यादव वंश की उत्पत्ति आर्यावर्त के महाराज ययाति एवं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के पुत्र यदु से हुई थी। ब्रह्मा के दस मानस पुत्र माने गये हैं- अत्रि, भृगु, मरीचि, अंगीरा, पुलह, ऋतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ एवं पुलत्स। श्रेष्ठ महर्षि अत्रि एवं पतिव्रता अनुसूइया जी से चंद्रमा, चंद्रमा-तारा से बुध, बुध-ईला से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति तथा ययाति से प्रथम पत्नी से यदु एवं तुर्वषु, ययाति तथा उनकी दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा से दुहायू, अनु-पुरु हुए। ये ही आगे चलकर यदुवंश के वंश कहलाए। ययाति भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे जिनके पांच पुत्रों में यदु ज्येष्ठ थे परंतु तर्क एवं बहस के पक्षधर यदु परंपरा एवं परिपाटी के विरोधी थे। अत: उन्हें सम्राट पद से वंचित होना पड़ा। यदु ने राजतंत्र छोड़कर गणतंत्र की स्थापना की उनके वंशज घुमक्कड़, साहसी, स्वाभिमानी एवं शक्ति सम्पन्न थे। अत: जहां भी गये जन समर्थन प्राप्तकर गण प्रमुख बने। यदु के पुत्र सहस्त्रजीत ने एक अलग वंश की स्थापना की। उस वंश में हैहय नाम से एक प्रतापी राजा हुए। इसी कारण उस वंश का नाम हैहय वंश पड़ा। 'महाभारत काल मेंÓ यादव गणराज्य चरम उत्कर्ष पर था। उस काल में राजा मधु (माधव), नल अभिजीत, पुनर्वसु, अहुक देवक, उग्रसेन (कंस) प्रतापी राजा हुए। इसी समय वसुदेव एवं नंदगण प्रधान थे। वसुदेव के पुत्र कृष्ण एवं बलराम हुए। अठारह अक्षोहनी नारायणी सेना उस काल की सर्वशक्तिमान सेना थी जिसके प्रमुख श्रीकृष्ण थे। विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारतÓ की सभी घटनाएं श्री कृष्ण के चारों ओर घुमती हैं। वे ही भारतीय धर्म एवं संस्कृति के संस्थापक थे। गीता के उपदेश से यह बात सिद्ध होती है कि श्रीकृष्ण की विश्व के प्रथम दार्शनिक, राजनैतिक चिंतक, कूटनीतिक, सम्पूर्ण कलाओं में दक्ष, गणतंत्रीय नेता एवं प्रणेता थे। कृष्ण के समक्ष धीर, वीर ज्ञानी, विद्वान, योगी सम्राट, दुष्ट कुबुद्धि सब नतमस्तक हो जाते थे।
यादवों के गणराज्य चंद्रगुप्त मौर्य तक रहे। चाणक्य के प्रयासों से यदुवंशी राजा नंद का नाश हुआ। देश में शक, हूण, कुषाण के आक्रमण ने यादवी शक्ति को आघात पहुंचाया। यदुवंश के 500 वर्ष के इतिहास का अवलोकन करने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि आर्य संस्कृति का आधार यादव संस्कृति है। यादवगण प्रमुखों एवं राजाओं ने साहित्य, कला, संस्कृति, शिल्प, धर्म, दर्शन के क्षेत्र में भारत को बहुत बड़ा योगदान दिया है। विश्व की व्यक्ति स्वतंत्रता एवं गणतंत्रीय व्यवस्था यादवों की ही देन है। यादव स्वतंत्रता प्रेमी, स्वाभिमानी, साहसी एवं शक्तिशाली कौम रही है। अत: रुढिय़ों, परम्पराओं का विरोध इनकी मूल प्रकृति रही है-
'हम वीर थे, हम वीर हैं, गणतंत्र जनक हम यदु संतान,
भारत के इस भारत की खातिर कर देंगे सर्वस्व बलिदान।Ó
आर्य संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इतिहास वेत्ताओं का मत है कि यदुवंश के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और आर्य संस्कृति यहीं से भारतीय संस्कृति में परिणित हो गई-
'यादव तो राजा भरत है, भरत ले भारत देश
सतय सनेही सपूत के, यदु मन बर संदेशÓ
ऋग्वेद में जिन प्रमुखजनों एवं वंशों का उल्लेख पाया जाता है उनमें यदु के वंशजों का भी उल्लेख है। यदु वंश का इतिहास ऋग्वेद के आर्य प्रजातियों के क्षत्रिय 'एलवंशÓ से प्रारंभ होता है। प्रतिष्ठान (प्रयाग) के 'एलÓ क्षत्रियों का राज्य ब्रह्म देश से काबुल व काकेशियस पर्वत तक फैला था। यदुवंशी गणराज्यों पुरु, कुरु, हैहय एवं तुर्षषु सम्राटों ने तीन हजार वर्षों तक सम्पूर्ण भारत (आर्यावर्त) पर शासन किया।
