छत्तीसगढ़ी लोकगीत का अत्यन्त जनप्रिय रूप है- सुवा गीत , जो नारी के सुख-दुख, हर्ष -विषाद और व्यथा-कथा को अभिव्यक्ति करता है। सुवा-गीत नारी-दर्शन का छत्तीसगढ़ी नामकरण है, जिसमें नारी की परवशता, असहायता के साथ उसके कामल-कमनीय गुणों व महान-उदार हृदयों की झांकी मिलती है। जब खेतों में धान की बालियां झूमने लगती है तथा पुरवैया के झोंकों से नाचती -इठलाती है, तब छत्तीसगढ़ी नारी का सुग्गा-मन फुदकने लगता है। एक ओर अन्नपूर्णा की कृपा के कारण व्यक्त उल्लास का आवेग है, तो दूसरी ओर भावी जीवन के मंगलमय दिवस का संकेत। प्रेम और हर्ष से तंरगायित नारियां मेड़ में आ जुटती है। एक की प्रसन्नता, सब की प्रसन्नता हो जाती है। सब अपने आल्हाद को समवेत स्वर में व्यक्त करते है। सुवा-गीत-नृत्य की सृष्टि हो जाती है। 'सुवा-गीतÓ नामानुरूप सुवा को संबोधित कर गाये जाने वाले वे लोकगीत है, जिसमें सुवा के माध्यम से नारियां प्रकारांतर में अपने जीवन की कथा ही कहती है। सुवा सरल, निश्छल, सीधा-सादा प्राणी है। इसके बाद भी वह मनोरंजन का उपक्रम है। यही दशा छत्तीसगढ़ी नारी की रही है। अत: उन्हें सुवा के रूप मेें अपना गुण दृष्टि होता है, अपनी बात दिखलाई देती है। यदि सुवा हरित-रक्ताम-युक्त है, तो छत्तीसगढ़ी नारियाँ भी हरी साड़ी व लाल चोली से सज्जित । छत्तीसगढ़ी कवि डॉ. विमल पाठक की अध:पतन कविता इस तथ्य को प्रमाणित करतीं है-हरियर लुगरा अउ लाली रे पोलिका रे नोनी हर, लहुटत हे मेला ले गांव।
पिंजरबद्ध सुग्गे की तरह छत्तीसगढ़ी नारियाँ भी बंधन-युक्त है। उन्हें उन्मुक्त गगन में विचरण करने के अवसर भी नहीं मिला, यही तो विवश है। इसीलिए नारियाँ अगले जन्म में नारी-योनि में अवतरित होने की पक्षधर नहीं। कारण यह स्थिति तो रस्सी में बंधे हुए उस गाय की तरह है, जो जिसके हाथों सौंप दी जाए, प्रस्थित होना पड़ता है-
पइँया मँय लागौ चंदा-सुरूज के रे सुवना, मोला तिरिया जनम झनि देय। तिरिया जनम मोर जनम के बैरी रे सुवना, जिहाँ पठवय, तिहाँ जाय।।
यदि जायसी का सुवा गुरू का प्रतीक है तो छत्तीसगढ़ी का सुवा विद्यार्थी का ,जिसका गुरू व सर्वज्ञ छत्तीसगढ़ी नारियॉं है, जो उन्हें समझातीं-पढ़ातीं व उनका आश्रय-ग्रहण कर सुख-दुख की कथा उद्घाटित करती है। छत्तीसगढ़ी नारियों की पूर्व स्थिति अच्छी रही। मुस्लिम आक्रमण के फलत: समग्र देश के साथ छत्तीसगढ़ी नारियों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय हो गयी। अनेकानेक पंरपराओं और अंध-मान्यताओं में आबद्ध कर पुरूषों ने उनकी मान-मर्यादा को बचाने का प्रयास किया। तात्कालिक स्थिति से जूझने के लिए हिन्दु संस्कृ ति के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखने के लिए वह स्थिति उपयुक्त थी, लेकिन कालातंर में रूढ़ होकर वह नारी -बंधन और परतंत्रता का प्रतीक बन गयी, परिणामत: उसकी वाणी सुवा-गीतों से नि:सृत होने लगी।
