Thursday, 30 October 2014

लोकगीत से गीत होती एक यात्रा

विश्व साहित्य की किसी भी भाषा में गीत ही सर्वाधिक प्रिय विधा रहा है । यह भी सत्य है , कि गीत का उदय जहॉं भी हुआ ,लोक गीत के रूप में ही हुआ है। अत: हम कह सकते हैं, कि लोकगीत भाषा का पहला पुत्र है । यों तो गीत सृष्टि की राग वृत्ति है, कलकल,कलरव, गुंजन और पत्थरों के मौन से मुखरित होता जो होठों  की गुनगुनाहट में थिरकता है, वह प्रणव का जीवन्त स्वरूप गीत है। गीत संस्कृति की आत्मा है, मानव मन की रसधार है। गीत में चेतना की निजता समष्टि की वेदना में रूपान्तरित होकर प्रकट होती है। भावनानुभूति गीत का प्राण है, तो करूणा  और प्यार उसका आधार । अनुभूति की गहराई, समन्वित होकर जो प्रवाह बनता है, वह गीत है। वैयक्तिकता से निकल कर सामाजिक चेतना की धुरी बनता गीत सोहर, लोरी, मंगलगान, प्रणय , समर्पण और भजन कीर्तन से अनहद  तक की अनन्त यात्रा में सतत् गतिमान रहा है। उसने जनम गीत भी गाए है, और मरण गीत भी। गीत की इस यात्रा में सभ्यताओं के स्वरूप निखरे हैं, उनके निष्प्राण शरीरों को स्वस्थ संस्फुरण मिलें है। संस्कृतियों के मानस पवित्र हुए है, कितनी गाथाओ के पृष्ठ खुलें है और आदमी ने जीने के सलीके सीखें है।
गीत की यह पावन धारा पहले पहल जब आदि मानव के हृदय से छलकी, तब भाषा नहीं थी, न कागज था न कलम, भोजपत्र भीं नहीं था । आदि मानव में कंठ में , ओठों की गुनगुनाहट में, अनुभावों की मौन अभिव्यक्ति की ठसक में नृत्य की ठुमक में एक लय थी, जिसका शास्त्र गायक नें स्वंय गढ़ा था --
अजी मैं तो गावत हौं
मुॅंह अखरा जवरिहा मेरा
कलम धरे न कभू हाथ हों
बिना कलम कागज और शास्त्र ज्ञान के, ये लोकगीत रचे, और सतत् रचे जाते रहे । भाषा को लिपि मिली तो भोजपत्रों पर उतरे कागज पर उतरे, निम्य नए रूप धरते  ये लोकगीत आज के उत्कृष्ट साहित्यिक गीत बने।
लोकगीत के रूप में -सोहर, लोरी, रतजगा, देवीगीत, उत्सवगीत, सावन की मल्हारें, झूलागीत,होरी, सुआ, ददरिया,बारहमासा, करमा, मड़ई, लोरिक चंदा।  शादियों में स्वागत गान, ज्योनार,बधावा, यहॉं तक की शादी के गाली गीत भी कभी बड़े प्रिय हुआ करते थे जो आज उपेक्षित हो गए है। गीतों के ये सारे रूप हमारे लोकगीतों के रूप में ही उदित हुए हैं, और सारे देश में  विदेशों में भी अपने भाषिक रूप में प्रचलित है।  कालान्तर में भाषा व्याकरण और छान्दसिक-परिष्कारों के साथ परिमार्जिक विकसित होते हुए आज के गीत के रूप में प्रतिष्ठित हुए  है। विकास के हर सोपान पर गीत का लोक लालित्य और लोकहित सदैव केन्द्र में रहा है।  मलिक मुहम्मद जायसी की नागमती जब कहती है-
कागा सब तन खाइयो
चुन-चुन खइयो मॉँस
दो नयना मत खाइयो
पिया मिलन की आस
तब वैसा ही दर्द उभरता है , जैसा छत्तीसगढ़ की विरहिन का -
मोरा तिरिया जनम् झनि देउ
सुआरे !
संत कबीर जब गाता है-
घुँघट के पट खोल री
तोहि पिया मिलेंगे।
या मीरा -
हेरी, मैं तो प्रेम दिवाणी
मेरो दरद न जाणे कोइ।
तब लोकगीत के ही सहज मर्म भेदी स्वर उभरते हैँ
सूरदास का -
मैया मेरी !
मैं नहिं माखन खायो
या रत्नाकर की गोपियों का -
ग्राम को जताइ, औ बताइ नाम ऊधौं तुम,
श्याम सों हमारी राम-राम कह दीजियो!
दोनों उद्धरणों में  वात्सल्य और प्यार की लोकगंगा ही तो बहती है । बेटी की विदा के क्षणों की मार्मिकता में तो कण्व ऋषि भी रो पड़े थे, ये गीत आज भी लगभग उसी दर्द के साथ सारे देश में गाए जाते हैं-