अमेरिकी पुरातत्व विभाग की सुश्री जायक बिंक के अनुसार चांद पर पहला कदम रखने वाला मानव रुस का नील आर्मस्ट्रांग यादववंशी है। इतिहास में यादव समाज में अनेकों राजा महाराजा हुए हैं तो स्वतंत्रता के पश्चात भारत में अनेकों मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री, सांसद, विधायक एवं अधिकारी हुए हैं। पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी भी तो यादव थे। समूचे भारत में यादव जाति की करीब 300 उपजातियां बताई गई हंै। जिनमें 17 उपजातियां छत्तीसगढ़ में निवास करती हंै। ये हैं झेरिया, कोसरिया, फूलझरिया, ठेठवार, देसहा,गवली, भोरथिया, मगधा, गौली, ग्वाल, महकुल, गयार, मेनाव, दुधकौरा, बरगाह, अठोरिया और ढलहोर ये सभी मूलत: यादव हंै। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन से जीविकोपार्जन इनकी मुख्य जाति वृत्ति है। गोपालन यादव जाति की ही पहचान है। यादव संस्कृति का अभ्युदय चरवाहा युग से मानना चाहिए। जाति व्यवस्था के अंतर्गत 'यादवÓ नामकरण आर्य सभ्यता के विकास क्रम में हुआ ऐसा माना जाता है।
इस समाज के सूत्रों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में जनसंख्या के आधार पर यादव तीसरे स्थान पर हैं परंतु फिर भी पिछड़े हैं क्योंकि ये असंगठित हैं। राजनैतिक चेतना, शिक्षा, व्यवसायों में रुचि का अभाव है। नशावृत्ति की परम्परा है। यादवों की तीनों शाखाओं में तुलनात्मक रुप से ठेठवारों की आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक स्थिति मजबूत है। ये श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाते हैं। शक्ति की पूजा करने के कारण इन्हें 'शक्तहाÓ कहा जाता है। गोवर्धन पूजा और मातर भी ये धूमधाम से मनाते हैं। बालोद, खल्लारी एवं भाटापारा में इनके सामाजिक भवन हैं जबकि राजिम, दुर्ग एवं खल्लारी में मंदिर हंै। छत्तीसगढ़ राज्य ठेठवार यादव समाज नामक केन्द्रीय संगठन (पं.क्र. 18033) की 36 राज्य इकाईयां हैं। इनमें गोत्रों की संख्या 150 है। ये प्राय: यादव, यदु, ठेठवार, उपनामों से उपयोग करते हैं। इनका खान-पान मिश्रित है। इनमें दहेज की समस्या नहीं है। सामूहिक विवाह हेतु प्रयास जारी है। मृतक संस्कार के अंतर्गत दशगात्र होता है। अंतर्जातीय विवाह को ये प्रश्रय नहीं देते हैं।
छत्तीसगढ़ में यादव जाति के अभ्युदय के विषय में तीन अनुमान लगाये जाते हैं-
1. छत्तीसगढ़ के मूल निवासी अनार्यों के गोपालक वर्ग को आर्यों ने यादव जाति के रुप में स्वीकार किया।
2. कलचुरी नरेशों के साथ राजवंश के रूप में यादव छत्तीसगढ़ आये।
3. आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये।
तीनों मान्यताओं का इतिहास के साथ परीक्षण करने पर हम यह पाते हैं कि वैदिक सभ्यता के आरंभिक काल में आर्य और अनार्य दो जातियां थी। पश्चात चातुर्वण्र्य व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। आर्यों को विप्र, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्गों में विभाजित किया गया तथा अनार्यों को शूद्र वर्ण के अंतर्गत रखा गया जिनका सामाजिक दायित्व आर्य के तीन वर्णों की सेवा करना था। इन्हें अस्पृश्य माना जाता था। आर्य मान्यता के अनुसार यादव जाति के लिए अस्पृश्यता का प्रतिबंध कभी नहीं रहा है। आर्य साहित्य में इस जाति का श्रेष्ठ स्थान है। (पहली मान्यता ध्वस्त हो गई) सन् 890 ई. में त्रिपुरी हैहयवंशी (यादव) कलचुरी नरेशों का शासन छत्तीसगढ़ में स्थापित हुआ जो सन् 1857 ई. तक रहा। परंतु ऐसा माना जाता है कि यादव सम्राटों का इतिहास ईसा से पांचवी शताब्दी तक रहा है। अत: द्वितीय मान्यता भी अयुक्ति युक्त सिद्ध हो गया। अत: तीसरा तर्क ही प्रबलतम प्रतीत होता है कि आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये। वर्तमान छत्तीसगढ़ में यादवों की प्रमुख तीन शाखाएं ठेठवार (कन्नौजिया) झेरिया एवं कोसरिया ही बहुलता से निवास करती हैं। छत्तीसगढ़ की आबादी में इन सभी का संयुक्त रूप से हिस्सा करीब 11 प्रतिशत
अनुमानित है।
