लोक संगीत
साहित्य संगीत, कला विहन:साक्षात पशु पुच्छ विवान हीन:।
तृण न खादन्नपति जीव मान:
स्तद भाज धेयं परमं पशु नाम:।।
साहित्य संगीत और कला में से यदि कोई भी एक को चुनकर उस पर जो अमल करता है। वही एक जीवंत मनुष्य है। वही एक समाज का सही चित्रकार है। कलाकार है। कला क्या है वही जो समाज या देश में दिनरात घटित होता है जिसकी छाप कलाकार समाज के सामने नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करता है।
प्रबुद्ध मनुष्य बीते दिनों के अनुभव को स्वांग रचाकार प्रस्तुत करना ही लोक कला है। लोक कला वह कला है जो किसी खास स्थान, देश एवं वातावरण की उपज है। यानी किसी खास स्थान पर मनुष्य जो मनोरंजन के लिए अपनाता है जो खास-तीज त्यौहारों में जो वस्तुएं अपनाता है। व्यवहार में लाता है उसे यथावत करने के लिए जो उपक्रम किया, करके प्रस्तुत करने के तरीका को ही लोक कला कहते हैं।
देश प्रांत विभिन्न स्थानों में बटा हुआ है। वे अपनी-अपनी संस्कृति की अलग-अलग पहचान बना चुके हैं। उन्ही संस्कृति वालों ने अलग-अलग कथा का नाम दिया है जैसे कि अहीर नृत्य, राउत नाचा, पंथी नृत्य, भरथरी गायन, पंडवानी, पंथी, सुआ गीत, ददरिया, गीत, लोरिक चंदा आदि। बल्कि यों कहें कि लोक गीतों को दो भागों में बांटा जा सकता है नारी वर्ग में और पुरुष वर्ग में।
नारी वर्ग के हिस्से में जन्म और विवाह नृत्य गीत में सुआ, भोजली गीत में और गौरा अन्य गीतों में ददरिया लोरी इसी तरह पुरुष वर्ग के लिए भी गीतों का वर्गीकरण है जैसे कि नृत्य गीत में डंडा, कर्मा, मड़ई, फडी और रास। जातिय गीत भी एक वर्गीकरण की देन है वह बांस गीत, डंडागीत, देवार कहलाता है। धार्मिक गीतों की तो कमी नहीं है। भजन जवारा, पंडवानी, भरथरी आदि सामाजिक गीत में बारह मासा जो बारहों महीनों में अलग-अलग गाये जाते हैं।
गीत हृदय की आवाज है। वह कभी भी किसी रुप में हृदय से फूट पड़ता है यह परिस्थिति एवं वातावरण के ऊपर निर्भर करता है। गीतों में बीतते जीवन की मौलिकता झलकती है। इसमें सामाजिक, पारिवारिक एवं स्वयं के जीवन दर्शन झलकता है इसे ही लोक रंग, लोककला एवं लोक साहित्य में प्रस्तुत करते हुए देखते है। लोक गीतों में हमारे समय में जीवन कैसे बिता किस अभाव में बिता किन-किन अन्यायी, वीर एवं दानी राजाओं ने क्या किया झलक मिलती है जैसे कि श्रीराम थे जिन्होंने अपना जीवन एवं मां सीता का जीवन कैसे आपातकालीन समय में बिताया पढऩे को मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण अपनी पौरुषता से कैसे-कैसे दुर्दान्त राक्षसों का संहार किये पंडवानी गायन से साफ झलक मिलती है।
एक तरफ जब मां सीता को रावण अपहरण कर ले चलता है तो जटायु रावण से भिड़ जाता है और घायल होकर कराहता रहता है उसी क्षण श्रीराम लक्ष्मण खोजते-खोजते मिलते हैं जो सारा वृतांत जटायु सुना डालता है, श्री राम बहुत दुखी होते हैं तभी उनकी हालत विचलित करने वाली हो जाती है और वातावरण रो उठता है और हाय सामने उभर उठता है। भावनाएं मां सीता के प्रेम में कारुणिक हो उठता है और इनकी आंखों से आंसू झलक कर सीता के प्रति दर्द निकलने लगता है और उसी के प्रति ये गीत निकल पड़ता है।
खोजते चहूं दिशि धाय, राम लक्ष्मण सिया को।
कोई बता दे कौन छुपाये, सुकुमारी सिया को।।
क्या तुमने देखा है लताओं, हे तरुवर वृंद बताओ।
है निशानी कोई तो बताओ आए शांति जिया को।।
सुनो सुनो हे तोता मैना सुना है किसी का बिलखना।
तू क्यों नयनों से नीर बहाये जो देखा जनक सुता को।।
कैसे पुरुष हूं अपने युग का रक्षा कर न सका भार्या की
क्या भालू, शेर गए खाये मृग नयनी सिया को।
हे लक्ष्मण जा ढूंढ के लाओ आग विरह में मत पड़पाओ
