अहीर, राऊत, यादव, वरेदी, गोप आदि उपनामों से अभिहित जाति इतिहास के काल चक्र की एक चिरस्मरणीय जाति है। इसका इतिहास क्रमबद्ध रूप से तो प्राप्त नहीं होता है तथापि धार्मिक पुस्तकों, ऐतिहासिक ग्रंथों तथा जनश्रुतियों में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। अभी भी आवश्यकता है श्रम करने वाले स्वदेज विदूत जनों की, पुरातात्विक वड़ों की खडख़ड़ाहटों की, वैज्ञानिक यंत्रों एवं ज्ञानों की प्रयोगात्मक अभिरुचि की जिससे इस जाति के वैभवशाली पुरातन स्मृतियों को क्रमबद्ध रूप से ऐतिहासिक कडिय़ों में आबद्ध किया जा सके। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इनका कोई ऐतिहासिक आधार ही नहीं है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि यादव आर्य जाति से संबंद्ध रहे है। आर्य पुरातन काल में एक ही जाति थे। दीगर जातियों को अनार्य कहा जाता था। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठा आर्य भारत वर्ष के मूल निवासी हैं। भारतीय संस्कृति की पुरातन महत्ता को कम आंकने तथा उसका मूलाधार समाप्त करने के लिए ही अंग्रेजों एवं यूरोपियन साम्राज्यवादी लुटेरी जातियों ने उन्हें यूरोप एवं मध्यएशिया से आने की कल्पित गप्पों का आधार निर्मित किया है। आर्यों के मूल ग्रंथ वेद इस बात के गवाह हैं वे यहीं के थे। डॉ. राम विलास शर्मा के ग्रंथों को पढऩे के बाद डॉ. रामशरण शर्मा जैसे दिग्गज यूरोपीय भक्तों की बोलती बंद हो गई है। यादव जाति आर्य जाति के एक जन अर्थात कवीला थे। यादव इतिहास के विख्यात ऋग्वेदिक पाञ्चजन्य से संबद्ध रहे हैं। पाञ्चजन्यों में आने वाले जन थे 1. अनु 2. द्रह्यु 3. यदु 4. तुर्वस और 5. पुरु। ये पांचों एक साथ संगठित थे और सरस्वती के दोनों तटों पर रहते थे। इनके अतिरिक्त ऋग्वेद में अन्यजनों भरतों (जो पाश्चात्यकाल में कुरुओं में मिल गये थे) तृत्सुओ, सृजंयो, किरवियो और अन्य गौण जनों के रूप में अभिहित थे। आर्यों के ये जन परस्पर तट पर बहुधा लड़ते रहते थे इस काल का सबसे भीषण समर जो 'परुएणी तट पर हुआ था। इन्हीं जनों के पारस्परिक बैर का परिणाम था ऋग्वेद का प्रसिद्ध दाशराज्ञ युद्ध।Ó इसमें विश्वामित्र की मंत्रणा से दस राजाओं के नेतृत्व में अनेकजनों ने संघ बनाकर भरतों के राजा सुदास पर आक्रमण किया था परन्तु सुदास के कुल पुराहित वशिष्ठ की प्रेरणा तथा सुदास की वीरता से दस राजा हार गये। यादव इन्हीं पाञ्चजन्यों ये यदु से संबद्ध थे। दस राजाओं के युद्ध में सुदास के विरुद्ध युद्ध के सहभागी रहे हैं। हार-जीत तो युद्धों में होती ही रहती थी। परन्तु यादव एक वीर जाति थे। अपने गुरुओं का सम्मान करते थे। इन्होंने साम्राज्यवादी सुदास अर्थात् भरतजन से लोहा लिया यद्यपि हार गये तथापि हिम्मत नहीं हारी। पञ्जनों ने पश्चिमोत्तर की जातियों के साथ मिलकर सुदास को परेशान करते रहे। संभावना यही है कि यदु जन कालातीत में पांञ्चालों के साथ समाहित हो गये हों।