मुस्लिम आक्रमण के फलत: बाल-विवाह का निर्धारण हुआ। भयवश लोगों ने बालिका को कुंवारी निर्दिष्ट न कर विवाहिता दिग्दर्शित कराया, जिससे मुस्लिम आक्रांताओं की कुदृष्टि से वे बच जावें। सती-प्रथा का महत्व प्रतिपादित हुआ। इसी तरह लोकाचार में अन्य विधियाँ जुड़ी, जो रूढ़ होकर नारियों को उन्मुक्त नहीं होने दे रही थीं। सुवा-गीतों के पर्यवेक्षण से एेसा प्रतित होता है,कि सुवा-गीत मुस्लिमों के अत्याचार के अंनतर नारियों की असहायता के फलत: नि:सृत रचना है। जिस तरह उद्धव के प्रहार से भ्रमर -गीत की सृष्टि हुई, उसी तरह मुस्लिम अत्याचार से सुवा-गीत फूट पड़े, ऐसा आभासित होता है। सुवा-गीत में उपलब्ध वातावरण भी सामंती संस्कृति को व्यक्त करते है, जहाँ पूंजीपतियों की भव्यता वर्णित है। असहायों के लिए सम्मान का भाव नहीं है। वे गरीबी, उत्पीडऩ व शोषण के शिकार है।
शब्द भी अपने उद्भाव की कथा कहते है। छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त 'जौहरÓ शब्द मुस्लिम काल का शब्द है, जो सती के 'जौहर का आनुनासिक व छत्तीसगढ़ी स्पांतरण है। जौहार में यदि नारी के विसर्जित होने का विकल्प संबोधन है, तो छत्तीसगढ़ी शब्द जौहर में भी सब-कुछ लूटने पर अभिहित छत्तीसगढ़ी जन की अभिव्यक्ति है। जौहार का अर्थ-विस्तार छत्तीसगढ़ संस्कृति से संपृक्ति का इतिहास संजाया हुआ है। छत्तीसगढ़ शब्द जौहर रायपुर के सत्ती बाजार और अनेक स्थलों पर अंचल की सती-चौतरा या यबूतरा इस प्रदेश की सती-प्रथा कीगौरवमयी परपंरा के सूचक है। इसके अतिरिक्त लोक-साहित्य तत्कालीन वातावरण के विविध पक्षों को उजागर करता है।
छत्तीसगढ़ में विवाह के बाद गौना की प्रथा है। मुस्लिम काल में विवाह तो मात्र औपचारिकता की पूर्ति का संयोजन था। छत्तीसगढ़ी नारी गौना होकर प्रथम बार ससुराल आयी है। उसका प्रिय कितना निष्ठुर व व्यवसायी है, कि जब तक प्रिया मायके में थी, वह परदेश नहीं गया और जब गौने के लिए आई है, वह उसी दिन परदेश के लिए प्रस्थित हो रहा है। नारी-मन चीत्कार उठता है-
पहिला गवन कर डेहरी बइठारे रे मोर सुवा, छाँडि़ के बजिन -चलि देय। इस लोकगीत को समीक्षक अकाल का आग्रह माने या गरीबी की भयावहता, लेकिन यह है-नारी के कोमल -कमनीय भाव से खिलवाड़ करने का सुंदर उदाहरण। यदि गरीबी थी, असहायता थी, तो गौना कराना व्यर्थ था। प्रिय मायके में रह लेती।
सुवा-गीतों में नारी की सौतिया डाह और इससे उत्पन्न हृदयगत मलीनता व घुटन का वर्णन समावेशित है। नारी पीडि़त है, त्रसित है, लेकिन वह सामंती संस्कार से संपृक्त भी है। सुवा उसका संदेशवाहक भी है, सखा भी । सुवा द्वारा उसके कार्य-संपादन पर उसके डैनों को मोतियों से सजाने तथा स्वर्ण की थाली में दूध-भात खिलाने की बात कहती है- मोती के झालर डेना गुथैंहौं रे मोरे सुवा, लाबे जब पिया के संदेस। सोने के थारी म जेवन जेवैहों रे मोरे सुवा, पैंया टेक रहौं हमेस। सुवा गीतों में टेक के रूप में प्राय: 'रे मोरेे सुवा Ó व 'न मोर सुवाÓ क्र मश:प्रथम व द्वितीय पंक्ति में समादृत होता है।
यह एक ओर जहाँ सुवा के प्रति आत्मीयता का सूचक है, वहीं दूसरी ओर उसके समझाने के लिए दुहराव-तिहराव का संयोजन भी। क्योंकि सुग्गा 'रटत विद्याÓ वाला, प्राणी है। उसे प्रत्येक बात को बार-बार समझाया जाता है। जहाँ उक्त टेक की संयोजना है, वहाँ सुवा के माध्यम से नारी का अप्रत्यक्ष आरोपण है किंतु जहाँ उक्त प्रकार की टेक-संयोजना लुप्त है, वहाँ अप्रत्यक्षत: नारी का सुख-दुख ध्वनित है। सुवा के माध्यम सेअपनी कथा कहने वाली नारी उबर कर व स्वच्छंद होकर जब स्पष्टवादिता का परिचय देती है तब उसका प्रखर स्वर मुखरित हो उठता है। स्पष्ट है कि मान-मर्यादा के लिए नारी सुवा को आरोपित करती है और उससे असंपृक्त होने पर निर्ममतापूर्वक अपनी बात कहती है। दोनों रूप सुवा-गीतों का वैशिष्ट्य है।
