्र को स्पष्ट करते हैं। रावत जाति के लोगों में प्रमुख रूप से जन्म विवाह एवं मृत्यु संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं जिनसे इनके विभिन्न विश्वास जुड़े हुए हैं।
रावत समाज में जन्म से संबंधित विभिन्न कर्मकाण्ड किये जाते हैं। बच्चे के जन्म के पूर्व अर्थात् जब स्त्री गर्भवती रहती है, उस समय उसकी विशेष देखभाल की जाती है। उसे कुछ निषेधों का पालन करना पड़ता है जैसे उसे चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण नहीं देखना चाहिए क्योंकि उसे देखने पर गर्भस्थ शिशु पर उसका बुरा असर पड़ता है एवं शिशु विकलांग पैदा होता है। ग्रहण के दौरान उसके पास लोहा रख दिया जाता है, इनकी ऐसी धारणा है कि इससे ग्रहण का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। बच्चे का जन्म होने पर उसकी नाल को भूमि के अंदर गड़ा देते हैं। इनका विश्वास है कि नाल को कहीं भी इधर-उधर फेंक देने से टोनही स्त्री उसमें टोना कर देती है जिसका प्रभाव उस बच्चे पर पड़ता है। बच्चे के जन्म के पांचवें दिन छट्ठी करते हैं तथा देवी देवताओं की पूजा करते हैं, इनका विश्वास है कि इससे देवी देवता प्रसन्न होकर बच्चे को आशीर्वाद देते हैं इनका यह भी विश्वास है कि बच्चे को काजल लगाने पर उसे नजर नहीं लगती है ये तेतरी एवं तेतरा बच्चों के जन्म को अशुभ मानते हैं एवं उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए दुआ करते हैं। घर के आंगन में थोड़ा सा पैरा लेकर आग लगा दी जाती है विश्वास है कि ऐसा करने पर उसका दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है।
विवाह से पूर्व वर-वधू की कुण्डली का मिलान किया जाता है। दोनों का कम से कम 18 गुण मिलने पर ही विवाह होता है। इनका विश्वास है कि वर कन्या के जितने अधिक गुण मिलते हैं उनका दाम्पत्त उतना ही अधिक सुखी होता है, 18 से कम गुण मिलने पर उनको विवाह नहीं किया जाता है क्योंकि इससे दाम्पत्त जीवन में हमेशा कलह का वातावरण होता है एवं उनका जीवन दुखमय हो जाता है। समान गोत्र वाले वर कन्या का विवाह नहीं किया जाता है क्योंकि इनमें भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है। विवाह कार्य लगन देखकर ही सम्पन्न किया जाता है। मास, तिथि तथा वार सबको देखकर ही विवाह की तिथि निर्धारित की जाती है। इनका विश्वास है कि बिना लगन के कया गया विवाह असफल होता है हल्दी को मंगल का प्रतीक माना जाता है और विवाह एक मांगलिक कार्य है इसलिए तेलहल्दी लगाया जाता है। सुहागन स्त्री को शकुन माना जाता है इसलिए तेल हल्दी चढ़ाने का कार्य इनके द्वारा करवाया जाता है। वर एवं वधू दोनों पक्षों की स्त्रियां पितरों की पूजा कर उन्हें आमंत्रित करती हैं, इनका विश्वास है कि निमंत्रण देने पर पितर विवाह में सम्मिलित होने के लिए आते है एवं पूजा करने से प्रसन्न होकर वर वधू को अपना आशीर्वाद देते हैं इनका यह भी विश्वास है कि विवाह में पितरों को आमंत्रित न करने पर वे क्रोधित हो जाते हैं एवं उनका अहित कर देते हैं।