ऋग्वेद में यादवों को गोप से भी संबद्ध किया जाता है। इस काल में आर्यों की विशिष्ट वृत्ति पशुपालन थी और पशुओं में गो को सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। इसी गो पालक अधिकारी को गोप या गौ सुरक्षा करने वाला कहा जाता था। गौ आर्यों के समय की मुद्रा थी। रूह स्वर्ग प्राप्ति का आधार भी थी। इसका दूध, गोबर, चमड़ा, मूत्र आदि सभी पवित्र थे। गोधन पर ही उनकी संपत्ति और समृद्धि की नींव टिकी थी। गौ को वे अवन्ध्या (न मारने योग्य) मानते थे तथा इसकी हत्या करना महापाप माना जाता था। इसका पुत्र बैल कृषि कार्य हेतु मुख्याधार था। कृषि कार्य का मुख्याधार इस प्रकार गौ या गौ परिवार या गोप था। यादवों का मुख्य पेशा गोपालन रहा है। अतएव कर्म के आधार पर गोप गायक सेवक थे। भगवान शंकर जी भी गौ पुत्र नंदी (सांड़ या बैल) के इसीलिए चहेते थे और उन्होंने इसे अपना प्रिय वाहन भी बना लिया। इससे यह सिद्ध होता है कि यादव या गोप शिवजी के प्रिय रहे हैं तथा ये भी शिव भक्त रहे हैं।
यादव-पौराणिक एवं महाभारत काल में सम्राट यदु के वंशज भी माने जाते गये हैं। आज भी कई यादव स्वयं को क्षत्रियों की प्राचीन कुल परंपरा से स्वयं को आबद्ध किये हुए हैं। यादवों के श्रीकृष्ण एक सुयोग्य प्रतिनिधि एवं नेता थे। इन्होंने द्वारिका में उन्हें संगठित करके एक ताकतवार साम्राज्य का भागीदार बना दिया। बाद में श्राप वश यादवों में फूट पड़ गई। वे आपस में लड़ कर शक्तिहीन हो गये तथा स्वयंमेव श्रीकृष्ण भी श्रापवश बहेलिये का शिकार बन गये। परन्तु यादवों के साथ खेल कर बड़े हुए यादवों के संरक्षण में रहकर भी यादव कुल तिलक वासुदेव स्वयं साक्षात पर ब्रह्मा थे, भगवान थे। इन्होंने गौपालन करके, गोशत्रु, धेनुकासुर का वध करके, गोपशत्रु कालिया नाग का उद्धार करके, गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के कोप से बचाने के लोक प्रसिद्ध कार्य किये थे। श्रीकृष्ण अर्थात गोप नेता, ग्वाला या राऊत या वरेदी या यादव नेता यादवों की ही नहीं अपितु विश्व संस्कृति को वसुदेव कुटुम्बकम बना देने वाले थे। ये संसार के प्रथम राजनेता या राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कौरवों की अनैतिक एवं लोलुप प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने हेतु महाभारत के प्रसिद्ध युद्ध में अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया।
राउत-ब्राह्मण, क्षत्री, आदि अनेक जाति से संबद्ध होते हैं परन्तु वास्तव में वे कर्म पर आधारित नहीं अपितु राजनीति उपाधि से परिपूरित थे। सम्राट, राजा, राव तथा रावत आदि क्रमबद्ध श्रेणियां होती है अर्थात् रावों के अधीन प्रशासन का संचालन करने वाले रकावत कहलाते थे। जैसे मथुरा के राजा के अधीन वृंदावन के राव आते थे।
यादव अहीर शब्द से भी नामांकित होते हैं जो संभवत: आभीर जाति से संबद्ध रहे होंगे। कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं। परन्तु अहीरक अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग एवं हाथ्ी के सदृश अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि अर्थात सांप तथा हम अर्थात घोड़े अर्थात काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। यदि इन्हें अभीर जाति से संबंधित किया जाये तो ये विदेशी ठहरते हैं।
