Tuesday, 27 September 2011

यादव समाज में फूट डालने से रोकने सलवा जुडूम अभियान-यदु

मुंगेली. गौ हत्या बंद होना चाहिए अभी प्रतिमाह लगभग 1$50 गायें छत्तीसगढ़ से बूचड़ खाना चोरी छिपे ले जायी जा रही है.  यादवों की पारंपरिक कला रावत नाच एवं बांस गीत के लिए छ$ग$ शासन की आेर से पुरस्कारों की घोषणा कर इन कलाआें को विलुप्त होने से रोका जा सकता है.  ये बातें पत्रकारों से बातचीत में गौसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं यादव समाज के प्राताध्यक्ष रमेश यदु ने कही.
यदु ने अपने एक दिवसीय मुंगेली प्रवास के दरम्यान एक पत्रकार वार्ता में यादव समाज छत्तीसगढ़ संगठन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यादव समाज का यही ध्येय है कि छत्तीसगढ़ के समस्त यादवों का चहुमखी विकास को परिभाषित करते हुए श्री यदु ने कहा कि जनसंख्या के अनुपात में यादवों को एक बहुत बड़ा वोट बैंक माना जाता है किंतु उन्हें मूलभूत उनकी
आवश्यकताआें के अनुसार शासन द्वारा प्राथमिकता नहीं दी जा रही है जिसमें
यादव जाति अपने पैतृक व्यवसाय पशुपालन एवं दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में
पिछड़ गया है जिसमें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता में कमजोरी देखी जा रही
है.
श्री युद ने कहा कि यादव समाज का यह मानना है कि जैसे अन्य जातियों में
जिसमें प्रमुख रूप से केंवट, बुनकर, धोबी, नाई, मरार, बसोंड़, आदि अन्य
जाति है. जिन्हें राज्य सरकार ने आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए
प्राथमिकता पूर्ण व्यवसाय में रियायत एवं उनकी सुविधाएं विशेष तौर पर प्रदान
की है.  श्री यदु ने पत्रकारों के यह पूछे जाने पर कि यादवों के लिए शासन से
वे किस तरह की सुविधएं चाहते हैं.  इस पर श्री यदु ने कहा कि यादव समाज
के उत्थान के लिए तीन सूत्रीय मांग राज्य सरकार के समक्ष रखी गई है जिसमें
मुख्य रूप से वनांचल क्षेत्र वर्षों से निवासरत् यादवों को उनके कब्जा भूमि का
पट्टा, डेयरी उद्योग को प्राथमिकता के आधार पर यादव समाज को प्रदान करते
हुए दिए गए ऋण पर 50 प्रतिशत की छूट तथा चरवाहों को कोटवारों के
समकक्ष सुविधा शामिल है.  शासन से मांग की गई है अगर शासन उपरोक्त
मांगों को पूर्ण नहीं करती है तो उस स्थिति में आगामी 23 दिसंबर 2011 को
छ$ ग. के सभी जिला मुख्यालयों पर यादव संघटन द्वारा सांकेतिक  रूप से एक
दिवसीय धरना माध्यम से छ$ ग$ शासन के मुख्यमंत्री जी के नाम ज्ञापन संबंधित
जिल के जिला कलेक्टरों को सौंपा जावेगा.
पत्रकारों ने पूछा कि समाज के द्वारा शासन से मांगी गई मांगें का क्या पर्याप्त
है? के जवाब में श्री यदु ने कहा कि यादव जाति की 70 प्रतिशत आबादी
वनांचल क्षेत्र में निवास करती है जिनके समक्ष भू अधिकार की भयावह
समस्या है.  दूसरा दुग्ध एवं पशुपालन व्यवसाय में दिए जाने वाले ऋण की
प्रक्रिया कठिन होने के साथ रियायत में भी बहुत कम है.  हम चाहते है कि
यादवों को हम से कम इस व्यवसाय में पूर्ण प्राथमिकता देने के साथ ही उनके
लिए नई योजना का निर्माण किया जाना चाहिए.
समाज में व्याप्त अशिक्षा के प्रश्न में कहा कि पहले की अपेक्षा समाज में
जागृति आई है लोगो में अपने बच्चों को शिक्षित करने रूचि देखी जा रही है.
राजनीतिक क्षेत्र में अपेक्षा से कम यादवों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर श्री यदु
ने कहा कि हमारा प्रतिनिधित्व नि:संदेह जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम है
किन्तु नेतृत्व क्षमता का अभाव यादवों में नही है.  सभी राजनीतिक दलों में
प्रतिभाशाली, योग्य यादव नेता है किन्तु उनका स्तेमाल राजनेता अपनी रोटी
सेंकने के लिए करते है.  वहीं यादवों की एकजुटता में फूट डालकर उन्हें
राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने से रोकते है.