सुवा-गीत नारी के समवेत स्वर का नृत्य-गीत है, क्योंकि यहाँ एक नारी की जो स्थिति है, वह सभी में परिलक्षित होती है। खेत में नारियाँ आवृत्त बनाती हुई, सुग्गे की तरह फुदकती है, नत्र्तन नहीं करती । आधी महिलाएँ गीत उच्चरित करती है। एेसे समय में वे लगभग खड़ी स्थिति में दृष्टिगत होती है, अर्थात़ वे नारियाँ है, जो अपनी जीवन-कथा को प्रस्तुत करती है। आधा दुहराती है और सुग्गे की तरह फुदकती है, जो सुग्गे-रूप को उद्घाटित करती है। टोकनी में मिट्टी का सुग्गा मध्य मे अवस्थित है, जो इस बात का प्रतीक है कि मिट्टी का प्राणी भी अच्छा है ,यदि वह स्वच्छंद हो।
नारियाँ सुवा-गीत गा रही है। अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए वे तृप्ति का अनुभव-आस्वाद कर रही है। इसी बीच में निरखती है कि पक्षी फसल को खाने के लिए आ गये है। वे गीत-नृत्य का आनंद तजकर उन पक्षियेां का उड़ाना भी नहीं चाहती, लेकिन भय भी है ,कि नाच-गान से उन्हें क्षति होगी। आवृत्त का अर्धनारी-समुदाय गायन में मस्त है , उनका ध्यान इस ओर नहीं गया है ,किंतु जो फुदक रही है, वे इस स्थिति को देखकर गीत के लय में संगीत की ताल देने के लिए ताली उच्चरित करती है। गीत-नृत्य में संगीत की अभिनव सृष्टि जहाँ रस-बरसा देती है, वहीं पक्षियों को उड़ाकर निर्विघ्न गीत चालित होने का उपक्रम भी निवेदित करती है। स्पष्ट है, पहले गीत फूटे, फिर नृत्य जुड़ा और बाद में संगीत भी गुंफित हुआ।
प्रकृति से उद्भूत-प्रसूत सुवा-गीत नारी-जीवन से निनादित है। इसीलिए इसमें प्रकृति के साभिप्राय उपमान, प्रतीक व सटीक-सार्थक भाव उपलब्ध होते है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें सुग्गे की चोंच को वक्र कुंदरू फल कहा गया है। शरीर भुट्टै से विनिर्मित है, जिसमें मसूर की आँख शोभित है-चोंच तोर दिखत हे लाली कुंदरू रे सुवा मोर, आँखी दिखय मसुरी के दार। जोंघरी के पाना सांही डेना संवारे रे सुवा मोर, सुन लेबे बिनती हमार।
साभार रउताही 2014
पिंजरबद्ध सुग्गे की तरह छत्तीसगढ़ी नारियाँ भी बंधन-युक्त है। उन्हें उन्मुक्त गगन में विचरण करने के अवसर भी नहीं मिला, यही तो विवश है। इसीलिए नारियाँ अगले जन्म में नारी-योनि में अवतरित होने की पक्षधर नहीं। कारण यह स्थिति तो रस्सी में बंधे हुए उस गाय की तरह है, जो जिसके हाथों सौंप दी जाए, प्रस्थित होना पड़ता है-
पइँया मँय लागौ चंदा-सुरूज के रे सुवना, मोला तिरिया जनम झनि देय। तिरिया जनम मोर जनम के बैरी रे सुवना, जिहाँ पठवय, तिहाँ जाय।।