चौदह महाजन पदों में एक महाजन पद था वत्स। इनका वंश यमुना तटवर्ती था जिनकी राजधानी थी कौशाम्बी अर्थात् इलाहाबाद से तीस मील दूर कोसम गांव। इसकी संस्थापना हस्तिनापुर के विध्वंश के पश्चात निचक्षु ने यहां अपनी राजधानी बनाई थी। वत्स शब्द वच्छ या बछड़ा अर्थात गो पुत्र से जुड़ा हुआ है अतएव ये भी यादव कुल से ही जुड़े हुए गौ परिवार जन अर्थात यादव ही थे।
यादव कुल कीर्ति अर्थात कुल स्मृतियों में इतिहास की गौरवमयी परम्पराओं से आबद्ध रही है। आज भी है और रहेगी राष्ट्रीय आंदोलनों में भी बिलासपुर जिले में झाड़ू राम यादव (शिवरीनारायण) ललित राम यादव, कार्तिक राम यादव, बिसाहूराम यादव, छन्नू यादव, बैहाराम यादव आदि भी संबद्ध रहे हैं। छत्तीसगढ़ के गौवधवंदी आंदोलन 1914 से 1924 के बीच में ग्वाले लोगों ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। 1920-22 में असहयोग, 1923-28 के स्वराज्य दल की नीतियों में 1930-34 के सविनय अवज्ञा, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में भी यादवों ने भी सक्रिय सहयोग दिया था।
साभार- रऊताही 1998
इतिहास इस बात का गवाह है कि यादव आर्य जाति से संबंद्ध रहे है। आर्य पुरातन काल में एक ही जाति थे। दीगर जातियों को अनार्य कहा जाता था। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठा आर्य भारत वर्ष के मूल निवासी हैं। भारतीय संस्कृति की पुरातन महत्ता को कम आंकने तथा उसका मूलाधार समाप्त करने के लिए ही अंग्रेजों एवं यूरोपियन साम्राज्यवादी लुटेरी जातियों ने उन्हें यूरोप एवं मध्यएशिया से आने की कल्पित गप्पों का आधार निर्मित किया है। आर्यों के मूल ग्रंथ वेद इस बात के गवाह हैं वे यहीं के थे। डॉ. राम विलास शर्मा के ग्रंथों को पढऩे के बाद डॉ. रामशरण शर्मा जैसे दिग्गज यूरोपीय भक्तों की बोलती बंद हो गई है। यादव जाति आर्य जाति के एक जन अर्थात कवीला थे। यादव इतिहास के विख्यात ऋग्वेदिक पाञ्चजन्य से संबद्ध रहे हैं। पाञ्चजन्यों में आने वाले जन थे 1. अनु 2. द्रह्यु 3. यदु 4. तुर्वस और 5. पुरु। ये पांचों एक साथ संगठित थे और सरस्वती के दोनों तटों पर रहते थे। इनके अतिरिक्त ऋग्वेद में अन्यजनों भरतों (जो पाश्चात्यकाल में कुरुओं में मिल गये थे) तृत्सुओ, सृजंयो, किरवियो और अन्य गौण जनों के रूप में अभिहित थे। आर्यों के ये जन परस्पर तट पर बहुधा लड़ते रहते थे इस काल का सबसे भीषण समर जो 'परुएणी तट पर हुआ था। इन्हीं जनों के पारस्परिक बैर का परिणाम था ऋग्वेद का प्रसिद्ध दाशराज्ञ युद्ध।Ó इसमें विश्वामित्र की मंत्रणा से दस राजाओं के नेतृत्व में अनेकजनों ने संघ बनाकर भरतों के राजा सुदास पर आक्रमण किया था परन्तु सुदास के कुल पुराहित वशिष्ठ की प्रेरणा तथा सुदास की वीरता से दस राजा हार गये। यादव इन्हीं पाञ्चजन्यों ये यदु से संबद्ध थे। दस राजाओं के युद्ध में सुदास के विरुद्ध युद्ध के सहभागी रहे हैं। हार-जीत तो युद्धों में होती ही रहती थी। परन्तु यादव एक वीर जाति थे। अपने गुरुओं का सम्मान करते थे। इन्होंने साम्राज्यवादी सुदास अर्थात् भरतजन से लोहा लिया यद्यपि हार गये तथापि हिम्मत नहीं हारी। पञ्जनों ने पश्चिमोत्तर की जातियों के साथ मिलकर सुदास को परेशान करते रहे। संभावना यही है कि यदु जन कालातीत में पांञ्चालों के साथ समाहित हो गये हों।