श्री यदु ने कहा कि इसी विसंगति को समाप्त करने के लिए यादव में भी
सलवा जुडूम अभियान चलाया जा रहा है जिसका आने वाले समय मेें एक
अच्छा परिणाम देखने को मिलेगा. अंत में यदु ने बताया कि यादव समाज के
संरक्षक के रूप में हमें अनुभवी व्यक्ति बिसरा राम यादव प्रांत संघ चालक
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा हैै. वहीं साथ-साथ छ$
ग$ शासन के जल संसाधन मंत्री हेमचंद यादव व राजनांदगांव लोकसभा के
युवा विधायक मधूसूदन यादव का भी यादव समाज छ$ ग. को महती योगदान
मिल रहा है.

Thursday, 22 September 2011

Aashish Kumar Yadav
ImliBhata Bandhwapara Sarkanda Bilaspur (C.G.)
Mob. +9108085388489
Worked At- Student- Higher Secoandary




Tuesday, 13 September 2011

जन्माष्टमी पर सर्व यादव समाज की शोभायात्रा एवं आमसभा

बिलासपुर. सर्व यादव समाज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव समिति ने पुन:
हजारों युदवंशियों की उपस्थिति में नयनाभिराम झांकी सहित शोभायात्रा गांधी पुतला, दयालबंद से निकाली. इस अवसर पर समिति के संरक्षक एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष समाज के शिखर पुरूष बी.आर. यादव ने गरुड़ ध्वज लहराकर
शोभायात्रा की बाईक रैली को प्रारंभ किया. शोभायात्रा में सबसे पहले रथ पर
बैठकर कृष्ण-अर्जुन की जीवंत झांकी पश्चात् अम्बे लहरी बाल अखाड़ा,
उसके पीछे गरुड़ ध्वज लहराते हजारों की संख्या में शौर्य प्रदर्शन करते हुए
यदुवंशियों का कवर्धा, पण्डरिया, लोरमी, सीपत, बिल्हा, तखतपुर आदि से
पधारे समूह अपने रंग में बाजे गाजे सहित नृत्य करते हुए चल रहे थे. जूना
बिलासपुर हटरी चौक, शनिचरी चौक से गोल बाजार का भ्रमण करके
शोभायात्रा दीक्षित सभा भवन पहुंची जहां स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के
मुख्य आतिथ्य में बी.आर. यादव की अध्यक्षता, राजू सिंह क्षत्री विधायक
तखतपुर एवं संतोष कौशिक जिला पंचायत सदस्य के विशिष्ट आतिथ्य में
आमसभा का आयोजन हुआ. भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा पर दीप प्रज्जवलन
सहित पूजा-अर्चना पश्चात अतिथियों का स्वागत समिति एवं समाज के
विशिष्टजनों द्वारा किया गया. अपने स्वागत संबोधन में समिति के अध्यक्ष
बुधराम यादव ने इस जन्मोत्सव आयोजन के निहितार्थ पर कहा कि समता,
स्नेह, समर्पण सहित अपनी परम्परा और मूल से जुड़े रहने का एक समर्थ और
प्रेरक प्रदर्शन है. मुख्य अतिथि श्री अग्रवाल ने कहा कि जहां ज्ञान और विज्ञान की पहुंच
समाधान पाने असमर्थ होती है वहीं परम शक्ति की उपस्थिति दर्ज होती है.
श्रीकृष्ण, राम, शिव, दुर्गा आदि इसी का प्रतिकात्मक स्वरूप है.
अध्यक्ष बी.आर. यादव ने कहा कि यादव समाज समय के अनुकूल विकास
की गति में ढलने प्रयासरत है. यह आयोजन उसका प्रेरक स्वरूप है. विशिष्ट
अतिथि श्री क्षत्री ने कहा कि यादव समाज प्रारंभ से एक शक्तिशाली समाज है
आज भी निरंतर बेहतर कुछ करने के लिये संकल्पबद्ध है. मैं इस समाज के
बीच अपने को पाकर हमेशा गर्व महसूस करता हूं. जिला पंचायत सदस्य
संतोष कौशिक ने कहा कि यादव समाज धन्य है जिस वंश में भगवान श्रीकृष्ण
अवतरित हुए यह आयोजन उस युगबोध का संदेश है. इस अवसर पर समाज
के विशिष्ट और वरिष्ठजनों का समिति ने अतिथियों के हाथों शाल, श्रीफल
और प्रतीक चिन्ह भेंटकर अभिनंदन किया. जिनमें सर्वप्रथम रमाशंकर यादव
से.नि. तहसीलदार, तुलाराम यादव, तिजऊराम यादव, गणेशराम यादव,
फेकूराम यादव, भंजन यादव, सिद्धाम यादव, लोरमी परिक्षेत्र नाथूराम यादव,
कुण्डा, कवर्धा, श्रीमती सरिता प्रकाश यादव पार्षद बिलासपुर थे.