ठेठवार- कोसे का साफा, चटक रंग का कुर्ता, ऊपर चढ़ी धोती, चमराही जूते, बलिष्ठ हाथों में काला मोटा, लट्ठ, कलाइयों में चांदी के चूड़े, सुगठित देहयष्टि, रोबीली मंूछे अपने इस पारंपरिक स्वरूप में ठेठवार दूर से ही पहचाना जा सकता है। उत्तरप्रदेश के कन्नौज से आए कन्नौजिया यादवों को छत्तीसगढ़ में ठेठवार कहा जाता है जो अपनी युद्धप्रियता और स्वाभिमान के लिए जनमानस में प्रतिष्ठित हैं। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन के वंशानुगत व्यवसाय में रत ठेठवारों को अन्यों की गोचरण सेवा, पानी भरना, चौका-बर्तन करना, बकरी या मुर्गी पालन, होटल रखना सहित दूध के विक्रय की भी जातीय स्वीकृति नहीं है। ठेठवार स्वयं को अन्य यादवों से श्रेष्ठ एवं कुलीन मानते हैं। ये रायपुर एवं रतनपुर में केन्द्रित पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले हैं। अपने व्यवसाय पर इनकी पकड़ संतोषप्रद है परंतु भविष्य में और उन्नति के लिए ये शासन से मांग करते हैं कि मछुआरों एवं बंसोड़ों की भांति सबसिडी, पशुओं के लिए चारा एवं चारागाह तथा शासकीय दुग्ध महासंघों की नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था की जाए।
झेरिया- इस शाखा के यादव लोग मुख्यत: रायपुर, दुर्ग एवं बिलासपुर जिलों में रहते हैं। झेरिया यादव समाज कल्याण समिति नामक संगठन की छत्तीसगढ़ जिला तहसील एवं ब्लाक स्तर पर इकाईयां हैं। इनका मुख्यालय रायपुर है। जिला स्तर पर महिला संगठन है पर पृथक युवा संगठन नहीं है। इनका पैतृक व्यवसाय गोपालन, दूध बेचना एवं घरेलू कार्य करना है। दूसरों के द्वारा यह व्यवसाय अपनाने के कारण इस व्यवसाय में झेरिया यादवों की पकड़ कमजोर हो गई है। इनके भी ईष्टदेव श्री कृष्ण हैं जिनकी जन्माष्टमी ये धूमधाम से मनाते हैं। इसके अतिरिक्त ये दीपावली पर्व पर सांहड़ा देव की भी पूजा करते हैं। इस वर्ग की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति शहरी क्षेत्रों में तो अच्छी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर है। राजनैतिक स्थिति शून्य है। इनके सामाजिक भवन कहीं नहीं है। इनक गोत्रों की संख्या 12 है चौधरी, दूधनाग, भैंस, रावत, कटवाल, ग्वाल आदि ये यादव उपनाम का उपयोग करते हैं। शुद्ध शाकाहारी इस जाति में दहेज नहीं है तथा सामूहिक विवाह जैसे आयोजनों का प्रयास नहीं हुआ है। ये अंतर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं देते है। मृत संस्कार के अंतर्गत दशगात्र एवं तेरहवीं होता है।
3. कोसरिया - कौशल प्रदेश से आए कोसरिया यादव बंधुओं का मुख्य संगठन अखिल भारतीय यादव महासभा है, जिसकी जिला नगर एवं तहसील स्तरीय शाखाएं कार्यरत है। दुर्ग, राजनांदगांव जिले में संगठन 1970 में स्थापित हुआ जिसमें स्व. झुमुक लाल राउत का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस शाखा के यादवों का पैतृक व्यवसाय स्वयं अपना अथवा अन्य किसी के पशुओं की सेवा करना (चरवाहा) एवं दुग्ध व्यवसाय है। परन्तु अन्यों द्वारा यह व्यवसाय अपनाने तथा शासकीय दुग्ध संयंत्रों की स्थापना हो जाने से यादवों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है। ग्रामीण परिवेश में 'पौनी-पसारीÓ के अंतर्गत आने वाले चार जातियों राउत-नाई-धोबी, लोहार में केवल राउत जाति ने ही अपनी उपस्थिति कायम रखी है परंतु उनका शोषण किया जाता है। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है इसके निराकरण के लिए आवश्यक है कि शासन चरवाहा मजदूरी तय करे। इस शाखा के लोगों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति कमजोर है। राजनैतिक स्थिति संतोषप्रद कही जा सकती है।
गोवर्धन पूजा (दीवाली) के बाद 15 दिनों तक अंचल में राउत नाचा की धूम मचाने वाले कोसरिया यादव बंधु सांहड़ा देव की पेजा करते हंै। श्रीकृष्ण सभी यादवों के आराध्य हैं। 'राउत नाचाÓ के संबंध में मान्यता है कि कर्मयोगी श्री कृष्ण ने 'इन्द्रपूजाÓ प्रणयन किया था। उक्त पूजा के अवसर पर श्री कृष्ण एवं उनके गोप शाखाओं ने हर्षोल्लास के आवेश में नृत्य किया था। उसी का अनुपालन करते हुए संपूर्ण भारत में गोवर्धन पूजा एवं यादवी नृत्य की परम्परा विद्यमान है।