ऋग्वेद में यादवों को गोप से भी संबद्ध किया जाता है। इस काल में आर्यों की विशिष्ट वृत्ति पशुपालन थी और पशुओं में गो को सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। इसी गो पालक अधिकारी को गोप या गौ सुरक्षा करने वाला कहा जाता था। गौ आर्यों के समय की मुद्रा थी। रूह स्वर्ग प्राप्ति का आधार भी थी। इसका दूध, गोबर, चमड़ा, मूत्र आदि सभी पवित्र थे। गोधन पर ही उनकी संपत्ति और समृद्धि की नींव टिकी थी। गौ को वे अवन्ध्या (न मारने योग्य) मानते थे तथा इसकी हत्या करना महापाप माना जाता था। इसका पुत्र बैल कृषि कार्य हेतु मुख्याधार था। कृषि कार्य का मुख्याधार इस प्रकार गौ या गौ परिवार या गोप था। यादवों का मुख्य पेशा गोपालन रहा है। अतएव कर्म के आधार पर गोप गायक सेवक थे। भगवान शंकर जी भी गौ पुत्र नंदी (सांड़ या बैल) के इसीलिए चहेते थे और उन्होंने इसे अपना प्रिय वाहन भी बना लिया। इससे यह सिद्ध होता है कि यादव या गोप शिवजी के प्रिय रहे हैं तथा ये भी शिव भक्त रहे हैं।
यादव-पौराणिक एवं महाभारत काल में सम्राट यदु के वंशज भी माने जाते गये हैं। आज भी कई यादव स्वयं को क्षत्रियों की प्राचीन कुल परंपरा से स्वयं को आबद्ध किये हुए हैं। यादवों के श्रीकृष्ण एक सुयोग्य प्रतिनिधि एवं नेता थे। इन्होंने द्वारिका में उन्हें संगठित करके एक ताकतवार साम्राज्य का भागीदार बना दिया। बाद में श्राप वश यादवों में फूट पड़ गई। वे आपस में लड़ कर शक्तिहीन हो गये तथा स्वयंमेव श्रीकृष्ण भी श्रापवश बहेलिये का शिकार बन गये। परन्तु यादवों के साथ खेल कर बड़े हुए यादवों के संरक्षण में रहकर भी यादव कुल तिलक वासुदेव स्वयं साक्षात पर ब्रह्मा थे, भगवान थे। इन्होंने गौपालन करके, गोशत्रु, धेनुकासुर का वध करके, गोपशत्रु कालिया नाग का उद्धार करके, गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के कोप से बचाने के लोक प्रसिद्ध कार्य किये थे। श्रीकृष्ण अर्थात गोप नेता, ग्वाला या राऊत या वरेदी या यादव नेता यादवों की ही नहीं अपितु विश्व संस्कृति को वसुदेव कुटुम्बकम बना देने वाले थे। ये संसार के प्रथम राजनेता या राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कौरवों की अनैतिक एवं लोलुप प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने हेतु महाभारत के प्रसिद्ध युद्ध में अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया।
राउत-ब्राह्मण, क्षत्री, आदि अनेक जाति से संबद्ध होते हैं परन्तु वास्तव में वे कर्म पर आधारित नहीं अपितु राजनीति उपाधि से परिपूरित थे। सम्राट, राजा, राव तथा रावत आदि क्रमबद्ध श्रेणियां होती है अर्थात् रावों के अधीन प्रशासन का संचालन करने वाले रकावत कहलाते थे। जैसे मथुरा के राजा के अधीन वृंदावन के राव आते थे।
यादव अहीर शब्द से भी नामांकित होते हैं जो संभवत: आभीर जाति से संबद्ध रहे होंगे। कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं। परन्तु अहीरक अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग एवं हाथ्ी के सदृश अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि अर्थात सांप तथा हम अर्थात घोड़े अर्थात काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। यदि इन्हें अभीर जाति से संबंधित किया जाये तो ये विदेशी ठहरते हैं।