जबकि मरणासन्न अवस्था में होता है उस समय उस व्यक्ति को नीचे जमीन पर उतार दिया जाता है, क्योंकि खाट को पवित्र नहीं माना जाता है जबकि भूमि को पवित्र समझा जाता है। व्यक्ति के मुख में गंगाजल डाला जाता है इनकी मान्यता है कि इससे व्यक्ति के पाप धुलते हैं। गाय की पूंछ पकड़ाई जाती है एवं ब्राह्मण को दान दिया जाता है। इनका विश्वास है कि मरने के बाद जब आत्मा दूसरे लोक पहुंचती है तो उसे रास्ते में वैतरणी पार करना पड़ता है। गोदान करने पर उसे वहां गाय मिलती है जिसकी पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कर सकता है। मृत शरीर को जलाना आवश्यक होता है क्योंकि इनका विश्वास है कि यदि मृत शरीर को जलाया न जाये तो उसकी आत्मा इधर-उधर भटकती रहती है। मृतक का पुत्र ही मुखाग्नि देता है उनका विश्वास है कि पुत्र के मुखाग्नि देने पर मुक्ति मिलती है। अस्थि को गंगा में विसर्जित कर वहां पिण्डदान देने से मृतक के द्वारा किये गये पाप काटते हैं व उनसे मुक्ति मिलती हैं। मृत्यु के दसवें दिन दशगात्र होता है।
इस दिन घर का शुद्धिकरण किया जाता है परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा मुण्डन करवाया जाता है। तेरही के दिन परिवार व जाति वालों को भोजन कराया जाता है विश्वास है कि ये भोजन मृतात्मा को प्राप्त होता है। मृत्यु के एक वर्ष पश्चात बरसी मनाई जाती है जिसमें रिश्तेदारों व परिचितों को भोजन कराया जाता है इन सब कर्मकाण्डों के पीछे इनका यह विश्वास है कि इससे मृतक को मुक्ति मिलती है। इनकी ये मान्यता है कि ये कर्मकाण्ड नहीं किये जाने पर मृतक की आत्मा प्रेत योनि में भटकती रहती है। जन्म, विवाह व मृत्यु से संबंधित सभी कर्मकाण्डों में पहले अपनी ही जाति के लोगों को आमंत्रित किया जाता था किन्तु वर्तमान में अन्य जाति के लोगों को भी आमंत्रित किया जाता है।
व्रत एवं त्यौहार से भी इनके अनेक विश्वास जुड़े हुए हैं। इनका विश्वास है कि स्त्रियों द्वारा तीजव्रत करने से पति की उम्र बढ़ती है। कमरछठ व्रत में बच्चे की पीठ पर छुई मिट्टी से भीगे कपड़े का छाप देने पर बच्चे की रक्षा होती है। भाई जुतिया व बेटा जुतिया व्रत में गले में जुतिया पहनने पर भाई एवं पुत्र की रक्षा होती है। नई फसल हो जाने पर उस अन्न से मीठा बनाकर सर्वप्रथम घर के देवी-देवताओं को भोग लगाया जाता है इनका विश्वास है कि ऐसा करने पर वे प्रसन्न होते हैं एवं घर में अन्न की कमी नहीं होती मकर सक्रांति के दिन तिल का दान करने पर पुण्य की प्राप्ति होती है। इनकी धारणा है कि नरक चर्तुदशी के दिन दीपक जलाने सेयमराज प्रसन्न होते हैं और नर्क से मुक्ति मिलती हैं यदि इस दिन दीपक न जलाएं तो नर्क में जाकर सजा भोगनी पड़ती है। वर्तमान में लोगों के इन विश्वासों में कुछ कमी आई है।
रावत जाति के लोग देवी देवताओं की पूजा करना अपना धर्म समझते हैं। ये हिन्दू देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शंकर, गणेश, बजरंग बली, देवी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, पार्वती आदि दवी-देवताओं की पूजा करते हैं। ये देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विविध विधि से पूजा अर्चना करते हैं।
इनका विश्वास है कि पूजा करने से मन को शांति मिलती है एवं कार्यसिद्धी होती है। ये लोग तंत्र, मंत्र, टोना, टोका, नजर आदि की धारणा में विश्वास करते हैं। भूत-प्रेत लगने पर बैगा गुनिया द्वारा झांड़-फूंक करवाते हैं। इन पर वृद्ध पीढ़ी की अपेक्षा युवा पीढ़ी के लोग कम विश्वास करते हैं।