आयोजन को सफल बनाने में समिति के चंद्रिका यादव, नंदकुमार यादव,
मनीराम यादव, श्रीराम यादव, दिनेश यादव, कृष्ण कुमार यादव, इं. रामलाल
यादव, अभिमन्यु यादव, सतीश यादव, परसादी यादव, भागीरथी यादव,
किशोर यादव, गिरीश यादव, विनोद यादव एवं सभी पदाधिकारीगण और
सदस्य लेग रहे.

Sunday, 11 September 2011

डॉ. यादव को प्रतिभा सम्मान

बिलासपुर. पथ शिक्षण समिति के तत्वावधान में बिलासा कला मंच के संस्थापक डॉ. सोमनाथ यादव को उनके उल्लेखनीय कार्यो पर विशिष्ट प्रतिभा सम्मान देकर अभिनंदन किया गया. डॉ. यादव का अभिनंदन विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने शाल, श्रीफल, स्मृति चिन्ह व अभिनंदन पत्र भेंट कर किया. श्री कौशिक ने डॉ. यादव द्वारा किए गए विभिन्न कार्यों की प्रशंसा की.

Friday, 9 September 2011

छत्तीसगढ़ की लोकगाथा-लोरिक चंदा - डा. सोमनाथ यादव


छत्तीसगढ़ी लोक-साहित्य की विधाओं में लोकगाथाओं का प्रमुख स्थान है, गाथाओं का रचना काल 1100 से 1500 तक माना गया है, अतः छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं में मध्य युगीन स्थितियों का ही चित्रण मिलता है, इससे वर्णित घटनाओं के आधार पर ही इतिहासकारों ने छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं का निर्माण काल मध्ययुग माना है, इसी काल में अनेक छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं की रचना हुई तथा आज भी ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही है,
       छत्तीसगढ़ की लोकगाथाओं के पात्र-प्रायः आदर्श के प्रतीक और लोकार्थ ’’सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ को निनादित करते हैं। आंचलिक चरित्र-सृष्टि-रंजित पात्र प्रायः जातीय गौरव और अंचल को महिमा मंडित करते हैं। अन्य लोकगाथाओं को छत्तीसगढ़ी लोकगाथाकार तभी अपनाता है, जब वह उसे अपने परिवेश व मानसिकता के अनुरूप उचित प्रतीत पाता है। लोकगाथाकार अपनी रूचित और युग के अनुसार उसमें परिवर्तन-परिवर्धन करता चला जाता है जिसमें संगीत की विविधता, नृत्य की आंशिक छटा और भाव-प्रणवता का त्रिकोणात्मक रूप उपलब्ध होता है। ’’छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं में अलौकिकता, आंचलिक देवी-देवता, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, टोटका आदि विविध रूप मिलते हैं। लोक गाथाओं की प्रवृत्ति एवं विषय की दृष्टि से डा. नरेन्द्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं का 3 भागों में वर्गीकारण किया है- प्रेम प्रधान गाथाएं, धार्मिक एवं पौराणिक गाथाएं तथा वीरगाथाएं। छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं के अंतर्गत लोरिक चनैनी की गाथा अधिक प्रचलित है। छत्तीसगढ़ी गद्य में इसकी कथा को सर्वप्रथम सन् 1890 में श्री हीरालाल काव्योपध्याय ने चंदा के कहानी के नाम से प्रकाशित किया था। वही बेरियर एल्विन ने सन् 1946 में लोेकगाथा के छत्तीसगढ़ी रूप को अंग्रेजी में अनुवाद करके अपने ग्रंथ फोक सांग्स आफ छत्तीसगढ़ में उद्भूत किया है।