क्या दूंगा अब तुम ही बताओ जब पूछेंगी मैया को।
जब रोते-रोते हो गये व्याकुल तो ये चराचर भी भये आकुल
दिये लक्ष्मण ने ढांढस बंधाये लाउंगा खोज माता को
रोते देख विरह वनवासी पक्षी वानर रीक्ष और न्यासी
बोले नीचे शीश नवाये न रहेंगे दुख ये सदा को
सोचे गुमानी जग की माता को भी रो रहे हैं संग में भ्राता
जैसे गंगा नीर बहाये कर याद अपनी प्रिया को।।
इनके दुख दर्द को देख आज भी इस छत्तीसगढ़ में एक ऐसा समाज है जो इनकी याद में पूरे शरीर पर गोदन लिखवाते हैं जिन्हें रामनामी समाज कहा जाता है ये आज भी रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा, रायगढ़, बलौदाबाजार, के तीन सौ गांवों में निवास करते हैं। इसी तरह श्री कृष्ण भगवान की भी कथा है जो चारों तरफ बिखरी पड़ी है। पूरा भारत उनके रंग में डूबा हुआ है। जहां भी जाये मथुरा, वृंदावन, गोकुल, द्वारिका आपको कृष्ण ही कृष्ण दिखेंगे। जब वे मथुरा में थे जरासंध कुछ न कुछ दिनों पर चढ़ाई किया करता था जरासंध को मथुरा के जनता से बैर नहीं था बल्कि श्री कृष्ण से था क्योंकि अपराधी, पापी कंस, जरासंध के दामाद को मारे थे। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा छोड़ देना ही उचित समझा जिससे वहां की जनता सुखी रहे। परन्तु वहां से जाने के बाद उनका नाम रणछोड़ भगवान पड़ गया। जब कृष्ण भगवान का जन्म हुआ तो उनको देखने आने को देवी-देवताओं आने लगे भगवान शंकर से भी नहीं रहा गया और योगी के वेश में माता यशोदा के घर पहुंच गए। जिन्हें देखकर माता यशोदा बड़ी खुश होकर दान दिया करती थी-
भोले-भोले बाबा नाचे हमार अंगना।
मोतियन थाल लाई मैया यशोदा
लेलो भिक्षा योगी चाहे मन का सोना
या चाहो सो मांगो कंगना ही कंगना
भोले भाले बाबा नाचे हमार अंगना।।
नंद का छौना बड़ मन मोहना
जरा दरस दिखाई दो लगाई के डिठौना
प्रभु दरस दिखाई देख दरस भी लीना
भोले भाले बाबा नाचे हमार अंगना।
राई नमक डारे यशोदा बारम्बार
एवं सब देवता को गुहारे हर बार
सब देवता आगे यशोदा अंगना।
इसी तरह लोकगीत परम्परा चले आ रहा है। लोकगीत अधिकतर जन बोली में हुआ करता है। आज वही लोकगीत भाषायी गीतों में परिवर्तित हो रहा है जो परम्परा को तोड़ते हुए छोड़ते हुए आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है और बढ़ेगा ही और बढऩा भी चाहिए। पहले लोगों का धोती-कुर्ता ही पहनना एक सर्वोत्तम परिधान माना जाता था परन्तु आज सर्वोत्तम परिधान कोट, पैन्ट एवं शूट माना जाता है। पहले शादी-विवाह में शेरवानी, अचकन टोपी पहनी जाती थी आज सब भूल रहे हैं यहां तक कि बच्चे-बच्चियां जींस, पैंट शर्ट ही पहनना बेहतर समझते है और पहनते भी हैं तो क्यों न लोक गीत छोड़कर खड़ी हिन्दी के गीत गायें। आधुनिकता अपनाना किस बात की बुराई है। यहां पर दूसरे को उपदेश तो दे डालते हैं पर स्वयं चलकर तो बतायें। कहते हैं-
कथनी मीठी खाड़ यी करनी विष को लोये।
कथनी तज करनी करे विष से अमृत होय।
दूसरों को शिक्षा देना आसान है क्योंकि वह दूसरों के लिए है वही शिक्षा अपने पर लागू करे तब जाने। वैसे ही लोक गीत, लोक कला जो समय की मांग थी उस समय के लिए ठीक था और अभी भी है कि हम क्या थे और क्या हैं? और आगे चलकर हम क्या होंगे हमारी कथा कलाओं में गीतों में क्या-क्या परिवर्तन होंगे? जो समय की मांग ही दर्शाएगा। क्योंकि
चलं चितं चलं वितं चले जीवित यौवने।
चला चले ही संसारे धर्म एको निश्चल
परिवर्तन ही उन्नति का कारण होता है और वह इसी बातों से पता चलता है जैसे कि, लुगड़ा मा लागे हवा बलम
बोल बॉटम सिला देवे।
साभार रऊताही 2015
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