इन विश्वासों के अतिरिक्त राउत जाति के लोगों में अन्य प्रकार के भी विश्वास हैं। ये लोग प्रथम पुत्री के जन्म को शुभ मानते हैं। इनका विश्वास है कि इससे परिवार में संपत्ति आती है। बृहस्पतिवार व शनिवार के दिन स्त्रियां अपना केश नहीं धोती। इनका विश्वास है कि इस दिन केश धोने से परिवार में दरिद्रता आती है। इसी विश्वास के कारण ही इस दिन पुरुषों द्वारा दाढ़ी नहीं बनाई जाती। पशुओं के क्रय विक्रय के लिए भी मंगलवार तथा शनिवार को अशुभ माना जाता है। आम व पीपल के वृक्ष पर देवता का वास समझते हैं इनकी पूजा करते हैं। तुलसी का पौधा अत्यंत पवित्र समझते हैं। घर के आंगन में चबूतरा बनाकर उसमें तुलसी का पौधा लगाते हैैं। ये प्रतिदिन सुबह इनको जल देते हैं वह शाम को दीपक जलाते हैं। इस जाति की अधिकांश स्त्रियां कुछ पुरुष भी गुदना गुदवाते हैं, इनका विश्वास है कि इसके बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इनका यह भी विश्वास है कि सपनों का भी शुभ अशुभ फल प्राप्त होता है। ये लोग साधु संत सुहागन स्त्री, शिव एवं नीलकण्ड को देखना शकुन एवं कौवे का जोड़ा, बिल्ली का रास्ता काटना तथा खाली घड़ा देखना अपशकुन मानते हैं। वर्तमान परिवेश में इन पर कम लोग ही विश्वास करते हैं।
नगरीय परिवेश में रावत जाति के लोकपरंपरा एवं विश्वास के समाज शास्त्रीय विवेचन एवं विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि आज भी नगरीय परिवेश में लोक परंपरा एवं विश्वास के प्रधानता पाई जाती है। यद्यपि बदलती हुई परिस्थितियों में इनमें कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। परंतु ये परिवर्तन इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि लोकपरंपरा एवं विश्वास विलुप्त हो रहा है यद्यपि इनमें कुछ ह्रास परिलक्षित हो रहा है।
आर.के.बूट हाउस स्ट्रीट तेलीपारा बिलासपुर,
साभार - रऊताही 1998
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में विभिन्न जाति के लोग हैं जिनमें रावत जाति के लोगों की संख्या अधिक है साथ ही इनकी कुछ विशिष्ट कला, परंपरा एवं रीति-रिवाज है। अत: समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से रावत जाति के अध्ययन का विशेष महत्व है। यह अध्ययन नगरीय परिवेश से संबंधित है।
रावत शब्द का प्रचलन राव गोत्र से संबंधित होने के कारण हुआ है। रावत जाति अन्य जातियों के समान ही एक संस्कारी जाति है। रावत जाति के लोग स्वयं को कृष्ण का वंशज मानते हैं अर्थात् ये यदुवंशी है। रावत जातियां भारत के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करती हैं। इनकी कई उपजातियां जैसे झेरिया, देसहा, कन्नौजिया, कांसरिया, कंवरा, कंवरई, फूलझरिया, ठठोकर, ठेठवार, अठोरिया, दूधकौवरा, कोसरिया आदि पाई जाती हैं जो कि नामभेद, देशकाल और भाषा के आधार पर उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। रावत जाति भारत की प्रमुख चरवाहा जाति है। गोपालन इनका प्रमुख व्यवसाय व आजीविका का साधन माना जाता है। ये अपना अधिकांश समय जानवरों के साथ ही व्यतीत करते हंै, किन्तु जैसे-जैसे इनका व्यवसाय बढ़ता गया ये जानवरों को चराने के अतिरिक्त दूध दूहने तथा कृषि का कार्य भी करने लगे हैं। बांसुरी बजाना, बांसगीत गाना तथा लाठी चलाना रावत जाति के लोगों की एक प्रमुख विशेषता है। रावत जातियों में भी जातिगत स्तरीकरण पाया जाता है। इस स्तरीकरण में कन्नौजिया सर्वोच्च माना जाता है, उसके बाद दूसरे स्थान पर देसहा आते हैं अन्य उपजातियां समान श्रेणी में आती है। इनके मन में पैतृक संपत्ति के प्रति अपार स्नेह रहता है। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं तथा इनकी बोली छत्तीसगढ़ी है।