बिलासपुर में विगत 19 वर्षों से अनवरत देव उठनी एकादशी के दिन राउत नाचा महोत्सव का आयोजन होता आ रहा है जो अपनी भव्यता एवं अनुपम छठा के कारण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है।
कोसरिया यादवों के सामाजिक भवन में मंदिर हर जिले में एवं ब्लाक में है। इनमें गोत्रों की संख्या 100-125 है। ये यादव, यदु, यदुवंशी, राउत, गोपाल, अहीर आदि उपनामों का प्रयोग करते है।
शाकाहारी इस वर्ग में दहेज प्रथा नहीं है तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। मूल-भटक जाने की स्थिति में विजातीय बहु को घर में होने वाले सामाजिक कार्यों में सम्मिलित नहीं करते हैं। इसे लौड़ी दाखिल कहते हैं सभी वर्गों में वैवाहिक संबंध स्थापित करने की छूट है मृत संस्कार ऐच्छिक रूप से 3 से 10 दिनों में होता है।
संगठन की शक्ति को मानते हुए वर्ष 1990 में सर्व छत्तीसगढ़ यादव समाज का गठन किया गया है जो सभी यादवों के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विकास में सहायक सिद्ध होगा।
साभार-2005
यादवों के गणराज्य चंद्रगुप्त मौर्य तक रहे। चाणक्य के प्रयासों से यदुवंशी राजा नंद का नाश हुआ। देश में शक, हूण, कुषाण के आक्रमण ने यादवी शक्ति को आघात पहुंचाया। यदुवंश के 500 वर्ष के इतिहास का अवलोकन करने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि आर्य संस्कृति का आधार यादव संस्कृति है। यादवगण प्रमुखों एवं राजाओं ने साहित्य, कला, संस्कृति, शिल्प, धर्म, दर्शन के क्षेत्र में भारत को बहुत बड़ा योगदान दिया है। विश्व की व्यक्ति स्वतंत्रता एवं गणतंत्रीय व्यवस्था यादवों की ही देन है। यादव स्वतंत्रता प्रेमी, स्वाभिमानी, साहसी एवं शक्तिशाली कौम रही है। अत: रुढिय़ों, परम्पराओं का विरोध इनकी मूल प्रकृति रही है-
'हम वीर थे, हम वीर हैं, गणतंत्र जनक हम यदु संतान,
भारत के इस भारत की खातिर कर देंगे सर्वस्व बलिदान।Ó
आर्य संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इतिहास वेत्ताओं का मत है कि यदुवंश के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और आर्य संस्कृति यहीं से भारतीय संस्कृति में परिणित हो गई-
'यादव तो राजा भरत है, भरत ले भारत देश
सतय सनेही सपूत के, यदु मन बर संदेशÓ
ऋग्वेद में जिन प्रमुखजनों एवं वंशों का उल्लेख पाया जाता है उनमें यदु के वंशजों का भी उल्लेख है। यदु वंश का इतिहास ऋग्वेद के आर्य प्रजातियों के क्षत्रिय 'एलवंशÓ से प्रारंभ होता है। प्रतिष्ठान (प्रयाग) के 'एलÓ क्षत्रियों का राज्य ब्रह्म देश से काबुल व काकेशियस पर्वत तक फैला था। यदुवंशी गणराज्यों पुरु, कुरु, हैहय एवं तुर्षषु सम्राटों ने तीन हजार वर्षों तक सम्पूर्ण भारत (आर्यावर्त) पर शासन किया।
अमेरिकी पुरातत्व विभाग की सुश्री जायक बिंक के अनुसार चांद पर पहला कदम रखने वाला मानव रुस का नील आर्मस्ट्रांग यादववंशी है। इतिहास में यादव समाज में अनेकों राजा महाराजा हुए हैं तो स्वतंत्रता के पश्चात भारत में अनेकों मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री, सांसद, विधायक एवं अधिकारी हुए हैं। पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी भी तो यादव थे। समूचे भारत में यादव जाति की करीब 300 उपजातियां बताई गई हंै। जिनमें 17 उपजातियां छत्तीसगढ़ में निवास करती हंै। ये हैं झेरिया, कोसरिया, फूलझरिया, ठेठवार, देसहा,गवली, भोरथिया, मगधा, गौली, ग्वाल, महकुल, गयार, मेनाव, दुधकौरा, बरगाह, अठोरिया और ढलहोर ये सभी मूलत: यादव हंै। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन से जीविकोपार्जन इनकी मुख्य जाति वृत्ति है। गोपालन यादव जाति की ही पहचान है। यादव संस्कृति का अभ्युदय चरवाहा युग से मानना चाहिए। जाति व्यवस्था के अंतर्गत 'यादवÓ नामकरण आर्य सभ्यता के विकास क्रम में हुआ ऐसा माना जाता है।