यदि जायसी का सुवा गुरू का प्रतीक है तो छत्तीसगढ़ी का सुवा विद्यार्थी का ,जिसका गुरू व सर्वज्ञ छत्तीसगढ़ी नारियॉं है, जो उन्हें समझातीं-पढ़ातीं व उनका आश्रय-ग्रहण कर सुख-दुख की कथा उद्घाटित करती है। छत्तीसगढ़ी नारियों की पूर्व स्थिति अच्छी रही। मुस्लिम आक्रमण के फलत: समग्र देश के साथ छत्तीसगढ़ी नारियों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय हो गयी। अनेकानेक पंरपराओं और अंध-मान्यताओं में आबद्ध कर पुरूषों ने उनकी मान-मर्यादा को बचाने का प्रयास किया। तात्कालिक स्थिति से जूझने के लिए हिन्दु संस्कृ ति के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखने के लिए वह स्थिति उपयुक्त थी, लेकिन कालातंर में रूढ़ होकर वह नारी -बंधन और परतंत्रता का प्रतीक बन गयी, परिणामत: उसकी वाणी सुवा-गीतों से नि:सृत होने लगी।
मुस्लिम आक्रमण के फलत: बाल-विवाह का निर्धारण हुआ। भयवश लोगों ने बालिका को कुंवारी निर्दिष्ट न कर विवाहिता दिग्दर्शित कराया, जिससे मुस्लिम आक्रांताओं की कुदृष्टि से वे बच जावें। सती-प्रथा का महत्व प्रतिपादित हुआ। इसी तरह लोकाचार में अन्य विधियाँ जुड़ी, जो रूढ़ होकर नारियों को उन्मुक्त नहीं होने दे रही थीं। सुवा-गीतों के पर्यवेक्षण से एेसा प्रतित होता है,कि सुवा-गीत मुस्लिमों के अत्याचार के अंनतर नारियों की असहायता के फलत: नि:सृत रचना है। जिस तरह उद्धव के प्रहार से भ्रमर -गीत की सृष्टि हुई, उसी तरह मुस्लिम अत्याचार से सुवा-गीत फूट पड़े, ऐसा आभासित होता है। सुवा-गीत में उपलब्ध वातावरण भी सामंती संस्कृति को व्यक्त करते है, जहाँ पूंजीपतियों की भव्यता वर्णित है। असहायों के लिए सम्मान का भाव नहीं है। वे गरीबी, उत्पीडऩ व शोषण के शिकार है।
शब्द भी अपने उद्भाव की कथा कहते है। छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त 'जौहरÓ शब्द मुस्लिम काल का शब्द है, जो सती के 'जौहर का आनुनासिक व छत्तीसगढ़ी स्पांतरण है। जौहार में यदि नारी के विसर्जित होने का विकल्प संबोधन है, तो छत्तीसगढ़ी शब्द जौहर में भी सब-कुछ लूटने पर अभिहित छत्तीसगढ़ी जन की अभिव्यक्ति है। जौहार का अर्थ-विस्तार छत्तीसगढ़ संस्कृति से संपृक्ति का इतिहास संजाया हुआ है। छत्तीसगढ़ शब्द जौहर रायपुर के सत्ती बाजार और अनेक स्थलों पर अंचल की सती-चौतरा या यबूतरा इस प्रदेश की सती-प्रथा कीगौरवमयी परपंरा के सूचक है। इसके अतिरिक्त लोक-साहित्य तत्कालीन वातावरण के विविध पक्षों को उजागर करता है।
छत्तीसगढ़ में विवाह के बाद गौना की प्रथा है। मुस्लिम काल में विवाह तो मात्र औपचारिकता की पूर्ति का संयोजन था। छत्तीसगढ़ी नारी गौना होकर प्रथम बार ससुराल आयी है। उसका प्रिय कितना निष्ठुर व व्यवसायी है, कि जब तक प्रिया मायके में थी, वह परदेश नहीं गया और जब गौने के लिए आई है, वह उसी दिन परदेश के लिए प्रस्थित हो रहा है। नारी-मन चीत्कार उठता है-
पहिला गवन कर डेहरी बइठारे रे मोर सुवा, छाँडि़ के बजिन -चलि देय। इस लोकगीत को समीक्षक अकाल का आग्रह माने या गरीबी की भयावहता, लेकिन यह है-नारी के कोमल -कमनीय भाव से खिलवाड़ करने का सुंदर उदाहरण। यदि गरीबी थी, असहायता थी, तो गौना कराना व्यर्थ था। प्रिय मायके में रह लेती।