       लोरिक चंदा निश्चित रूप से ऐतिहासिक पात्र है। इस तथ्य के प्रमाण में यह तर्क दिया जा सकता है कि लोक में रचे-बसे होने के कारण और छत्तीसगढ़ में इसकी गाथा और स्थान नामों के संदर्भ में लोकमानस आस्थावान है। ऐसा लगता है इसकी मूलकथा और घटना-प्रसंग छत्तीसगढ़ की ही है। मैं जब इस लोकगाथा के संकलन-संपादन के मध्य अन्वेषण-यात्रा में संलग्न था, तब लोकगाथा गायकों के अतिरिक्त अनेक लोकसाहित्य-मर्मज्ञों, लोककलाकारों ने यह राय दी कि रायपुर जिलांतर्गत आरंग एवं रींवा और उसके मध्य की लीलाभूमि ’’लोरिक चंदा’’ के प्रेम प्रसंग की साक्षी है। वास्तव में स्थान-नाम में निहित घटना-कथा ही जनश्रुति और लोककथा बनकर लोकमानस में प्रचलित और प्रतिष्ठित होती है। इसे इतिहास ना मानकर केवल कल्पना की सामग्री समझना गलत है। जिस तथ्य को लोग अनेक पीढ़ियों से मान रहे है और युग उसे गाथा-रूप में स्वीकृत कर रहे हैं। वह लोकगाथा अथवा साहित्य कदापि भ्रामक नहीं हो सकता। वास्तव में लोरिक चंदा की गाथा छत्तीसगढ़ी लोकमानस के लिए वह प्रेरक प्रसंग है जिसे चमत्कार बुद्धि का पुट देकर अलौकिक बनाया गया है।
       लोरिक और चंदा की कहानी लोकगीत के मादक स्वरों में गूंथी हुई है जिसे अंचल के लोग ’’चंदैनी’’ कहते है। चंदैनी से पता चलता है कि रींवा लोरिक का मूल गांव था या कम से कम इस गांव से उसका गहरा संबंध था। चंदैनी का एक टुकड़ा ही प्रमाण स्वरूप है-
बारह पाली गढ़ गौरा, सोलह पाली दीवना के खोर
अस्सीपाली पाटन, चार पाली गढ़ पिपही के खोर
चंदैनी लोकगीत नाट्य ही लोरिक चंदा और रींवा के गहरे संबंध का पुखता ऐतिहासिक प्रमाण है। अगर गहरी पुरातात्वीय पड़ताल हो तो संभव है और प्रमाण मिले। अस्तु यह निश्चिित है रींवा लोरिक नगर था। लोकगीतात्मकता प्रणय गाथा चंदैनी तथा कुछ और माध्यमों से इतिहास के जो पन्ने खुलते है, उनके अनुसार-वर्तमान मे आरंग विकासखंड मुख्यालय है। यह रायपुर जिले के तहत है और राजमार्ग क्रमांक छह पर स्थित है। इसके नामकरण के संबंध में यह जनयुक्ति प्रचलित है कि यह राजा मोरध्वज का नगर था। उनकी भगवान श्रीकृष्ण ने परीक्षा ली थी। इस महादानी राजा ने भगवान और उनके साथ आये भूखे शेर को जो छद्म रूप था- अपना पुत्र ही दान कर दिया गया। राजा ने अतिथियों के मांग पर स्वयं अपनी धर्मपत्नी सहित पुत्र को आरे से चीरकर उसका भोजन बनाया। चूंकि आरे से राजा  मोरध्वज को अपने पुत्र को चीरना पड़ा था, अतएव उसी वक्त इस नगर का नाम ‘‘आरंग’’ पड़ा। मगर लोरिकचंदा की कथा के अनुसार आरंग का पूर्वनाम ‘‘गढ़गौरा’’ था, यहां राजा महर का राज्य था। राजा महर के चार पुत्र क्रमशः इदेचंद्र, बिदेचंद, महादेव और सहदेव थे। राजा की एकमात्र पुत्री चंदा थी जो सबकी लाडली थी। ग्राम रीवां गढ़गोरा के राजा महर के अधीन था। चूंकि रींवा आरंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, अतएव यह संभव प्रतीत होता है।
         कथानुसार एक रोज पनागर नामक राज्य से बोड़रसाय अपनी पत्नी बोड़नीन तथा भाई कठावत और उसकी पत्नी खुलना के साथ गढ़गौरा अर्थात् आरंग आयें। उन्होंने राजा महर को एक ‘‘पॅंड़वा’’ (भैंस का बच्चा) जिसका नाम सोनपड़वा रखा गया था, भेंट किया, इस भेंट से राजा महर अति प्रसन्न हुए और बोड़रसाय को बदले में रीवां राज्य दे दिया। बोड़रसाय राऊत अपने परिवार सहित रींवा राज्य में राज करने लगा। इसी बोड़रसाय का एक पुत्र था- बावन और सहोदर का पुत्र था-लोरिक। संयोग की बात है कि राजा महर की लाडली बेटी और बोड़रसाय का पुत्र बावन हम उम्र थे। राजा महर ने बावन की योग्य समझकर चंदा से उसका विवाह कर किया, पर कुछ समय व्यतीत हो पाया था कि बावन किसी कारणवश नदी तट पर तपस्या करने चला गया (संभवतः बावन निकटस्थ महानदी पर तपस्थार्थ गया हो) उधर राजा महर का संदेश आया कि चंदा का गौना करा कर उसे ले जाओ। इस विकट स्थिति में राजा बोड़रसाय को कुछ सूझ नहीं रहा था। अंततः