इस समाज के सूत्रों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में जनसंख्या के आधार पर यादव तीसरे स्थान पर हैं परंतु फिर भी पिछड़े हैं क्योंकि ये असंगठित हैं। राजनैतिक चेतना, शिक्षा, व्यवसायों में रुचि का अभाव है। नशावृत्ति की परम्परा है। यादवों की तीनों शाखाओं में तुलनात्मक रुप से ठेठवारों की आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक स्थिति मजबूत है। ये श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाते हैं। शक्ति की पूजा करने के कारण इन्हें 'शक्तहाÓ कहा जाता है। गोवर्धन पूजा और मातर भी ये धूमधाम से मनाते हैं। बालोद, खल्लारी एवं भाटापारा में इनके सामाजिक भवन हैं जबकि राजिम, दुर्ग एवं खल्लारी में मंदिर हंै। छत्तीसगढ़ राज्य ठेठवार यादव समाज नामक केन्द्रीय संगठन (पं.क्र. 18033) की 36 राज्य इकाईयां हैं। इनमें गोत्रों की संख्या 150 है। ये प्राय: यादव, यदु, ठेठवार, उपनामों से उपयोग करते हैं। इनका खान-पान मिश्रित है। इनमें दहेज की समस्या नहीं है। सामूहिक विवाह हेतु प्रयास जारी है। मृतक संस्कार के अंतर्गत दशगात्र होता है। अंतर्जातीय विवाह को ये प्रश्रय नहीं देते हैं।
छत्तीसगढ़ में यादव जाति के अभ्युदय के विषय में तीन अनुमान लगाये जाते हैं-
1. छत्तीसगढ़ के मूल निवासी अनार्यों के गोपालक वर्ग को आर्यों ने यादव जाति के रुप में स्वीकार किया।
2. कलचुरी नरेशों के साथ राजवंश के रूप में यादव छत्तीसगढ़ आये।
3. आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये।
तीनों मान्यताओं का इतिहास के साथ परीक्षण करने पर हम यह पाते हैं कि वैदिक सभ्यता के आरंभिक काल में आर्य और अनार्य दो जातियां थी। पश्चात चातुर्वण्र्य व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। आर्यों को विप्र, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्गों में विभाजित किया गया तथा अनार्यों को शूद्र वर्ण के अंतर्गत रखा गया जिनका सामाजिक दायित्व आर्य के तीन वर्णों की सेवा करना था। इन्हें अस्पृश्य माना जाता था। आर्य मान्यता के अनुसार यादव जाति के लिए अस्पृश्यता का प्रतिबंध कभी नहीं रहा है। आर्य साहित्य में इस जाति का श्रेष्ठ स्थान है। (पहली मान्यता ध्वस्त हो गई) सन् 890 ई. में त्रिपुरी हैहयवंशी (यादव) कलचुरी नरेशों का शासन छत्तीसगढ़ में स्थापित हुआ जो सन् 1857 ई. तक रहा। परंतु ऐसा माना जाता है कि यादव सम्राटों का इतिहास ईसा से पांचवी शताब्दी तक रहा है। अत: द्वितीय मान्यता भी अयुक्ति युक्त सिद्ध हो गया। अत: तीसरा तर्क ही प्रबलतम प्रतीत होता है कि आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये। वर्तमान छत्तीसगढ़ में यादवों की प्रमुख तीन शाखाएं ठेठवार (कन्नौजिया) झेरिया एवं कोसरिया ही बहुलता से निवास करती हैं। छत्तीसगढ़ की आबादी में इन सभी का संयुक्त रूप से हिस्सा करीब 11 प्रतिशत
अनुमानित है।
ठेठवार- कोसे का साफा, चटक रंग का कुर्ता, ऊपर चढ़ी धोती, चमराही जूते, बलिष्ठ हाथों में काला मोटा, लट्ठ, कलाइयों में चांदी के चूड़े, सुगठित देहयष्टि, रोबीली मंूछे अपने इस पारंपरिक स्वरूप में ठेठवार दूर से ही पहचाना जा सकता है। उत्तरप्रदेश के कन्नौज से आए कन्नौजिया यादवों को छत्तीसगढ़ में ठेठवार कहा जाता है जो अपनी युद्धप्रियता और स्वाभिमान के लिए जनमानस में प्रतिष्ठित हैं। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन के वंशानुगत व्यवसाय में रत ठेठवारों को अन्यों की गोचरण सेवा, पानी भरना, चौका-बर्तन करना, बकरी या मुर्गी पालन, होटल रखना सहित दूध के विक्रय की भी जातीय स्वीकृति नहीं है। ठेठवार स्वयं को अन्य यादवों से श्रेष्ठ एवं कुलीन मानते हैं। ये रायपुर एवं रतनपुर में केन्द्रित पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले हैं। अपने व्यवसाय पर इनकी पकड़ संतोषप्रद है परंतु भविष्य में और उन्नति के लिए ये शासन से मांग करते हैं कि मछुआरों एवं बंसोड़ों की भांति सबसिडी, पशुओं के लिए चारा एवं चारागाह तथा शासकीय दुग्ध महासंघों की नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था की जाए।