सुवा-गीतों में नारी की सौतिया डाह और इससे उत्पन्न हृदयगत मलीनता व घुटन का वर्णन समावेशित है। नारी पीडि़त है, त्रसित है, लेकिन वह सामंती संस्कार से संपृक्त भी है। सुवा उसका संदेशवाहक भी है, सखा भी । सुवा द्वारा उसके कार्य-संपादन पर उसके डैनों को मोतियों से सजाने तथा स्वर्ण की थाली में दूध-भात खिलाने की बात कहती है- मोती के झालर डेना गुथैंहौं रे मोरे सुवा, लाबे जब पिया के संदेस। सोने के थारी म जेवन जेवैहों रे मोरे सुवा, पैंया टेक रहौं हमेस। सुवा गीतों में टेक के रूप में प्राय: 'रे मोरेे सुवा Ó व 'न मोर सुवाÓ क्र मश:प्रथम व द्वितीय पंक्ति में समादृत होता है।
यह एक ओर जहाँ सुवा के प्रति आत्मीयता का सूचक है, वहीं दूसरी ओर उसके समझाने के लिए दुहराव-तिहराव का संयोजन भी। क्योंकि सुग्गा 'रटत विद्याÓ वाला, प्राणी है। उसे प्रत्येक बात को बार-बार समझाया जाता है। जहाँ उक्त टेक की संयोजना है, वहाँ सुवा के माध्यम से नारी का अप्रत्यक्ष आरोपण है किंतु जहाँ उक्त प्रकार की टेक-संयोजना लुप्त है, वहाँ अप्रत्यक्षत: नारी का सुख-दुख ध्वनित है। सुवा के माध्यम सेअपनी कथा कहने वाली नारी उबर कर व स्वच्छंद होकर जब स्पष्टवादिता का परिचय देती है तब उसका प्रखर स्वर मुखरित हो उठता है। स्पष्ट है कि मान-मर्यादा के लिए नारी सुवा को आरोपित करती है और उससे असंपृक्त होने पर निर्ममतापूर्वक अपनी बात कहती है। दोनों रूप सुवा-गीतों का वैशिष्ट्य है।
सुवा-गीत नारी के समवेत स्वर का नृत्य-गीत है, क्योंकि यहाँ एक नारी की जो स्थिति है, वह सभी में परिलक्षित होती है। खेत में नारियाँ आवृत्त बनाती हुई, सुग्गे की तरह फुदकती है, नत्र्तन नहीं करती । आधी महिलाएँ गीत उच्चरित करती है। एेसे समय में वे लगभग खड़ी स्थिति में दृष्टिगत होती है, अर्थात़ वे नारियाँ है, जो अपनी जीवन-कथा को प्रस्तुत करती है। आधा दुहराती है और सुग्गे की तरह फुदकती है, जो सुग्गे-रूप को उद्घाटित करती है। टोकनी में मिट्टी का सुग्गा मध्य मे अवस्थित है, जो इस बात का प्रतीक है कि मिट्टी का प्राणी भी अच्छा है ,यदि वह स्वच्छंद हो।
नारियाँ सुवा-गीत गा रही है। अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए वे तृप्ति का अनुभव-आस्वाद कर रही है। इसी बीच में निरखती है कि पक्षी फसल को खाने के लिए आ गये है। वे गीत-नृत्य का आनंद तजकर उन पक्षियेां का उड़ाना भी नहीं चाहती, लेकिन भय भी है ,कि नाच-गान से उन्हें क्षति होगी। आवृत्त का अर्धनारी-समुदाय गायन में मस्त है , उनका ध्यान इस ओर नहीं गया है ,किंतु जो फुदक रही है, वे इस स्थिति को देखकर गीत के लय में संगीत की ताल देने के लिए ताली उच्चरित करती है। गीत-नृत्य में संगीत की अभिनव सृष्टि जहाँ रस-बरसा देती है, वहीं पक्षियों को उड़ाकर निर्विघ्न गीत चालित होने का उपक्रम भी निवेदित करती है। स्पष्ट है, पहले गीत फूटे, फिर नृत्य जुड़ा और बाद में संगीत भी गुंफित हुआ।
प्रकृति से उद्भूत-प्रसूत सुवा-गीत नारी-जीवन से निनादित है। इसीलिए इसमें प्रकृति के साभिप्राय उपमान, प्रतीक व सटीक-सार्थक भाव उपलब्ध होते है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें सुग्गे की चोंच को वक्र कुंदरू फल कहा गया है। शरीर भुट्टै से विनिर्मित है, जिसमें मसूर की आँख शोभित है-चोंच तोर दिखत हे लाली कुंदरू रे सुवा मोर, आँखी दिखय मसुरी के दार। जोंघरी के पाना सांही डेना संवारे रे सुवा मोर, सुन लेबे बिनती हमार।
साभार रउताही 2014
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