इस विपदा से बचने का उन्हें का ही उपाय नजर आया। लोरिक, जो कि बावन का चचेरा भाई था, दूल्हा बनाकर गौना कराने भेज दिया। लोकगीत नाट्य चंदैनी में लोरिक का रूप बड़ा आकर्षण बताया गया है। लोरिक सांवले बदन का बलिष्ठ शरीर वाला था। उसके केश घुंघराले थे, वह हजारों में अलग ही पहचाना जाता था। लोरिक गढ़गौरा चला गया और सभी रस्मों को निपटाकर वापसी के लिए चंदा के साय डोली में सवार हुआ। डोली के भीतर जब चंदा ने घूंघट हटाकर अपने दूल्हे को निहारा तो उसके रूप में एक अज्ञात व्यक्ति को देखकर वह कांप उठी। चंदा इतनी भयभीत हो गई कि वह तत्क्षण डोली से कूदकर जंगल की ओर भाग गयी। लोरिक भी घबरा गया और चंदा के पीछे भागा। उसने चंदा को रोका और अपना परिचय दिया। अब जब संयत होकर चंदा ने लोरिक को देखा, तब वह उस पर मुग्ध हो गयी। लोरिक सीधे उसके मन में समाता चला गया। लोरिक का भी लगभग यही हाल था। यह चंदा के धवल रूप को एकटक देखता रहा गया। दोनों अपनी समस्या भूलकर एक-दूसरे के रूप-जाल में फंस गये। वही उनके कोमल और अछूतेे मन में प्रणय के बीच पड़े। दोनों ने एक दूसरे से मिलने का और सदा संग रहने का वचन किया।
          लोरिक चंदा में महाकाव्य-सदृश मंगलाचरण से गाथा का प्रारंभ होता है। कवि इस लोकगाथा के माध्यम से सरस्वती और उसकी बहन सैनी का स्मरण करते है। उनके अनुसार सरस्वती को नारियल और गुड़ तथा सती सैनी को काजल की रेख भेंट करेगा-
सारद सैनी दोनों बहिनी ये रागी,
नइते कउन लहुर कउन जेठ
कौन ला देवउ मेहा गुड़ अउ नरियर
कोने काजर के रेख
मइया ल देवंव मेहा गुड़ अउ नरियर
सति काजर के रेख।
गुरू बैताल और चौसठ जोगिनी के साथ ठाकुर देवता, साहड़ा देवता को उनके रूचि के अनुरूप लोकगाथाकार संतृप्त करना चाहता है-
अखरा के गुरू बैताले ला सुमरो,
नइते पल भर सभा म चले आव,
चौसठ जोगिनी जासल ला सुमरव,
नइते भुजा में रहिबे सहाय,
गांव के ठाकुर देवता ला सुमरव
नइते पर्रा भर बोकरा ला चढ़ाव
गांव के साहड़ा देवता ला सुमरव
नइते कच्चा गो-रस चड़ाव,
             इसके बाद लोक गाथाकार आत्मनिवेदन का आश्रय-ग्रहण करता है, वह लोरिक चंदा की सुरम्य प्रणय गाथा को सुखे मीठे गुड़ अथवा गन्ने के रस की तरह अत्यन्त मीठा एवं सरस स्वीकारता है। यह सुन्दर गाथा जो कोई भी श्रोता श्रवण करेगा। वह प्रेम के पावन सरिता में अवगाहन करके जीवन की जटिलता दूर कर सकने में समर्थ होगा-
खावत मीठ गुड़ सुखरी ये रागी
नइते चुहकत मीठ कुसियार,
सुनत मीठ मोर चंदैनी ये रागी,
नइते कभुना लागे उड़ास
लोकगाथाएं मंगलाचरण के पश्चात् प्रबंध-काव्य-सदृश आत्मनिवेदन की शैली में गाथाओं की विशिष्टता को सूत्रपात के रूप में प्रस्तुत करता है। उसके द्वारा प्रयुक्त उपमान आंचलिक और मौलिक ही नहीं, अपितु लोक से रचे-बसे भी हैं। इसके पश्चात् कथा की शुरूआत को लोकगाथाकार बहुत ही सहज, सरल ढंग से प्रस्तुत करता है-
राजा महर के बेटी ये ओ
लोरिक गावत हंवव चंदा
ये चंदा हे तोर
मोर जौने समे के बेटा म ओ
लोरिक गावत हंवव चंदा
ये चंदा हे तोर।
           प्रायः समीक्षक लोरिक चंदा को वीराख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। यदि लोरिक केवल वीर चरित्र होता तो इसे राजा या सामंत वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया जाता। महाकाव्य अथवा लोकगाथाओं में वीर लोकनायक प्रायः उच्च कुल अथवा नरेशी होते हैं। इस आधार पर लोरिक वीर होते हुए भी सामान्य यदुवंशियों के युद्ध कौशल का प्रतीक है। उसके रूप और गुण से सम्मोहित राजकुमारी चंदा अपने पति और घर को त्यागकर प्रेम की ओर अग्रसित होती है। इस दोनों के मिलन में जो द्वन्द और बंधन है, उसे पुरूषार्थ से काटने का प्रयास इस लोकगाथा का गंतव्य है। इस आधार पर उसे प्रेमाख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत सम्मिलित करना समीचीन प्रतीत होता है।