झेरिया- इस शाखा के यादव लोग मुख्यत: रायपुर, दुर्ग एवं बिलासपुर जिलों में रहते हैं। झेरिया यादव समाज कल्याण समिति नामक संगठन की छत्तीसगढ़ जिला तहसील एवं ब्लाक स्तर पर इकाईयां हैं। इनका मुख्यालय रायपुर है। जिला स्तर पर महिला संगठन है पर पृथक युवा संगठन नहीं है। इनका पैतृक व्यवसाय गोपालन, दूध बेचना एवं घरेलू कार्य करना है। दूसरों के द्वारा यह व्यवसाय अपनाने के कारण इस व्यवसाय में झेरिया यादवों की पकड़ कमजोर हो गई है। इनके भी ईष्टदेव श्री कृष्ण हैं जिनकी जन्माष्टमी ये धूमधाम से मनाते हैं। इसके अतिरिक्त ये दीपावली पर्व पर सांहड़ा देव की भी पूजा करते हैं। इस वर्ग की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति शहरी क्षेत्रों में तो अच्छी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर है। राजनैतिक स्थिति शून्य है। इनके सामाजिक भवन कहीं नहीं है। इनक गोत्रों की संख्या 12 है चौधरी, दूधनाग, भैंस, रावत, कटवाल, ग्वाल आदि ये यादव उपनाम का उपयोग करते हैं। शुद्ध शाकाहारी इस जाति में दहेज नहीं है तथा सामूहिक विवाह जैसे आयोजनों का प्रयास नहीं हुआ है। ये अंतर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं देते है। मृत संस्कार के अंतर्गत दशगात्र एवं तेरहवीं होता है।
3. कोसरिया - कौशल प्रदेश से आए कोसरिया यादव बंधुओं का मुख्य संगठन अखिल भारतीय यादव महासभा है, जिसकी जिला नगर एवं तहसील स्तरीय शाखाएं कार्यरत है। दुर्ग, राजनांदगांव जिले में संगठन 1970 में स्थापित हुआ जिसमें स्व. झुमुक लाल राउत का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस शाखा के यादवों का पैतृक व्यवसाय स्वयं अपना अथवा अन्य किसी के पशुओं की सेवा करना (चरवाहा) एवं दुग्ध व्यवसाय है। परन्तु अन्यों द्वारा यह व्यवसाय अपनाने तथा शासकीय दुग्ध संयंत्रों की स्थापना हो जाने से यादवों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है। ग्रामीण परिवेश में 'पौनी-पसारीÓ के अंतर्गत आने वाले चार जातियों राउत-नाई-धोबी, लोहार में केवल राउत जाति ने ही अपनी उपस्थिति कायम रखी है परंतु उनका शोषण किया जाता है। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है इसके निराकरण के लिए आवश्यक है कि शासन चरवाहा मजदूरी तय करे। इस शाखा के लोगों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति कमजोर है। राजनैतिक स्थिति संतोषप्रद कही जा सकती है।
गोवर्धन पूजा (दीवाली) के बाद 15 दिनों तक अंचल में राउत नाचा की धूम मचाने वाले कोसरिया यादव बंधु सांहड़ा देव की पेजा करते हंै। श्रीकृष्ण सभी यादवों के आराध्य हैं। 'राउत नाचाÓ के संबंध में मान्यता है कि कर्मयोगी श्री कृष्ण ने 'इन्द्रपूजाÓ प्रणयन किया था। उक्त पूजा के अवसर पर श्री कृष्ण एवं उनके गोप शाखाओं ने हर्षोल्लास के आवेश में नृत्य किया था। उसी का अनुपालन करते हुए संपूर्ण भारत में गोवर्धन पूजा एवं यादवी नृत्य की परम्परा विद्यमान है।
बिलासपुर में विगत 19 वर्षों से अनवरत देव उठनी एकादशी के दिन राउत नाचा महोत्सव का आयोजन होता आ रहा है जो अपनी भव्यता एवं अनुपम छठा के कारण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है।
कोसरिया यादवों के सामाजिक भवन में मंदिर हर जिले में एवं ब्लाक में है। इनमें गोत्रों की संख्या 100-125 है। ये यादव, यदु, यदुवंशी, राउत, गोपाल, अहीर आदि उपनामों का प्रयोग करते है।
शाकाहारी इस वर्ग में दहेज प्रथा नहीं है तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। मूल-भटक जाने की स्थिति में विजातीय बहु को घर में होने वाले सामाजिक कार्यों में सम्मिलित नहीं करते हैं। इसे लौड़ी दाखिल कहते हैं सभी वर्गों में वैवाहिक संबंध स्थापित करने की छूट है मृत संस्कार ऐच्छिक रूप से 3 से 10 दिनों में होता है।
संगठन की शक्ति को मानते हुए वर्ष 1990 में सर्व छत्तीसगढ़ यादव समाज का गठन किया गया है जो सभी यादवों के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विकास में सहायक सिद्ध होगा।
साभार-2005
who wote it.i think he is yadav. but all story false.