चौदह महाजन पदों में एक महाजन पद था वत्स। इनका वंश यमुना तटवर्ती था जिनकी राजधानी थी कौशाम्बी अर्थात् इलाहाबाद से तीस मील दूर कोसम गांव। इसकी संस्थापना हस्तिनापुर के विध्वंश के पश्चात निचक्षु ने यहां अपनी राजधानी बनाई थी। वत्स शब्द वच्छ या बछड़ा अर्थात गो पुत्र से जुड़ा हुआ है अतएव ये भी यादव कुल से ही जुड़े हुए गौ परिवार जन अर्थात यादव ही थे।
यादव कुल कीर्ति अर्थात कुल स्मृतियों में इतिहास की गौरवमयी परम्पराओं से आबद्ध रही है। आज भी है और रहेगी राष्ट्रीय आंदोलनों में भी बिलासपुर जिले में झाड़ू राम यादव (शिवरीनारायण) ललित राम यादव, कार्तिक राम यादव, बिसाहूराम यादव, छन्नू यादव, बैहाराम यादव आदि भी संबद्ध रहे हैं। छत्तीसगढ़ के गौवधवंदी आंदोलन 1914 से 1924 के बीच में ग्वाले लोगों ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। 1920-22 में असहयोग, 1923-28 के स्वराज्य दल की नीतियों में 1930-34 के सविनय अवज्ञा, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में भी यादवों ने भी सक्रिय सहयोग दिया था।
साभार- रऊताही 1998
धन्यवाद ज्ञानवर्धक जानकारी के लिये
ReplyDeleteGood bhai
ReplyDeleteयादव को अपने पिता की बात नही मानने के कारणों से
ReplyDeleteइन्हें राज्य निकाल दिया गया था।
इसलिए ये जंगल मे गौ को पालन किया और गोप कहलाने लगे।
Yadav kakatiya vansh se bhi sanbandhit the
Deleteधन्यवाद सर जी
Delete1962 युध्द की शौर्यगाथा भी जोड़ने कि कृपा करें
हरे कृष्ण
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए॥
ReplyDeleteसही हे
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली
ReplyDeleteThanks sir
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी के लिए धन्यवाद् .
ReplyDeleteबकबास
ReplyDeleteTu khud bakwaas h re
Deleteबकबास
ReplyDeleteऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यादवों के आदि पूर्वज यदु का वर्णन दास अथवा शूद्र के रूप में किया गया है
ReplyDelete---जो पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम गोप (आभीर) हैं ।
प्रमाण रूप में देखें--- विश्व के प्राचीनत्तम ग्रन्थ ऋग्वेद से
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन मुस्कराहट से पूर्ण दृष्टि वाले यदु और तुर्वसु दोनों दासों की सराहना करते हैं ।।
पवन प्रताप सिंह क्या वेदों को भी बकबास कहोगे
तो तुम प्रमाण दो जो प्राचीनत्तम हो ।
Rigved ka daswan mandal bahut bad ka likha hua hai na ki 1500-1000BC,is bat ko har koi janta hai,har itihaskar is bat par ek mat hai .To ismen lobhi panditon ne jarur swarth ki bhawna se hi kuchh likha hoga...yahan ye bhi dhyan dene wali bat hai ki tum jo bol rhe ye likha bhi hai ya nhi ye bhi tay nhi hai
DeleteI have received most important facts from u thanks sir
ReplyDeleteJai Yadav jai madhab
ReplyDeleteBhut hi sunder
ReplyDeleteJay Yadav Jay Madhav
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