            उपर्युक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि लोरिक चंदा की गाथा अत्यंत व्यापक एवं साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यद्यपि इसे अहीरों की जातीय धरोहर माना जाता है तथापि यह संपूर्ण हिन्दी प्रदेश की नहीं वरन् दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय एवं प्रचलित है। श्री श्याम मनोहर पांडेय के अनुसार - ‘‘बिहार में मिथिला से लेकर उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके गायक अभी भी जीवित है’’ वे प्रायः अहीर है जिनका मुख्य धंधा दूध का व्यापार और खेती करना है। लोरिक की कथा लोकसाहित्य की कथा नहीं है, बल्कि इस कथा पर आधारित साहित्यिक कृतियां भी उपलब्ध है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ लोकगाथा के नाम एवं कथा में अंतर सर्वाधिक व्यापक रूप से ‘‘भोजपुरी’’ में उपलब्ध होता है जहां यह लोकगाथा चार खंडों में गायी जाती है। ‘‘लोरिक’’ की लोकगाथा का दूसरा भाग, ‘‘लोरिक एवं चनवा का विवाह’’ भोजपुरी क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी प्रचलित है। मैथिली और छत्तीसगढ़ी प्रदेशों में तो यह अत्यधिक प्रचलित है। विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ की कथा में परिलक्षित साम्य-वैषम्य अधोलिखितानुसार है-
‘‘भोजपुरी रूप में चनवा का सिलहर (बंगाल) से लौटकर अपने पिता के घर गउरा आना वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह समादृत है, परन्तु कुछ विभिन्नताएं है। इसमें चनैनी का अपने पिता के घर से पति वीरबावन के घर लौटना वर्णित है। अन्य रूपों में यह वर्णन अलभ्य है।’’
         भोजपुरी रूप में चनैनी को मार्ग में रोककर बाठवा अपनी पत्नी बनाना चाहता है, परन्तु वह किसी तरह गउरा अपने पिता के घर पहुंच जाती है। बाठवा गउरा में आकर उसको कष्ट देता है, राजा सहदेव भी बाठवा से डरता है। मंजरी के बुलाने पर लोरिक पहुंचता है और बाठवा को मार भगाता है। जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं।
         छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा वर्णित है परन्तु उसमें थोड़ा अंतर है महुआ (बाठवा) मार्ग में चनैनी को छेड़ता है। लोरिक वहां आकर उसे मार भगाता है। लोरिक की वीरता देखकर वह मोहित हो जाती है, लोरिक को वह अपने महल में बुलाती है। शेष अन्य रूपों में वह वर्णन नहीं मिलता।
         भोजपुरी में राजा सहदेव के यहां भोज है, चनवा लोरिक को अपनी ओर आकर्षित करती है, रात्रि में लोरिक रस्सी लेकर चनवा के महल के पीछे पहुंचता है, जहां दोनों का मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ में भोज का वर्णन नहीं मिलता, परन्तु रात्रि में लोरिक उसी प्रकार रस्सी लेकर जाता है और कोठे पर चढ़ता है तथा दोनों मिलकर एक रात्रि व्यतीत करते है।
        श्री हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी कथायान ‘‘लोरिक’’ में भी इसका वर्णन है परन्तु कुछ भिन्न रूप में इसमें चंदा (चनैनी) का पति वीरबावन महाबली है, जो कुछ महीने सोता और छह महीने जागता है। उसकी स्त्री चंदा, लोरी से प्रेम करने लगती है, वह उसे अपने महल में बुलाती है और स्वयं खिड़की से रस्सी फेंककर ऊपर चढ़ाती है। मैथिली तथा उत्तरप्रदेश की गाथा में यह वर्णन प्राप्त नहीं होता।