काहे को भेजा विदेश / रे  सुन बाबुल मोरे !
भैया को दीने महल दुमहला
हमको दियो पर देश  / रे  सुन बाबुल मोरे ।
बचपन में इस गीत को सुनकर कितनी बार रोया हँू । आज भी वैसा ही करूणा और वात्सल्य एक साथ उमड़ता है।
वीर रस में उत्तर भारत की आल्हा हो या छत्तीसगढ़  की पंडवानी आज भी धमनियों में रक्त ज्वार उठाने में सक्षम है। ढोला मारू, लोरिक- चंदा, होरी, विरहा, नरसी  का  माइरा किसी भी आंचल से आए हों हमारे अपने जीवन के अंग है। एक जैसा ही रस और संवेदन जाग्रत करते हंै। ये लोकगीत ही तो हैं जो हमारी अनेकता को एकता के सूत्र में बाँध कर
रखते हैं।
लोकगीतों की यह हृदयग्राही प्रवृत्ति ही आज के गीतों में उतर कर उन्हें साहित्यिक गीतों की नव्यता प्रदान करती हैं। आल्हा या पंडवानी हो, प्रसाद जी का हिमाद्रि तुग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती या दिनकर का मेरे नगपति मेरे विशाल ध्वनि तो लोक हुंकार की ही है। महाप्राय निराला जब काव्य की परम्परागत रूढिय़ों के विरूद्ध नवता का क्रान्ति उद्घोष करते हैं तब लोक जीवन का इतिहास जन्म स्वर ही तो ध्वनित होता है। मधुशाला और मधुबाला जैसी मादक रचनाओं पर अपार जनप्रियता प्राप्त करने के बाद भी  'बच्चनÓ जी लोकगीत की मिठास का संवरण नहीं कर पाए और-
अब दिन बहुरे
जी की कहरें
मनवासी, पी के मन बसरे
महुआ  के नीचे मोती महुआ के झरे । महुआ के ।
एेसे कई गीत बच्चन जी ने लिखे है। आज तो अनेक समर्थ गीतकर लोगगीतों की सहज कहन और             मिठास अपने गीतों में घोल रहे हैं । देखिये-
इन्द्र को मनाएँगे
टुटकों के बल
रात ढले निर्वसना जोतेंगी हल
दे जाना तन मन से होकर निर्मल
कौछ भर चबेना औ लोटे में जल ।
शिवबहादुर सिंह भदौरिया
और देखें, ममता बाजपेयी का एक गीत-
लोकगीत की मीठी धुन है
गोबर लीपा आँगन है
घास फ ूस के छानी छप्पर
ठंडी छाँव मढैया गीत
दुलहन  के हाथों की मेंहदी
हरे कांच की चूड़ी है,
झीना सा लंबा घूँघट है
झुक-झुक पाँव पड़ैया गीत।
लोकभाषा,लोकलालित्य और लोकरस से जुडऩा गीत की सहज युग सापेक्ष्य प्रवृत्ति है । सहज गीत ही जन मानस ने कंठ में बिठाए हैं, होठों पर रमाए है, माथे पर बिठाए हैं। उनमें लोक रजंन भी है, और लोकमंगल भी। अत: गीत की जो यात्रा लोकगीत से प्रारंभ हुई थी, अनेक विकास परिवर्तनों में होती हुई पुन: लोकगीत की आेर लौट रही है । उद्धरित करना चाहँूगा छत्तीसगढ़ी में गीतों के रचयिता श्री बुधराम यादव का बदलते परिवेश में गाँव की तलाश करता  एक गीत-
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हे
ओ सुवा ददरिया करमा अउ
फागुन के फ ाग नदावत है
ओ चंदेनी ढोला-मारू
मरथरी भजन विसरावत हे ।
डोकरी  दाई के जनउला
कहनी किस्सा आनी बानी
ओ सुरववंतिन के चौरा  अउ
आल्हा रम्माइन पंडवानी
तरिया नदिया कुवाँ बवली के
पानी असन अटावत हे।
लोकगीत का गीत की और गीत का लोकगीत की आेर यह उन्मुखीकरण, विकास की अनुमति का सुखद आनंद है। यह वह प्रक्रियाँ भी है, जो आंचलिक बोलियों क ा साहित्य-भाषा बनने की शाक्ति देती है । आज की महान् साहित्य-भाषाए, ब्रज, अवधी और खड़ी बोली, किसी समय की आंचलिक लोक भाषायें ही थीं । छत्तीसगढ़ी के लोकगीत सतत् समृद्ध होते रहें, कामना हैं उत्तम साहित्य भी सृजित होगा ।
साभार रउताही 2014


No comments:

Post a Comment