किसी भी समाज में प्रचलित संस्कार एवं उनसे जुड़े विश्वास उस समाज में रहने वाले व्यक्ति के जीवनचक्र को स्पष्ट करते हैं। रावत जाति के लोगों में प्रमुख रूप से जन्म विवाह एवं मृत्यु संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं जिनसे इनके विभिन्न विश्वास जुड़े हुए हैं।
रावत समाज में जन्म से संबंधित विभिन्न कर्मकाण्ड किये जाते हैं। बच्चे के जन्म के पूर्व अर्थात् जब स्त्री गर्भवती रहती है, उस समय उसकी विशेष देखभाल की जाती है। उसे कुछ निषेधों का पालन करना पड़ता है जैसे उसे चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण नहीं देखना चाहिए क्योंकि उसे देखने पर गर्भस्थ शिशु पर उसका बुरा असर पड़ता है एवं शिशु विकलांग पैदा होता है। ग्रहण के दौरान उसके पास लोहा रख दिया जाता है, इनकी ऐसी धारणा है कि इससे ग्रहण का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। बच्चे का जन्म होने पर उसकी नाल को भूमि के अंदर गड़ा देते हैं। इनका विश्वास है कि नाल को कहीं भी इधर-उधर फेंक देने से टोनही स्त्री उसमें टोना कर देती है जिसका प्रभाव उस बच्चे पर पड़ता है। बच्चे के जन्म के पांचवें दिन छट्ठी करते हैं तथा देवी देवताओं की पूजा करते हैं, इनका विश्वास है कि इससे देवी देवता प्रसन्न होकर बच्चे को आशीर्वाद देते हैं इनका यह भी विश्वास है कि बच्चे को काजल लगाने पर उसे नजर नहीं लगती है ये तेतरी एवं तेतरा बच्चों के जन्म को अशुभ मानते हैं एवं उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए दुआ करते हैं। घर के आंगन में थोड़ा सा पैरा लेकर आग लगा दी जाती है विश्वास है कि ऐसा करने पर उसका दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है।
विवाह से पूर्व वर-वधू की कुण्डली का मिलान किया जाता है। दोनों का कम से कम 18 गुण मिलने पर ही विवाह होता है। इनका विश्वास है कि वर कन्या के जितने अधिक गुण मिलते हैं उनका दाम्पत्त उतना ही अधिक सुखी होता है, 18 से कम गुण मिलने पर उनको विवाह नहीं किया जाता है क्योंकि इससे दाम्पत्त जीवन में हमेशा कलह का वातावरण होता है एवं उनका जीवन दुखमय हो जाता है। समान गोत्र वाले वर कन्या का विवाह नहीं किया जाता है क्योंकि इनमें भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है। विवाह कार्य लगन देखकर ही सम्पन्न किया जाता है। मास, तिथि तथा वार सबको देखकर ही विवाह की तिथि निर्धारित की जाती है। इनका विश्वास है कि बिना लगन के कया गया विवाह असफल होता है हल्दी को मंगल का प्रतीक माना जाता है और विवाह एक मांगलिक कार्य है इसलिए तेलहल्दी लगाया जाता है। सुहागन स्त्री को शकुन माना जाता है इसलिए तेल हल्दी चढ़ाने का कार्य इनके द्वारा करवाया जाता है। वर एवं वधू दोनों पक्षों की स्त्रियां पितरों की पूजा कर उन्हें आमंत्रित करती हैं, इनका विश्वास है कि निमंत्रण देने पर पितर विवाह में सम्मिलित होने के लिए आते है एवं पूजा करने से प्रसन्न होकर वर वधू को अपना आशीर्वाद देते हैं इनका यह भी विश्वास है कि विवाह में पितरों को आमंत्रित न करने पर वे क्रोधित हो जाते हैं एवं उनका अहित कर देते हैं।