       भोजपुरी लोकगाथा में रात्रि व्यतीत कर जब लोरिक चनैनी के महल सें जाने लगता है। तब अपनी पगड़ी के स्थान पर चनैनी का चादर बांधकर चल देता है। धोबिन उसे इस कठिनाई से बचाती है। वेरियर एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह वर्णन नहीं है परन्तु काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत गाथा में यह अंश उसी प्रकार वर्णित है। शेष अन्य रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
         चनैनी के बहुत मनाने पर लोरिक का हरदी के लिए पलायन की घटना सभी क्षेत्रों की गाथा में उपलब्ध है।
लोरिक को मार्ग में मंजरी और संवरू रोकते है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह वर्णित है, परन्तु केवल संवरू का नाम आता है। शेष रूपों में यह नहीं प्राप्त होता है।
        भोजपुरी रूप में लोरिक मार्ग में अनेक विजय प्राप्त करता है तथा महापतिया दुसाध को जुए और युद्ध में भी हराता है, छत्तीसगढ़ी तथा अन्य रूपों में इसका वर्णन नहीं हैं।
       भोजपुरी में लोरिक अनेक छोटे-मोटे दुष्ट राजाओं को मारता है, मार्ग में चनवा को सर्प काटता है, परन्तु वह गर्भवती होने के कारण बच जाती है। बेरियर एल्विन द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी में लोरिक को सर्प काटता है तथा चनैनी शिव पार्वती से प्रार्थना करती है। लोरिक पुनः जीवित हो जाता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं प्राप्त होता।
भोजपुरी के अनुसार लोरिक की हरदी के राजा महुबल से बनती नहीं थी। महुबल ने अनेक उपाय किया, परन्तु लोरिक मरा नहीं। अंत में महुबल ने पत्र के साथ लोरिक की नेवारपुर ‘‘हरवा-बरवा’’  दुसाध के पास भेजा। लोरिक वहां भी विजयी होता है। अंत में महुबल को अपना आधा राजपाट लोरिक को देना पड़ता है और मैत्री स्थापित करनी पड़ती है।
        मैथिली गाथा के अनुसार हरदी के राजा मलबर (मदुबर) और लोरिक आपस में मित्र है। मलबर अपने दुश्मन हरबा-बरवा के विरूद्ध सहायता चाहता है। लोरिक प्रतिज्ञा करके उन्हें नेवारपुर में मार डालता है।
       एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा विशिष्ट है इसमें लोरिक और करिंधा का राजा हारकर लोरिक के विरूद्ध षड़यंत्र करता है और उसे पाटनगढ़ भेजना चाहता है। लोरिक नहीं जाता।
      भोजपुरी रूप में कुछ काल पश्चात् मंजरी से पुनः मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में हरदी में लोरिक के पास मंजरी की दीन-दशा का समाचार आता है। लोरिक और चनैनी दोनों गउरा लौट आते है। उत्तरप्रदेश के बनारसी रूप में भी लोरिक अपनी मां एवं मंजरी की असहाय अवस्था का समाचार सुनकर चनैनी के साथ गउरा लौटता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
         भोजपुरी रूप सुखांत है, इसमें लोरिक अंत में मंजरी और घनवा के साथ आनंद से जीवन व्यतीत करते है। मैथिली रूप में भी सुखांत है परन्तु उसमें गउरा लौटना वर्णित नहीं है। एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में लोरिक अपनी पत्नी व घर की दशा से दुखित होकर सदा के लिए बाहर चला जाता है। छत्तीसगढ़ में काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत रूप का अंत इस प्रकार से होता है-