ReplyDeleteIt is not fake have a look to Geeta ull get to know
Deleteबोल रहा है कि चाँद पे क़दम रखने वाला पहला इंसान नील ऑर्म्स्ट्रॉंग भी यादव था😜😜
Deleteहँस हँस के पेट दुखने लगा😜😜
Itihash ke daku kitno ko jhoonthh parsoge koi veer hua use rajpoot bnalo kyon,
Deleteछत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीर नारायण सिंह को राजपूत बताने का विवाद गहराने के बाद अब राज्य के शिक्षा मंत्री इस मामले में आगे आए हैं। सोमवार को उन्होंने एक सर्कुलर जारी करते हुए शिक्षा विभाग के अधिकारियों को निर्देशित किया कि उपरोक्त पाठ्य पुस्तक में शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार राजपूत की जगह उनका नाम शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड पढ़ा जाए। साथ ही शिक्षा मंत्री ने कहा कि यह पाठ्य पुस्तक पुरानी और त्रुटिपूर्ण है। इसे पाठ्य सामग्री से जल्द हटा लिया जाएगा। इसके स्थान पर शहीद वीर नारायण सिंह के विषय में सही तथ्यों को प्रकाशित किया जाएगा।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एससीइआरटी) द्वारा प्रकाशित कक्षा दसवीं की किताब में शहीद वीर नारायण सिंह का नाम शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार राजपूत लिखा गया है। यह मामला पहले भी सामने आया था, लेकिन अब इसे लेकर आदिवासी समाज आक्रोशित है। आदिवासी समाज ने आरोप लगाया है कि भाजपा सरकार आदिवासियों की इतिहास-संस्कृति को बदलने की साजिश रच रही है।
मंत्री के इस आश्वासन के बावजूद विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष बीपीएस नेताम का कहना है कि यह आदिवासियों का अपमान है। हम शहीद वीर नारायण सिंह की पूजा करते हैं। उन्हें राजपूत बताया जाना गलत है। ऐसे तो ये मिनीमाता और गुरूघासीदास को भी राजपूत बता देंगे। नेताम ने कहा कि इस मामले में समाज ने बैठक की है। आदिवासी युवा संगठन ने पिछले दिनों इसे लेकर राज्य के कई जिलों में प्रदर्शन और पुतला दहन किया था।
साल 2016 में भी उठा था विवाद
2016 में राज्य शिक्षा स्थाई समिति की बैठक में सदस्यों ने राजपूत शब्द हटाने का सुझाव दिया था, लेकिन हटाया नहीं गया। इतिहासकार डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र के मुताबिक उनकी वीरता के कारण उन्हें राजपूत उपमा दी गई। यह जाति नहीं संबोधन बोधक शब्द है। मध्यप्रदेश सरकार के सूचना एवं प्रसारण विभाग ने 1984 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें वीर नारायण सिंह को राजपूत बताया गया। वहीं से दूसरी किताबों में यह शब्द आया।
शहीद वीर नारायण सिंह आदिवासियों के लिए पूज्य
शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार सोनाखान के जमींदार थे। उनका जन्म 1795 में हुआ था। 35 साल की आयु में उन्हें पिता से जमींदारी मिली। 1857 के विद्रोह के पहले ही उन्होंने ब्रिटिश नीतियों को चुनौती दी। 1856 में सोनाखान में अकाल पड़ा तो उन्होंने साहूकार से मदद मांगी और आश्वस्त किया कि फसल होने पर उसका अनाज लौटा दिया जाएगा। साहूकार ने अनाज देने से मना किया तो उन्होंने गोदाम तोड़कर अनाज जनता को बांट दिया। इस घटना की शिकायत उस समय डिप्टी कमिश्नर इलियट से की गई। वीरनारायण सिंह ने शिकायत की भनक लगते हुए करुरूपाट डोंगरी को अपना आश्रय बना लिया।
ज्ञातव्य है कि करुरूपाट गोड़, बिंझवार राजाओं के देवता हैं। अंतत: ब्रिटिश सरकार ने देवरी के जमींदार जो नारायण सिंह के बहनोई थे के सहयोग से छलपूर्वक देशद्रोही व लुटेरा का बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें बंदी बना लिया। अंग्रेज सरकार के 10 दिसंबर 1857 को रायपुर के जयस्तंभ चौक पर उन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया था। बिंझवार आदिवासी समाज उन्हें अपना पूज्य मानता है।
सरकार ने माना वीर नारायण सिंह थे आदिवासी
छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा मंत्री केदार कश्यप कहते हैं, सर्व आदिवासी समाज की आपत्ति के बाद शहीद वीर नारायण सिंह की जीवनी संबंधि पाठ्य सामग्री में संसोधन को लेकर मैंने अधिकारियों से चर्चा की है। तत्काल प्रभाव से संसोधन करके बच्चों को उक्त पाठ पढ़ाने के लिए कहा गया है।
This is true
Deleteकुछ बेवकूफ लोग यादवो के पूर्वजो को अपना पूर्वज बताने मे लगे है अरे अक्ल के अन्धो दूसरे के बाप को अपना बाप बताने मे कितना मजा आता है तुम लोगो को🤣🤣
DeleteSandi yaduvanshiyo ko am sangathan hona chahiye tabhi rajanitic rup mahout hinge. Shiksha me adhik ruchi le
ReplyDeleteRam badan singh(yaduvansi). Bhojpur bihar
ReplyDeleteदुष्यंत यदु नहीं पुरू वंशी राजा थे
ReplyDeleteयदु और पुरू ययाति के पुत्र है
दोनों भाई है
यदु से यादव पुरू से पोराव वांश है
Jai shri krishna jay yadavjai madhav
ReplyDeleteYaduvanshi h hum.fake nah
ReplyDeleteI h.