जबकि मरणासन्न अवस्था में होता है उस समय उस व्यक्ति को नीचे जमीन पर उतार दिया जाता है, क्योंकि खाट को पवित्र नहीं माना जाता है जबकि भूमि को पवित्र समझा जाता है। व्यक्ति के मुख में गंगाजल डाला जाता है इनकी मान्यता है कि इससे व्यक्ति के पाप धुलते हैं। गाय की पूंछ पकड़ाई जाती है एवं ब्राह्मण को दान दिया जाता है। इनका विश्वास है कि मरने के बाद जब आत्मा दूसरे लोक पहुंचती है तो उसे रास्ते में वैतरणी पार करना पड़ता है। गोदान करने पर उसे वहां गाय मिलती है जिसकी पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कर सकता है। मृत शरीर को जलाना आवश्यक होता है क्योंकि इनका विश्वास है कि यदि मृत शरीर को जलाया न जाये तो उसकी आत्मा इधर-उधर भटकती रहती है। मृतक का पुत्र ही मुखाग्नि देता है उनका विश्वास है कि पुत्र के मुखाग्नि देने पर मुक्ति मिलती है। अस्थि को गंगा में विसर्जित कर वहां पिण्डदान देने से मृतक के द्वारा किये गये पाप काटते हैं व उनसे मुक्ति मिलती हैं। मृत्यु के दसवें दिन दशगात्र होता है।
इस दिन घर का शुद्धिकरण किया जाता है परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा मुण्डन करवाया जाता है। तेरही के दिन परिवार व जाति वालों को भोजन कराया जाता है विश्वास है कि ये भोजन मृतात्मा को प्राप्त होता है। मृत्यु के एक वर्ष पश्चात बरसी मनाई जाती है जिसमें रिश्तेदारों व परिचितों को भोजन कराया जाता है इन सब कर्मकाण्डों के पीछे इनका यह विश्वास है कि इससे मृतक को मुक्ति मिलती है। इनकी ये मान्यता है कि ये कर्मकाण्ड नहीं किये जाने पर मृतक की आत्मा प्रेत योनि में भटकती रहती है। जन्म, विवाह व मृत्यु से संबंधित सभी कर्मकाण्डों में पहले अपनी ही जाति के लोगों को आमंत्रित किया जाता था किन्तु वर्तमान में अन्य जाति के लोगों को भी आमंत्रित किया जाता है।
व्रत एवं त्यौहार से भी इनके अनेक विश्वास जुड़े हुए हैं। इनका विश्वास है कि स्त्रियों द्वारा तीजव्रत करने से पति की उम्र बढ़ती है। कमरछठ व्रत में बच्चे की पीठ पर छुई मिट्टी से भीगे कपड़े का छाप देने पर बच्चे की रक्षा होती है। भाई जुतिया व बेटा जुतिया व्रत में गले में जुतिया पहनने पर भाई एवं पुत्र की रक्षा होती है। नई फसल हो जाने पर उस अन्न से मीठा बनाकर सर्वप्रथम घर के देवी-देवताओं को भोग लगाया जाता है इनका विश्वास है कि ऐसा करने पर वे प्रसन्न होते हैं एवं घर में अन्न की कमी नहीं होती मकर सक्रांति के दिन तिल का दान करने पर पुण्य की प्राप्ति होती है। इनकी धारणा है कि नरक चर्तुदशी के दिन दीपक जलाने सेयमराज प्रसन्न होते हैं और नर्क से मुक्ति मिलती हैं यदि इस दिन दीपक न जलाएं तो नर्क में जाकर सजा भोगनी पड़ती है। वर्तमान में लोगों के इन विश्वासों में कुछ कमी आई है।
रावत जाति के लोग देवी देवताओं की पूजा करना अपना धर्म समझते हैं। ये हिन्दू देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शंकर, गणेश, बजरंग बली, देवी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, पार्वती आदि दवी-देवताओं की पूजा करते हैं। ये देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विविध विधि से पूजा अर्चना करते हैं।