         लोरी चंदा के साथ भागकर जंगल के किले में रहने लगता है। वहां चंदा का पति वीरबावन पहुंचता है। उससे लोरी का युद्ध होता है। वीरबावन हार जाता है और निराश होकर अकेले गउरा में रहने लगता है।
        लोकगाथा के बंगला रूप में वर्णित ‘‘लोर’’, मयनावती तथा चंद्राली वास्तव में भोजपुरी के लोरिक मंजरी और चनैनी ही है। बावनवीर का वर्णन छत्तीसगढी़ रूप में भी प्राप्त होता है। बंगला रूप में चंद्राली को सर्प काटता है। भोजपुरी रूप में भी गर्भवती चनैनी को सर्प काटता है। दोनों रूप में वह पुनः जीवित हो जाती है। बंगला रूप में मयनावती के सतीत्व का वर्णन है। भोजपुरी में भी मंजरी की सती रूप में वर्णन किया गया है। लोकगाथा का हैदराबादी रूप छत्तीसगढ़ी के काव्योपाध्य के अधिक साम्य रखता है।
          श्री सत्यव्रत सिन्हा द्वारा उल्लेखित उपर्युक्त साम्य वैषम्य के सिवाय भी लोरिक लोकगाथा में कतिपय अन्य साम्य वैषम्य भी परिलक्षित होते है। यथा-गाथा के भोजपुरी रूप में मंजरी द्वारा आत्महत्या करने तथा गंगामाता द्वारा वृद्धा का वेष धारण कर मंजरी को सांत्वना देने, गंगा और भावी (भविष्य) का वार्तालाप, भावी का इन्द्र एवं वशिष्ठ के पास जाना आदि घटनाओं का वर्णन है जो गाथा के अन्य रूपों में प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार मंजरी के मामा शिवचंद एवं राजा सहदेव द्वारा मंजरी के बदले चनवा के साथ विवाह करने पर दुगुना दहेज देने का वर्णन अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ में अप्राप्त है।
        ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा के बंगाली रूप में एक योगी द्वारा चंद्राली के रूप में वर्णन सुनकर उसका चित्र देखकर लोरिक को चंद्राली के प्रति आसक्त चित्रित किया गया है। यहां बावनवीर (चंद्राली का पति) को नपुंसक बताया गया है। मैनावती पर राजकुमार दातन की अनुरक्ति तथा उसे प्राप्त करने के लिए दूतियों को भेजने का वर्णन है तथा मैनावती द्वारा शुक्र और ब्राम्हण द्वारा लोरिक के पास संदेश प्रेषित करने का वर्णन प्राप्त होता है जो कि अन्य लोकगाथाओं में नहीं है। गाथा के हैदराबादी रूप में ही बंगाली रूप की भांति उस देश के राजा का मैना पर मुग्ध होना वर्णित है।
       ‘‘लोरिक’’ गाथा के उत्तरप्रदेश (बनारसी रूप) में प्रचलित चनवा द्वारा लोरिक को छेड़खानी करने पर अपमानित करना तथा बाद में दोनों का प्रेम वर्णित है। इस प्रकार लोरिक द्वारा सोलह सौ कन्याओं के पतियों को बंदी जीवन से मुक्त कराने का वर्णन है, जो अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा में   उपलब्ध नहीं है। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप में चनैनी और मंजरी दोनों सौत के बीच मार-पीट एवं विजयी मंजरी द्वारा लोरिक के स्वागतार्थ पानी लाने तथा पानी के गंदला होने पर लोरिक का विरक्त होकर घर छोड़ चले जाने का वर्णन है, आज के इस प्रगतिशील दौर में भी जब प्रेमी हृदय समाज के कठोर-प्रतिबंध तोड़ते हुए दहल जाते है। तब उस घोर सामंतवादी दौर में लोरिक और चंदा ने सहज और उत्कृष्ट प्रेम पर दृढ़ रहते हुए जाति, समाज, धर्म और स्तर के बंधन काटे थे। लोरिक चंदा छत्तीसगढ़ी लोकमानस का लोकमहाकाव्य है जिसे प्रेम और पुरूषार्थ की प्रतिभा के रूप में छत्तीसगढ़ी जन प्रतिष्ठित किये हुये है। इसलिए वे आज  छत्तीसगढ़ के आदर्श प्रेमी है और गीत बनकर लोगों के हृदय में राज कर रहे हैं।
डा. सोमनाथ यादव
1. प्रेस क्लब भवन,
ईदगाह मार्ग, बिलासपुर (छ.ग.)