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ReplyDeleteक्या कृष्ण वास्तव मे यादव थे या क्षत्रिय थे? क्या दोनो नही हो सकते?
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परिचय
अनेक बार यह उल्लेख आता है कि कृष्ण यदुवंशी थे, यादव थे. आम धारणा यह है कि वसुदेव का पुत्र होने के कारण क्षत्रिय थे परंतु नन्द परिवार मे पालन पोषण होने के कारण यादव भी माने जाते हैं. परंतु सत्य यह नही है
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नन्द यादव नही थे
नन्द परिवार यादव नहीं था, वह तो ग्वाल थे, नन्दगोप ग्वालों के प्रमुख थे. आयेज जानिये कि यादव कौन थे.
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ययाति
यादवो के आरम्भ के बारे में जानने के लिए हमें भागवत पुराण में जाना पड़ेगा. चन्द्र वंश में प्रसिद्ध राजा ययाति (नहुष के पुत्र) हुए हैं. ययाति एक बार अशोक वन में शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से मिले और दोनों ने एक दुसरे को पसंद किया. शुक्राचार्य की सहमति से दोनों का विवाह हो गया.
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शर्मिष्ठा का प्रवेश
देवयानी की मित्र और असुर पुत्री शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ खेलती थी और उनकी बहुत गहरी मित्रता थी. विवाह के समय शर्मिष्ठा को दहेज़ के रूप में देवयानी के साथ खेलने के लिए दे दिया गया परन्तु शुक्राचार्य ने चेतावनी दी कि ययाति शर्मिष्ठा से विवाह नहीं करेगा
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ययाति और शर्मिष्ठा
शर्मिष्ठा को एक अशोक वाटिका में स्थान दे दिया गया जबकि देवयानी महल में रह रही थी. इस बीच वह भी राजा को पसंद करने लगी थी. एक दिन राजा ययाति के वहां से निकलते समय उसने अपने मन की बात कह दी और देवयानी को बिना बताये दोनों ने विवाह कर लिया
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ययाति का शाप
देवयानी के 2 बेटे और शर्मिष्ठा से 3 बेटे हुए. एक दिन देवयानी को यह पता चल गया और उसने यह बात अपने पिता को बता दी. तब उन्होंने ययाति को शाप दे दिया की वह अभी बूढा हो जाये और सारी शक्ति क्षीण हो जाये.
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शाप का उपाय
शुक्राचार्य ने कहा की अगर उनका कोई पुत्र उनकी वृद्धावस्था लेले और बदले में अपनी जवानी देदे तो वह फिर से जवान हो सकते हैं. इसके बाद ययाति ने पुत्रों के सामने प्रस्ताव रखा कि जो उसे अपनों जवानी देगा उसे ही राज्य मिलेगा.
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यदुवंश का उद्दभव
सबसे छोटे बेटे पुरु ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. कुरुवंश (कौरव पांडव) इन्ही के वंशज हुए हैं. सबसे बड़े बेटे यदु ने अपना अलग राज्य स्थापित कर यदुवंश की स्थापना की. वसुदेव यदु के ही वंशज थे, इसलिए यादव भी क्षत्रिय हैं
कहा जाता है रांड पूत समुदाय मुगलों के पुत्र हे, लेकिन ये आधा सत्य हे, उन लोगो में रंडियों का ओर मुगलों का दोनों का खून होता है, इसलिए इन लोगो की मुलगरांड कहते हे
DeleteJay Yadav jay Madhav jay Shree Krishna🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
ReplyDeleteJay shri krishna
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