इनका विश्वास है कि पूजा करने से मन को शांति मिलती है एवं कार्यसिद्धी होती है। ये लोग तंत्र, मंत्र, टोना, टोका, नजर आदि की धारणा में विश्वास करते हैं। भूत-प्रेत लगने पर बैगा गुनिया द्वारा झांड़-फूंक करवाते हैं। इन पर वृद्ध पीढ़ी की अपेक्षा युवा पीढ़ी के लोग कम विश्वास करते हैं।
इन विश्वासों के अतिरिक्त राउत जाति के लोगों में अन्य प्रकार के भी विश्वास हैं। ये लोग प्रथम पुत्री के जन्म को शुभ मानते हैं। इनका विश्वास है कि इससे परिवार में संपत्ति आती है। बृहस्पतिवार व शनिवार के दिन स्त्रियां अपना केश नहीं धोती। इनका विश्वास है कि इस दिन केश धोने से परिवार में दरिद्रता आती है। इसी विश्वास के कारण ही इस दिन पुरुषों द्वारा दाढ़ी नहीं बनाई जाती। पशुओं के क्रय विक्रय के लिए भी मंगलवार तथा शनिवार को अशुभ माना जाता है। आम व पीपल के वृक्ष पर देवता का वास समझते हैं इनकी पूजा करते हैं। तुलसी का पौधा अत्यंत पवित्र समझते हैं। घर के आंगन में चबूतरा बनाकर उसमें तुलसी का पौधा लगाते हैैं। ये प्रतिदिन सुबह इनको जल देते हैं वह शाम को दीपक जलाते हैं। इस जाति की अधिकांश स्त्रियां कुछ पुरुष भी गुदना गुदवाते हैं, इनका विश्वास है कि इसके बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इनका यह भी विश्वास है कि सपनों का भी शुभ अशुभ फल प्राप्त होता है। ये लोग साधु संत सुहागन स्त्री, शिव एवं नीलकण्ड को देखना शकुन एवं कौवे का जोड़ा, बिल्ली का रास्ता काटना तथा खाली घड़ा देखना अपशकुन मानते हैं। वर्तमान परिवेश में इन पर कम लोग ही विश्वास करते हैं।
नगरीय परिवेश में रावत जाति के लोकपरंपरा एवं विश्वास के समाज शास्त्रीय विवेचन एवं विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि आज भी नगरीय परिवेश में लोक परंपरा एवं विश्वास के प्रधानता पाई जाती है। यद्यपि बदलती हुई परिस्थितियों में इनमें कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। परंतु ये परिवर्तन इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि लोकपरंपरा एवं विश्वास विलुप्त हो रहा है यद्यपि इनमें कुछ ह्रास परिलक्षित हो रहा है।
आर.के.बूट हाउस स्ट्रीट तेलीपारा बिलासपुर,
साभार - रऊताही 1998
Jharia rawat ke baare mein kuchh information dijie
ReplyDeleteRawat
ReplyDeleteRawat
ReplyDeleteRajasthan k baare me bhi kuch btaaiye
ReplyDeleteजय राजपुताना जय माँ भवानी
ReplyDeleteसर मगधा रावत भी होते है क्या
ReplyDeleteCG mein MAGADHA bahut kam hote hain .....Western odisha mein magadha raut adhik sankhyaa mein hain
Deleteगोत्रों के बारे में भी बताइये
ReplyDeleteBilkul Shi Rajasthan me issi trh ke rtirivaj hai
ReplyDeleteHmare uttarakhand me v hai
DeleteRawat or Raut same h or kya ye Yadav jati se sambandh rakhate h?
ReplyDeleteRawat ke gotra
ReplyDeleteRawat ke kitne gotr hai plzzzz btaiye..mai apna gotr bhul gyi
ReplyDeleteRawat kish jati me ate h
ReplyDeleteकैथवास किस जाति में आते हैं
ReplyDeleteKhaithwash pasi caste Mai aate hai
DeleteBargat Rawat rajput me aate he
ReplyDeleteRawat ahir or rajput, jaat caste hai
ReplyDeleteGhariya रावत के बारे में जानकारी बताए सर
ReplyDeleteRawat
ReplyDeleteButola rajput rawat.i am. uttrakhand.